कवि-परिवार से होने के बावजूद ना मैं कोई नियमित कवि हूं और ना ही कविता की दुनिया से मेरा रोज़मर्रे का कोई रिश्ता ही रहा है। लेकिन जब कवि केदारनाथ सिंह की मृत्यु की खबर सुनी तो मुझे लगा कि यह मेरे अपने सगे और प्रिय दादाजी के दुनिया से विदा होने से कम विछोहकारी घटना नहीं है। जब मैं उन पर यह लेख लिख रही हूं तो यह ठीक उसी तरह के अनुभव से गुज़रना है कि जैसे किसी कवि में उसकी कविता की ताप तक पहुंचने से पहले उसकी छवि में अपने दादा-नाना के धूप-छांही अक्स से सराबोर हो जाना हो।
केदार जी के चेहरे का अक्स ऐसा ही तो था। मेरे लिए यह अनुभव इस नाते और अधिक गहन हो गया था कि केदार जी मेरे दिवगंत दादाजी कवि कन्हैया की स्मृति में आयोजित प्रगतिशील लेखक संघ के एक आयोजन में मुख्य वक्ता के तौर पर शामिल हो चुके थे। मैंने अपने दादाजी को तो नहीं देखा था मगर केदार जी की तस्वीरों से जब-जब वास्ता पड़ा तो मैं उनमें दादाजी की छवि से दो-चार होने के भरपूर रोमांच हासिल करने से अपने को रोक नहीं पाती थी।
मगर, यह भी नहीं कि कवि केदारनाथ सिंह की कविताओं का प्रभाव मेरे जीवन में कभी पड़ा ही नहीं था। यह तो उनकी कविता ही थी जो मेरे रोज़मर्रे के जीवन के एक निहायत उबाऊ रोज़गार यानी दोस्तों से लेकर दफ्तर के अपने सहयोगियों से हाथ मिलाने की औपचारिकता को एक नयी गरमाहट वाले रिश्ते में बदलकर रख दिया-
उसका हाथ, अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा,
दुनिया को हाथ की तरह ही गर्म और सुंदर होना चाहिए।
अब मेरे लिए लोगों से हाथ मिलाना महज़ हाथ मिलाना नहीं रह गया है, बल्कि जितनी देर हाथ में हाथ रहते हैं, अब उतनी देर तक मैं दुनिया को गर्म और सुंदर बनाये रखने में अपनी भी हिस्सेदारी निभाने के आनंद से भर उठती हूं।
केदार जी को ना सिर्फ हाथ के रास्ते दुनिया को गर्म और सुंदर बनाये रखने की चिंता थी बल्कि उनकी चिंताओं में भाषा के भीतर लोगों के उचित प्रतिनिधित्व के सवाल की भी भरपूर अनुगूंज दिखाई देती थी। वे मनुष्य को सर्वोपरि देखते थे और मनुष्य के आचरण के भीतर ही दुनिया तथा भाषा की बेहतरी का अद्भुत फॉर्मूला भी गढ़ते थे। इस सिलसिले में वे स्थानीयता से शुरू कर राष्ट्रीयता और फिर अंतर्राष्ट्रीयता की चौहद्दी तक अपनी पहुंच किस जादुई कारनामे के साथ संभव बना लेते थे, उनकी कविताओं में यह देखना एक दुर्लभ उत्सव सा आनंद लेने के बराबर है-
मेरी भाषा के लोग, मेरी सड़क के लोग हैं,
सड़क के लोग सारी दुनिया के लोग हैं।
लोग, दुनिया और भाषा के बाद केदार जी अपने करिश्माई अवलोकन का फोकस उस कामगार चिड़िया के ऊपर डालना भी नहीं भूलते जो किसी खेत के मेड़ पर टूटे हुए हल को अपनी चोंच से उठाने की कोशिश में लगी हुई है। आप कह सकते हैं यह एक मुकम्मल पेंटिंग है। केदार जी को कविता के कैनवास पर धरती पर होनेवाली ऐसे ही अति साधारण हलचलों की असाधारण चित्र उकेरने में महारत हासिल थी। लेकिन उन्हें इन हलचलों का चित्र उकेरने की हड़बडी भी नहीं रहती। वे बड़े इत्मीनान से अपने को एकदम से किनारे करके घटित हो रही घटनाओं का गवाह बनते थे। इतना ही नहीं, श्रम के किसी भी प्रकार को सीधे जनहित से जोड़ने से भी उन्हें कोई गुरेज नहीं था। जैसा कि उन्होंने इस बेकार से लगने वाले चिड़िया की चोंच से टूटे हुए हल को बार-बार उठाने के उपक्रम को जनहित के काम से जोड़ कर देखा है-
एक टूटा हुआ हल मेड पर पड़ा था
और एक चिड़िया बार-बार बार-बार,
उसे अपनी चोंच से
उठाने की कोशिश कर रही थी,
मैंने देखा और मैं लौट आया
क्योंकि मुझे लगा मेरा वहां होना
जनहित के उस काम में दख़ल देना होगा।
कवि केदारनाथ सिंह धरती पर इन्हीं गैर-मामूली या कह सकते हैं कि क्षुद्र-सी दिखने वाली हलचलों की गहरी पड़ताल करने वाले हमारे समय के सबसे बड़े और श्रेष्ठ कवि थे। बड़ा कवि ‘ बड़ा ‘ तभी होता है जब वह अपनी मृत्यु उपरांत ईश्वर की नियति को भी पहचान कर उसकी घोषणा अपने जीते जी कर जाता है-
जब कोई कवि मरता है,
पृथ्वी पर
सबसे पहले छलकती है
ईश्वर की आंख।
हम कह सकते हैं कि कवि केदारनाथ की मृत्यु पृथ्वी पर घटित होने वाली वह त्रासदी है जिससे आज सबसे अधिक आक्रांत ईश्वर ही हुआ है, क्योंकि ईश्वर की आंख का छलकना देखने वाला भी अब कोई विलक्षण कवि दोबारा जन्म लेगा, इसका यकीन उसे भी नहीं है। जहां तक हमारी बात है तो हमारे लिए तो कवि केदारनाथ का जाना इससे अधिक कोई अर्थ नहीं रखता कि किसी नन्हीं चिड़िया की अपनी चोंच से जनहित का कोई काम करते देख उनका चुपके से कहीं लौट जाना हुआ है।