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गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव में हार के क्या हैं भाजपा के लिए मायने?

उपचुनाव के परिणाम ने भाजपा को एक कदम पीछे हटने पर मजबूर कर दिया है। अररिया, फूलपुर में पचास हज़ार से अधिक वोटों से हार और गोरखपुर में 28 साल पुराने किले का ढहना भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के लिए सरदर्द बन गया है। मतदान प्रतिशत में भारी गिरावट और अतीक अहमद जैसे निर्दलीय उम्मीदवारों का वोट काटना भी भाजपा के काम न आया।

वहीं बिहार में तेजस्वी यादव ने अपने युवा तेज का अच्छा उदाहरण पेश किया है। लालू यादव के सज़ायाफ्ता होने का भी जेडीयू-भाजपा गटबंधन को कोई फायदा नहीं हुआ।

इससे राजद के ज़मीनी कार्यकर्ताओं में इस बात का साफ संदेश गया कि लालू के बिना भी तेजस्वी पार्टी को चलाने में सक्षम हैं। कांग्रेस के लिए उपचुनाव एक नई चिंता के रूप में सामने आया है। पार्टी के अंदर राज्य स्तर पर चल रहे आपसी कलह का उभर कर सामने आना 2019 के लिए खतरे की घंटी है।

उत्तर प्रदेश में जिस गठबंधन को ‘सांप-छछूंदर’ का गठबंधन करार दिया गया था, जनता ने उसे अपना मत देकर सर आंखों पर बिठा दिया। एक ऐसा गठबंधन जिसकी न तो कोई औपचारिक बैठक हुई, ना कोई संवाददाता सम्मेलन, न ही कोई रैली और उसने बाज़ी मार ली।

यह भाजपा के साथ कांग्रेस के लिए भी उत्तर प्रदेश में पुनर्विचार का विषय है। एक बात तो साफ है सपा (और बसपा गठबंधन) की इस जीत ने राहुल गांधी को सोचने पर मजबूर किया है, जिन्होंने उत्तर प्रदेश में अपने उम्मीदवार उतारकर कांग्रेस की फजीहत कराई। अखिलेश यादव ने राहुल गांधी को एक उचित संदेश दिया है कि उन्हें उत्तर प्रदेश में मजबूर न समझा जाए। शायद सोनिया गांधी के घर रात्री भोज से अखिलेश और मायावती की दूरी से यह बात साफ हो गयी है।

अपने अड़ियल रवैये के लिए जाने जानी वाली मायावती ने जिस गर्मजोशी से विधानसभा में विपक्ष के नेता और सपा सदस्य रामगोविंद चौधरी का झुककर अभिवादन किया उससे योगी जी के माथे पर शिकन ज़रूर आ गई होगी। जिस गठबंधन को योगी आदित्यनाथ ने अवसरवादी राजनीति क़रार दिया था उसी ने उनकी 28 साल पुरानी नींव हिला दी।

उपचुनाव ने योगी की इमेज को खासा नुकसान पहुंचाया है। त्रिपुरा में भाजपा की जीत का श्रेय योगी आदित्यनाथ को भी दिया गया था, जहां उन्होंने एक के बाद एक कई रैलियां की थीं।

भाजपा योगी की छवि का इस्तेमाल कर्नाटक, राजस्थान और मध्यप्रदेश के चुनाव में ज़रूर करती, पर अब उसे फूंक-फूंक कर कदम रखना पड़ेगा। गोरखपुर में योगी की 11 रैलियों के बाद भी भाजपा की हार ने राष्ट्रीय स्तर पर उसकी हिंदुत्व की राजनीति को नुकसान पहुंचाया है, क्योंकि वह हिंदुत्व के फायरब्रांड नेताओं में से एक हैं।

योगी ने हार के जो कारण गिनाए उनमें कोई भी राष्ट्रीय मुद्दा शामिल नहीं था। बड़ी ही चालाकी से उन्होंने केंद्र सरकार की नाकामियों पर पर्दा डाल दिया। बेरोज़गारी, छात्र हित की उपेक्षा, अल्पसंख्यक और दलितों पर लगातार बढ़ते हमले, आर्थिक मोर्चे पर सरकार की नाकामी और किसानों की बर्बादी जैसे कई मुद्दे इस जीत-हार में दब कर रह गए।

2014 के बाद अब तक 18 उपचुनाव हुए जिसमें भाजपा ने आठ में से छः सीटें गंवा दी और दो में उसे विजय प्राप्त हुई। इनमें चार सीटों पर कांग्रेस ने और दो पर समाजवादी पार्टी ने बाजी मारी। बची हुई दस सीटों पर भाजपा को 2014 में भी हार का सामना करना पड़ा था और अब भी वो यह सीट हार गई। इससे 2104 की आंधी के बाद भाजपा की छवी का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। बिहार की हार, नीतिश कुमार के लिए भी एक सबक है, जनता ने उन्हें दुबारा विकास की ओर लौट जाने को कहा है। नितिश की पाला बदलने वाली प्रवृत्ति को भी जनता ने आने वाले दिनों के लिए सचेत कर दिया। युवा अखिलेश और तेजस्वी को हल्के में लेकर चाचा नीतिश और शिवपाल ने बड़ी गलती कर दी, यह उन्हें बखूबी समझ आ गया होगा।

अब देखने वाली बात यह होगी के क्या राहुल गांधी विदेश से ज़्यादा देश में पार्टी की ज़मीनी हकीकत पर काम करेंगे? क्या योगी के अल्पसंख्यक विरोधी बयानों में कमी आएगी? 2019 का एजेंडा राम मंदिर, युनिफॉर्म सिविल कोड होगा या बेरोज़गारी, अर्थव्यवस्था और शिक्षा? क्या प्रधानमंत्री इस बात को स्वीकार करेंगे कि देश के अर्थव्यवस्था और कृषि जैसे मुद्दों पर उनकी सरकार नाकामयाब रही है?

क्या भाजपा को अब महागठबंधन से लड़ने की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए? क्या महागठबंधन की राह उतनी आसान है, जितना सपा-बसपा ने बताया है? क्या नीतिश कुमार का भाजपा के साथ आना 2019 में एक बड़ी भूल साबित होगा?

एक बात तो साफ है की इन उपचुनावों का असर राजस्थान और मध्यप्रदेश के विधान सभा चुनाव में ज़रूर देखने को मिलेगा।

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