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“आज के भारत में आरक्षण आर्थिक आधार पर नहीं हो सकता”

साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा SC/ST एक्ट में हुए संशोधन को लेकर दलित समुदाय का देशव्यापी आन्दोलन हुआ। हर तरफ इस मसले को लेकर चर्चाएं हुई। राजनैतिक फायदे का ख्याल रखते हुए हर राजनीतिक दल ने बहुत नाप तौल कर इस मुद्दे पर अपनी राय रखी, आखिर 2019 नज़दीक है और चुनाव के साल कोई भी खतरा मोल लेना नहीं चाहता। दुःख इस बात का है कि इसी राजनीतिक उठापटक के चलते दलित हित और विमर्श पीछे छूट गया और गंदी राजनीति ने आन्दोलन को कब्ज़े में ले लिया।

इसी के परिणामस्वरूप दलित आन्दोलन हिंसक हो गया और 1 दर्जन से ज़्यादा लोगों की मौत हो गई। इसी मुद्दे पर फिर एक सवाल को ज़िन्दा कर दिया जो वक्त – बेवक्त सामने आता रहता है। सवाल यह कि “क्यों भारत में आरक्षण आर्थिक आधार पर लागू नहीं किया जाता?” मैंने इस विषय में सोचा और कुछ जांच पड़ताल की। उसी के अनुभव पर यह लेख लिख रहा हूं। मुझे उम्मीद है आप समझ जाएंगे कि आज आरक्षण को आर्थिक आधार पर लागू करने में क्या दिक्कते हैं।

आइये सबसे पहले हम सिलसिलेवार तरीके से बातों को समझते हैं। भारत में इस समय आरक्षण का आधार जातिगत है। इसका मतलब यह है कि अगर आप एक विशेष जाति–जनजाति से आते हैं तो आपको सरकारी नौकरी, पढ़ाई और अन्य सुविधाओं में रियायत या सहूलियत मिलेगी इसकी वजह ये रही कि भारत में कई हज़ार सालों तक इन जातियों और जनजातियों पर अनेक किस्म के अत्याचार और शोषण किए गये जिस कारण ये मुख्यधारा से दूर दीन-हीन जीवन जीने को मजबूर होते रहे।

मगर उनकी दिक्कतें आज भी दूर नहीं हो सकी। राजनीति के चलते सियासी दलों ने उन्हें सिर्फ अपना वोट बैंक समझा और उनका इस्तेमाल किया जिसके चलते आज़ादी के 70 वर्षों के बाद भी उनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। इसी बीच भारत की जनसंख्या बहुत विस्फोटक ढंग से बढ़ी और उसी का नतीजा रहा कि हर तरफ एक असंतुलन पैदा हो गया। देश में बेरोज़गारी एक बड़ी समस्या के रूप में उभरी और इसी के चलते कई ओर से यह आवाज़ उठी कि इस आरक्षण के चलते हमको नौकरी नहीं मिल रही है। इसलिए अब आरक्षण का जातिगत आधार खत्म करके इसे आर्थिक आधार पर लागू किया जाए।

अब मैं आपको बताता हूं कि आज के भारत में ये क्यों मुमकिन नहीं है।

देखिए जब आप कहते हैं कि आरक्षण का आधार आर्थिक होना चाहिए तब आप ये कहते हैं कि चाहे व्यक्ति किसी धर्म, जाति, जनजाति, समुदाय, लिंग का हो अगर उसकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है और वो बेहद गरीबी का सामना कर रहा है तो उसे आरक्षण मिलना चाहिए। इस बात को कहते वक्त आप समाजिक समानता की बात करते हैं, आप मानते हैं कि किसी धर्म, जनजाति, लिंग, समुदाय,जाति का गरीब एक समान है, इसलिए उसे आरक्षण दिया जाना चाहिए।

