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पाब्दों ~ एक ऐसी कहानी जिसे सुनने वाला कोई न था

 

पाब्दो ! सब कुशल है न। माफ करना पिछली बार चिट्ठी में देर हो गयी । जिला मुख्यालय में दो बार शिकायत भी करी थी। मुख्यालय का बाबू भी हमारे यूपी का ही है। मुझे जानता है। मेरी चिट्ठियां समय पर ही तो पोस्ट कर देता है। कोई और डाकखाने में ही दिक्कत हो गयी होगी शायद।

और अब तुम बताओ! तुम क्या! बस घर वालों के बारे में ही लिखा करती हो। पूरी चिट्ठी में तुमने अपना कुछ लिखा, हां ? अच्छा अबसे दो चिट्ठियां लिख दिया करना अगली बार से हम्म्म्म। एक घर के बारे में और एक सिर्फ तुम्हारी । जिसमें सिर्फ तुम्हारी बातें हो । जिसमें बरसीम का चारा काटते समय सरसों के पौधों को आने से आई मेरी याद की बातें हों । चौकठ पर बैठकर शाम 4 बजे तुम स्कूल से लौटते छोटे बच्चों को देखकर हमारे बच्चों की कल्पना करती हो उन सब की बातें हों । तुम्हारी नई साड़ी के हर रंग , उसके ब्लाउज , पीको , उस पर टहनी की कढाई की बातें हों । तुम रात में निपट अकेले जब सोती हो तो सोते समय ऊपर छत से लटके पंखें से क्या बात करती हो वो बातें हो ! दीपक के उजाले और दीपक के बुझाने के बाद की यादों में कोई अंतर आता है क्या !! कोई अहसास बदलता हो !! उन सबको लिखा करो पाब्दो !

मुझे बहुत शिकायत है तुमसे कितना कम लिखती हो चिट्ठी में ! क्या मैं और मेरी यादें तुम्हारे लिए कागज के दस पन्नों तक सीमित हैं ? पता है महीने में तीस दिन होते हैं । मुझे तीस पन्नों वाली छिट्ठी लिखा करो हम्म्म्म ।

तुम जानती ही हो सुकमा के जंगल कितने घने हैं !! जिला मुख्यालय से मीलों दूर है अपना कैम्प ! तुमको पता है न ! मोबाइल फोन तो बस 200 ग्राम का वजन है यहाँ । तुम्हारी आवाज सुने तो महीने हो जाते है पाब्दों ! फिर चिट्ठियां ही तो हैं जिससे में बात करता हूँ । अब तुम उनमें तो कंजूसी न ही किया करो ।

अरे रे  रे रे !  हाँ ! एक बात तो बताना भूल ही गया । मैं मार्च के आखिरी में घर आ रहा हूँ । अपनी केडेट के कप्तान से मैंने बातें कर लीं हैं । एप्लीकेशन मंजूर कर लेंगे वो । फिर तुम्हें यहाँ घुमाने ले आऊंगा हम्मम्मम्म !! तुम्हें तो पहाड़ पसंद हैं न !! सुकमा में बहुत घने जंगल हैं । ओस से सने पेड़ !! अमलतास के पेड़ ! उनके नीचे पीले सूखे पत्ते । सूखे बेरों के पेड़ पर लटकी हरी अमर बेल ! अंदर जंगल में पतली सी छरहरी नदी निकलती है । उसके अनगढ़ से पत्थर वाह !! कितने सुंदर हैं । तुम उनको हाथों में ले लेना । दूर दूर तक फेंकना !! ह्ह्ह्हह्ह !

