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क्या 2019 तक बहुजन राजनीति खुद को BJP के खिलाफ एकजुट रख पाएगी?

वो 1990 के बाद का साल था। आयोध्या में बाबरी मस्जिद को कार सेवकों ने ढाह दिया था। आडवाणी की रथ यात्रा ने पूरे देश में सांप्रदायिक माहौल की ज़मीन तैयार कर दी थी। देश के कई हिस्से में दंगे हो रहे थे और लोग मारे जा रहे थे। उत्तर प्रदेश उन दिनों सबसे ज़्यादा चर्चा में था। दूसरी तरफ मंडल कमीशन की सिफारिशों को वीपी सिंह की सरकार ने लागू कर दिया था, आरक्षण पर बहस चल रही थी। पहली बार देश में समाजिक तौर पर दशकों से पीछे रहे एक बड़े तबके को आरक्षण से व्यवस्था के भीतर लाने की कोशिशें चल रही थी और उसका पुरज़ोर विरोध किया जा रहा था।

उन्हीं दिनों की बात है। BJP, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे संगठनों की मदद से अपनी राजनीतिक ज़मीन को बढ़ाने में लगी थी और उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए। एक तरफ बीजेपी अपने सांप्रदायिक एजेंडे के साथ चुनाव लड़ रही थी तो दूसरी तरफ कांशीराम और मुलायम आपस में मिलकर मोर्चा थाम चुके थे। दलित, अति पिछड़ा समुदाय एकसाथ आ चुका था और शोषितों के मुद्दे पर चुनाव लड़ रहे थे। कांशीराम ने नारा दिया 85 पर 15 का राज, नामंजूर, नामंजूर।

माननीय कांशीराम का मतलब साफ था- 85 प्रतिशत दलित, आदिवासी, पिछड़े और मुस्लिमों पर 15 प्रतिशत सवर्ण जातियों का वर्चस्व को नकराने की राजनीति शुरू हो चुकी थी। दरअसल इससे पहले ज़्यादातर जगहों पर कांग्रेस की सरकार थी। कांग्रेस और बीजेपी दोनों को सवर्णों की पार्टी ही मानी जानी चाहिए। क्योंकि ज़्यादातर इन पार्टियों के नेता सवर्ण समुदाय से ही आते थे।

उस समय जो उत्तर प्रदेश विधानसभा के नतीजे आये उसमें BJP बुरी तरह हार चुकी थी। कांशीराम और मुलायम की जोड़ी चुनाव में हिट रही थी। चुनाव नतीजों के बाद नारे लगे-मिल गए मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम। यह चुनावी नतीजे एक बड़ा संकेत दे रहे थे। उस समय शायद ही किसी ने सोचा था कि आगे चलकर यही जय श्रीराम वाली पार्टी बहुजनों के वोट को पाकर या फिर उनके बंटने की वजह से एकदिन केन्द्र में बहुमत की सरकार बनायेंगे।

साल 2014 में बीजेपी केन्द्र की सत्ता में आने में कामयाब रही। उसके बाद लगातार छोटे-बड़े राज्यों में नैतिक-अनैतिक तमाम तरीकों से बीजेपी सरकार में आ ही रही है। लेकिन जब बीजेपी की एक तरह से आंधी चल रही है, ठीक उसी समय गोरखपुर के उपचुनाव के नतीजे आये हैं, वहां BJP हार चुकी है। गोरखपुर में पिछले 25 सालों से बीजेपी लगातार जीतती आयी है। इस सीट से सांसद बनते आ रहे योगी आदित्यनाथ आज उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। लेकिन फिर भी BJP इस सीट को हार बैठी, जबकि कुछ ही महीने पहले इस राज्य में BJP को एकतरफा बहुमत मिली थी।

दरअसल इस हार में BJP के विपक्षी पार्टियों के लिये एक बड़ी सबक छिपी है। गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव में BJP के खिलाफ सपा-बसपा मिलकर चुनाव लड़ रही थी। इन दोनों पार्टियों पर पिछले विधानसभा चुनावों में अस्तित्व बचाने का संकट था, क्योंकि दोनों अलग-अलग चुनाव लड़ रहे थे। अब जब दोनों प्रायोगिक तौर पर ही सही एकसाथ आएं तो BJP को मुंह की खानी पड़ी।

इससे पहले 2015 में जब BJP की लहर पूरे देश में चल रही थी, ठीक उसी समय बिहार से BJP की बुरी तरह हारने की खबर भी आयी थी। वहां भी नीतीश-लालू की जोड़ी ने BJP की हवा निकाल दी थी। अब उत्तर प्रदेश और बिहार के राजनीतिक समीकरणों को देखते हैं। बिहार में नीतीश हों या लालू या फिर उत्तर प्रदेश में मुलायम हों या मायावती। ये सभी क्षेत्रीय नेता बहुजन राजनीति से निकले हैं और दलित-पिछड़े वर्ग की नुमाइंदगी करते हैं।