लेकिन आपकी ये सोच सच नहीं है, मैं इसे आगे साबित करने की कोशिश करता हूं

फर्ज़ कीजिए आपके शहर या गांव में 2 गरीब व्यक्ति हैं। एक गरीब जाति से ब्राह्मण है और दूसरा गरीब जाति से दलित। अब आप सोचेंगे कि दोनों गरीब एक समान हैं। मगर ऐसा नहीं है। एक गरीब जो ब्राह्मण है उसे समाजिक संघर्ष करना पड़ेगा मगर सिर्फ अपनी आर्थिक स्थिति को लेकर। मतलब अगर कोई उसकी बेइज्ज़ती करेगा तो सिर्फ इसलिए क्योंकि वो धनवान नहीं है। इसके अलावा वो किसी भी मन्दिर में जा सकता है। किसी भी नदी, तालाब, कुंए से पानी पी सकता है। किसी भी सभा और सामजिक कार्यक्रम में भाग ले सकता है। किसी भी सामुदायिक कार्य्रकम में उसके साथ उसका तिरस्कार उसकी जाति को लेकर नहीं होगा। हर कोई उसके घर भोजन ग्रहण कर सकता है, वो बिन किसी परवाह के अपनी सन्तान की शादी कर सकता है।

इसके ठीक विपरीत अगर कोई ग़रीब जाति से दलित है तो उसे आर्थिक हालत पर तो जिल्लत झेलनी होगी ही साथ ही अपनी जाति के आधार पर हीन महसूस करना होगा। उसे अपनी सन्तान की शादी से पहले दस बार सोचना पड़ेगा कि वो शादी के इतजाम किस तरह के करवाए। आज भी धूम धाम से शादी करने से पहले हमारे देश में दलित की हत्या कर दी जाती है। आज भी दलित को तालाब या कुंए से पानी पीने की इजाज़त नहीं है। आज भी दलित के घर का भोजन करने में लोग परहेज़ करते हैं। आज भी सवर्ण अपने बच्चों की शादी दलित से नहीं करवाते। आज भी दलित आपके घर किसी काम से आएं तो उनके चाय, पानी के बतर्न अलग होते हैं। आज भी दलित देश के कई हिस्सों ने गटर साफ करने और इंसानी मल उठाने का काम कर रहे हैं। आज भी उनके साथ अछूत जैसा व्यवहार हो रहा है।

कोई दलित अगर आरक्षण पाकर 10 लाख रुपये सालाना कमाने लगे फिर भी लोग उसके घर खाना नहीं खाएंगे, उसकी बेटी से अपने बेटे का ब्याह नहीं करेंगे, उसे पूजा अनुष्ठान में नहीं आमंत्रित करेंगे। इसका मतलब यग कि चाहे वो गरीब से अमीर बन जाए उसकी आर्थिक स्थिति तो सुधर जाएगी मगर सामाजिक इज्ज़त नहीं बढ़ेगी।

अगर आपको मेरी बातें अतिशोक्ति लग रही हैं तो गूगल पर कई सरकारी आंकड़े देख लीजिए। पिछले 10 सालों में दलित उत्पीड़न के मामले लगातार बढ़े हैं। हर दिन दलित महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाओं में इज़ाफा हो रहा है। देश के हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में दलित जजों की संख्या लगभग शून्य है। पिछले कई वर्षों में दलितों की हत्या के केस बढ़ते चले आएं हैं।

इससे ये साबित होता है कि एक गरीब ब्राह्मण और एक गरीब दलित समान नहीं हैं। गरीबी के अतिरिक्त ऐसी कई समस्याएं हैं जिससे एक इन्सान को सिर्फ इसलिए गुज़रना पड़ता है क्यूंकि वो दलित है।

अब जब ये साफ है कि दोनों गरीब समान नहीं हैं तो हम कैसे कह सकते हैं कि आज का भारत आरक्षण को आर्थिक आधार पर लागू करने के लिए तैयार है।

हमको ये साफ तौर पर ये समझना पड़ेगा कि जब तक हम अपने समाज से जातिवाद खत्म नहीं करते, जब तक हम खाने पीने, शादी करने से पहले दूसरे इन्सान की जाति देखते रहेंगे तब तक इस देश में आर्थिक आधार पर आरक्षण लागू करने की बात करना सिर्फ बेईमानी होगी।

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