वैसे तुम कितनी दूर तक फेंक  सकती एक पत्थर ? बस तीस मीटर भी नहीं न । जान ही नही है तुममें । खाती ही कितना हो । कुछ खाया करो। ह्म्म्मम्म ! थोड़ी जान आएगी शरीर में । अच्छा तुमने सागौन के पेड़ देखे हैं ? लम्बे लम्बे पेड़ । ऐसे ही साल के पेड़ लम्बे लम्बे होते हैं । तुम आओगी तो सब दिखाऊंगा । सुबह सुबह 9 बजते बजते सूरज की किरणें घने जंगल में सुनहरी बारात ले आती हैं । तुम्हें ओस और धीमी धीमी धूप तो पसंद है न । ऐसा करेंगे रात के लिए कुछ सूखी लकड़ी और पत्ते इकठ्ठा कर लेंगे । जलाकर पूरी रात बात करेंगे ।

सुबह उठते ही फिर ऊपर पहाड़ी पर घूमने चलेंगे । ऊपर चढ़ते चढ़ते तुम्हारी सांसे फूलने लगेंगी । तुम्हारे दोनों हाथों के बाजुओं के कोनों में पसीना आ जाएगा । तुम अपनी पसीजी हथेलियों को मेरी कमर से लपेटते हुए आगे चलती जाओगी । तुम्हें चिड़ियों की चहचहाहट की आवाजें जंगल के सन्नाटे में गीत लगेंगी । जानती हो तुम्हारे साथ रहकर मुझे कोयल की आवाज सुनने में मजा आने लगा है । पेड़ पौधों  के नाम तुम्हारी यादों से जोड़ देता हूँ । कहानी बना देता हूँ । और पेड़ों के नाम याद हो जाते हैं । याद भी इसलिए करता हूँ ताकि तुम्हें बता सकूँ । चूँकि तुम्हें जंगल , पहाड़ , नदियाँ , झरने , पेड़-पौधे , चिड़ियाँ पसंद हैं न !

तभी सियार की आवाज सुनकर अमन को अहसास होता है कि रात के साढ़े ग्यारह बज गये हैं।

कपड़े के तम्बू में घिरे कैम्प में सोये हुए अमन को महसूस होता है कि वह पाब्दो के साथ नही कैम्प में है ।

 

सोचते सोचते अमन की आँखें भर आतीं, गला रुँधने लगता, आँखें मीच लेता, पास रखे चादर को आगे खींचता है । भीगी आखों और ताजा यादों को अपने जेहन में दफन कर चादर ओढ़ कर सो जाता है । पीठ पर पन्द्रह किलो के बस्ते को ढोते हुए ”सर्चिंग ऑपरेशन” करने के बाद अमन थक जाता । ऐसी ही तमाम मनगढ़ंत बातें अमन के जेहन में हर रोज आती हैं। रात के नौ बजते ही खाना खाने के बाद कैम्प में अमन के साथ गहरा काला आसमान , प्लास्टिक और कपड़े का बना तम्बू और भिनभिनाते मच्छर और पाब्दो का मुस्कराता हुआ चेहरा ही साथ होते । दिन में नक्सलियों के तनाव का आरोहण रात में पाब्दो की भींगी यादें कर लेतीं। इस तरह ही अमन पूरी रात चिट्ठियां लिखने की सोचता । सोचते सोचते थक जाता । चिट्ठियां कभी कभार ही लिख पाता । ‘याद’ करने से वह पाब्दो के निकट होता था । पाब्दों की गरम साँसों को महसूस कर सकता था । मगर चिट्ठियां लिखना एक दुरूह काम था । लोहे की बंदूकों को पूरे दिन तान, हाथ निरीह हो चुके थे। हिम्मत नहीं होती थी लिखने की । लिखने से पाब्दो दूर लगती थी । उसके अहसास छूटने लगते थे । इसलिए अमन , पाब्दो के लिए महीने में एक दो चिट्ठी ही लिख पाता था, वो भी दो चार पेज की । ज्यादातर मींची हुई आखों में पाब्दो की तस्वीर बना याद करने में ही उसे निकटता महसूस होती ।