अब गौर से देखें तो 2019 लोकसभा चुनाव में BJP को इन बहुजन नेताओं के एकमंच पर होने से खासा परेशानी का सामना पड़ता, इसलिए तिकड़म करके बीजेपी ने नीतीश को अपने पाले में ले लिया। लेकिन सबसे ज़्यादा लोकसभा सीट वाले राज्य उत्तर प्रदेश में मायावती-अखिलेश की दोस्ती BJP के सर पर बल लाने वाली है। यह ज़ाहिर हो चुका है कि अगर ये दोनों मिलकर चुनाव लड़ते हैं तो BJP को पीछे हटना पड़ सकता है।

इसके कारणों को समझने की कोशिश करते हैं। BJP दरअसल मोटामोटी सवर्णों की पार्टी है। संघ के कई नेता खुलेआम आरक्षण विरोधी बयान दे चुके हैं। बीजेपी जिस संघ के एजेंडे पर देश को चलाने की कोशिश कर रही है, वह भी ब्राह्मणवादी और मनुस्मृति जैसे ग्रंथों पर टिकी हुई व्यवस्था है, जो अपने नेचर में दलित और पिछड़ा विरोधी है।

फिलहाल BJP का एक एजेंडा मुस्लिम विरोध भी है। हम अक्सर बीजेपी के नेताओं से मुस्लिम विरोधी बयान सुनते हैं, अभी हाल में मुख्यमंत्री योगी ने ईद न मनाने को लेकर बयान देकर इस बात को फिर से साबित किया। मुस्लिमों के नाम पर बहुसंख्यकों को डरा कर उनसे वोट लेने की राणनीति पर ही BJP की राजनीति टिकी हुई है। BJP जितना गाय, गोबर, लव जेहाद, मंदिर, मस्जिद के मुद्दे पर बहस करेगी, उसकी राजनीति को दाना-पानी मिलता रहेगा। लेकिन जैसे ही उससे आरक्षण पर, दलितों और पिछड़ों के मुद्दे पर, ब्राह्णवादी व्यव्यवस्था पर सवाल किया जायेगा वह पीछे हट जाती है।

ज़ाहिर सी बात है बहुजन इस बात को समझते हैं। वे समझते हैं कि अगर BJP सरकारी नौकरियों को खत्म कर रही है तो उसका एक मकसद आरक्षण को कमज़ोर करना भी है, भारतीय विश्वविद्यालयों में एससी-ओबीसी के स्कॉलरशिप खत्म करने का मुद्दा हो या फिर रोहित वेमुला के आत्महत्या का- BJP का सवर्ण चेहरा बार बार सार्वजनिक होता रहा है। ऐसे में अगर बीजेपी को टक्कर देना है तो बहुजन की राजनीति के रास्ते ही आगे बढ़ना पड़ेगा।

लेकिन बहुजन राजनीति की एकता, विपक्ष की एकता पर भी टिकी हुई है। स्वाभाविक रूप से वामपंथी या कांग्रेस पार्टी में बहुजन की राजनीति और अस्मिता के सवाल को गौण ही रखा गया है। ऐसे में मुश्किल यह है कि जब तक देश की बड़ी राजनीतिक शक्ति लेफ्ट और कांग्रेस बहुजन राजनीति की तरफ नहीं बढ़ेगा तब तक BJP को रोकने की कोशिशें बहुत दूर तक जाती हुई नहीं दिखती हैं। दूसरी तरफ केजरीवाल और आप पार्टी भी हैं जो विपक्ष की राह में रोड़ा बना हुआ है।

दूसरी तरफ तमाम क्षेत्रीय और विपक्षी पार्टी नेताओं को देखने पर पता चलता है कि उनकी व्यक्तिगत महत्वकांक्षाएं भी बहुत हैं। चाहे वो लालू हों या अखिलेश और मुलायम या राहुल गांधी अब सवाल यह है कि सेक्यूलरिज़्म जैसे बड़े मुद्दे के लिए क्या विपक्षी दल अपना निजी स्वार्थ छोड़ पाएंगे ?

क्या फासीवादी खतरों को देखते हुए, BJP को रोकने के लिये तमाम विपक्षी पार्टियां व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठकर बहुजन पॉलिटिक्स की तरफ अपना रुख कर पाएंगे?


अविनाश चंचल Youth Ki Awaaz के फरवरी-मार्च 2018 बैच के ट्रेनी हैं।

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