कुछ समय से ये जो मेरे आस पास हो रहा है, वो मुझे बड़ा परेशान करता है। कई बार इस बदलाव पर रोना आता है, तो कई बार तरस आता है।
आज 2 अप्रेल को SC/ST Act पर बंद को लेकर युवा बड़े जोश के साथ जुटे हुए है, कोई बंद कराने को लेकर, तो कोई इस बंद को (जो बंद अभी हुआ नही है) को खोलने को लेकर|
आज जो इस आरक्षण व्यवस्था के खिलाफ लगातार फेसबुक व व्हाट्सएप्प पर मेसेज फॉरवर्ड कर आक्रोश के साथ लगे हुए है, शायद उन्होनें इस जाति व्यवस्था को देखा तो है, पर इसके निचले पायदान पर खड़ा होने का जो अहसास है, वो नही किया है|मैं ना उच्च जाति से हूं, ना निचली से, इसलिए मैंने भी उस कुप्रथा को झेला तो नही है, पर मैंने उस अन्याय को देखा है। जब गाँव में मेरे घर पर ‘मेहतर’ (सफाई करने वाली एक जाति) के लिए एक प्लेट और गिलास घर के बाहर रखा होता है(सिर्फ उसी में वह खाना खा सकता है और उसके टूट जाने पर वो बर्तन दे दिए जाते , जो घरवाले फेंकने के लिए निर्णय कर चुके होते) तथा फिर दादी का उससे दूर रहते हुए खाना और पानी देना। यह अस्पृश्यता नही है, तो क्या है??
फिर शहर में आने पर एक आयकर अधिकारी , जो फिर से दलित थे, के एक बार घर पर आने पर उनका स्वागत सत्कार किया गया( चूंकि वे एक अधिकारी थे, इसलिए कुछ निहित स्वार्थों के कारण जरुरी था), परंतु उनके जाने के बाद मेरी माताजी ने उन बर्तनों को जो रगड़ रगड़ कर धोया है( शायद इतनी मेहनत हम अपने विचारों पर करते, तो इन बर्तनों पर करने की जरूरत नही पड़ती), लगा कि आज तो ये बर्तन प्राण न त्याग दें। ये अस्पृश्यता नही है, तो क्या है ? पहले वाकये से अंतर यह है कि जो हो रहा है, वो छुपकर हो रहा है और इसका श्रेय मैं तो इसी आरक्षण को देना चाहुंगा।
अब बारी आती है, कॉलेज की, जहां पूरा कॉलेज जनरल, जाट, एससी और एसटी में बंटा हुआ था। यहां भी तार्किक और वैज्ञानिक सोच रखने वाले देश के कर्णधार उसी जाति प्रथा के चक्रव्यूह में फंसे दिखे। जब कोई sc/st के लड़के के कम ग्रेड होते, तो उसका कारण बताया जाता,फिर से आरक्षण व्यवस्था। लेकिन उस पहले वाकये का परिणाम ही यह तीसरा वाकया है।
तो हे युवाशक्ति! मुझे तो यह आरक्षण व्यवस्था बड़ी सफल लगती है, जिसने प्रत्यक्ष अस्पृश्यता को अप्रत्यक्ष में तो बदल दिया और शायद इस अर्थयुगीन संसार में पूर्णतः समाप्त भी कर सके।
साक्ष्य संलग्न https://countercurrents.org/2017/02/16/impact-poona-pact-that-humiliate-a-diler/
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