पाब्दो और अमन दोनों की शिकायत रहती थी, एक दूसरे के लिए कम लिखने की । दोनों एक दूसरे से घर वालों के अलावा खुद क्या सोचते हैं , क्या झेलते हैं , क्या याद करते हैं , कब कब याद करते हैं, के बारे में लिखने का आग्रह रखते । सुकमा में रहने वाले हर जवान के जेहन में ऐसी चिट्ठियां अनगिनत साहित्य समेटे हुए हैं । अमन की ऐसी हजार चिट्ठियां कुँवारी रह गईं या गर्भ में ही मर गईं। जिन्हें रात के 9 बजे से 11 बजे के बीच सोचा गया और साढ़े ग्यारह होते होते रुन्धियाये गले के साथ भीगी हुई आँखों से दिल में ही दफ्न कर दिया गया ।

इधर पाब्दो आने जाने वाली हर साइकिल मोटरसाइकिल वाले को डाकिया ही समझती थी । घर के खुले दरवाजे पर हर आवाज का उसके लिए मतलब होता कि अमन की चिठ्ठी आई है । जिसे वह तेज क़दमों से चलते हुए आये और जल्दी से छीन कर बस दो साँसों में ही पढ़ ले । पर आने जाने वाली हर आवाज डाकिया नही होती । जब भी घर में कोई फोन धड़धडाता पाब्दो तुरंत उसके पास आ जाती । शायद आज अमन का फोन आया हो । हर रिंगटोन उसकी साँसों की गति बढ़ा देता। चौखट पर दरवाजे को खटखटाने की आवाज , धड़धड़ाते-बजबजाते फोन की आवाज या टीवी पर दिखाई जाने वाली किसी सीमा पर हुए शहीदों की खबर उसे तत्काल अमन के पास ले जाती ।

पाब्दों के घर में भय और खुशियाँ एक साथ दस्तक देतीं। आने-जाने वाली हर आवाज के साथ सबसे पहले ‘भय’ ही घर में प्रवेश करता । किसी अनहोनी का भय ! लेकिन वह भय तब फुर्र हो जाता जब चिट्ठी में लिखा होता ‘‘माँ-बापू सा को चरणवंदन ! मैं यहाँ कुशल हूँ ’’ वह भय तब फुर्र हो जाता जब फोन की कॉल पर अमन की आवाज सुन लेतीं । भय जल्दी ही खुशी में बदल जाता ।

आज किचन में खत्म होती सर्दियों में पाब्दों ने आखिरी बार ‘’ बाजरे की रोटी ‘’ बनाई थी । सोच रही थी अमन होते तो खूब सारा घी लगा के बाजरे की रोटी देती। तीन रोटी खाते तब भी चौथी रोटी की जिद करती, साथ में आलू टमाटर की सब्जी । आहा !!! अमन को कितना पसंद आती। अमन तो दूध के बिना रोटी खाते ही नहीं थे । पता नहीं उस बीहड़ जंगल में दूध मिल पाता होगा या नहीं। अमन यहाँ आयेंगे तो गाजर का हलवा !  खोवे के लड्डू बनाऊँगी । अबकी बार लिखूंगी कि पूरे दो महीने की छुट्ठी लेकर आयें । अबकी बार मायके भी ले जाऊँगी। सब देखेंगे न मेरा अमन कितना सुंदर है । कितना सीधा है । भोला सा एकदम !

इधर तवे पर रखी रोटी जल जाती है । पाब्दो होश में आती है । ये यादें ही हैं जिनसे पाब्दो और अमन दोनों बिना किसी तार के जुड़े हुए हैं । यादों के नेटवर्क कभी कम नही होते । कोई चार्ज भी नही लगता । बस आँखें गीली करनी होती हैं! बस थोड़ा सा रोना होता है पर बिना आवाज किये । रोटी को तवे से उतार पाब्दो गैस को धीमा कर देती है ।

तभी एक फोन आता है ! सहसा ही पाब्दो का ध्यान उस फोन की आवाज पर जाता है । पाब्दो मन ही मन भगवान से प्रार्थना करने लगती है । सुकमा से किसी फौजी अफसर का फोन आया है । बार बार फोन कट जा रहा है । बात नहीं हो पाती । सुकमा के जंगल में कहां नेटवर्क आते, बूढ़े बाप की धड़कनें थमनें लगती हैं । पाब्दो रोटियों को जलती ही छोड़ दौड़कर बारामदे में आ जाती है । सूप पर गेहूं साफ करती माँ भी तेजी से घबराती हुई बारामदे में सूखे मुहं से अपने पति बलदेव की और देखती है । पति बलदेव तुरंत दौड़कर कमरे में पहुँचते हैं । टीवी ऑन करते हैं । न्यूज़ चैनल बदलते हैं । सारे न्यूज चैनल सुकमा में सुरंग में हुए धमाके की ब्रेकिंग न्यूज दिखा रहे हैं । अभी टीवी पर शहीदों की संख्या बताई जा रही है । 12 जवानों के साथ एक अफसर शहीद हो गया है पर नाम नहीं बताया जा रहा । परिवार के तीनों सदस्यों का दम निकलने लगा। पिता धम्म से धरती पर गिर पड़ते हैं । अमन की माँ पिता बलदेव से लिपट जाती है । फिर फोन बजबजाता है । सुकमा से अफसर बोल रहे थे

उधर से फोन पर आवाज आती है

”अमन नक्सलियों द्वारा बिछाई बारूदी सुरंग में हुए धमाके में देश के लिए शहीद हो गए हैं ।”

 

दुखों का पहाड़ पाब्दो पर एक दम से टूट पड़ता है । तीनों एक दूसरे से लिपट लिपट कर रोते हैं । पाब्दो जैसे अंदर से टूट ही गयी हो । अमन की तस्वीर आखों से गुजरने लगती है । कमरे से एकदम से चीखने की आवाज आती है

‘’ अमनन्न्न्नन्न्न्नन्न ‘’

पाब्दो अमन से लिपटकर रोना चाहती थी । उसे बता देना चाहती थी वह उससे कितना प्यार करती है । वह उसके हाथों का चूमना चाहती है । उसकी बाहों में टूटना चाहती है पर अमन अब कहाँ आने वाला था ।

सारे सपने ! अरमान ! ख़्वाब जिन्दगी भर के लिए जेहन में दफ्न हो गये । जो हर रोज रुलाने और अमन की याद दिलाने का काम करते हैं । अमन की वर्दी , उसकी टोपी , उसकी चिट्ठियां अब यादों का मकबरा समेटे हुए हैं । घर में बड़े वाले संदूक की बगल में जिसमें अमन की खून से लथपथ ड्रेस रखी है, वहां सुबह का काम निपटा रोज दोपहर पाब्दो वो संदूक खोलती है । जमीन पर गिरकर । अक्सर पाब्दो वर्दी से लिपट लिपट कर रोती है ।

पिता बलदेव खेत पर घूमने के बहाने पीपल के नीचे रखी चारपाई पर लेट जाते हैं , आँखों को बाएं हाथ से ढककर फूट फूट कर रोते हैं । घर में बड़े हैं । दुनिया देखी है । घर वाले दुखी न हो इसलिए सबके सामने नहीं रोते हैं । यहाँ दो बीघा खेत में दूर दूर तक कोई सुनने वाला नही है । अमन के पिता बलदेव यहाँ चीख चीखकर रो लेते हैं ।

अमन की माँ विमला ! पशुओं को चारा देते वक्त आखों में आंसू भर लाती है अमन होता तो क्या चारा डालने मैं आती यहाँ । मेरे हाथों से चारे की परात छीन अमन मुझे कुछ न करने देता । होली के रंग, दीवाली की रौशनी, दशहरा की रंगीन पतंगे हर बार , हर रोज विमला के लिए यादों की सुनामी लाती हैं । अमन की यादों की सुनामी ।

अमन मेरे बच्चे ! कहाँ चले गये तुम ! मुझसे बात करने लौट आओ मेरे बच्चे ! तुम्हें गले लगाकर, लिपटकर रोना चाहती हूँ मेरे अमन ।

 

 

अनवरत चलने वाले युद्धों ने अमन , पाब्दो , बलदेव , विमला न जाने कितनी जिन्दगियों में दुःख के बीज जिन्दगी भर के लिए बो दिए हैं । यह कहानी सीआरपीएफ के जवान की ही नहीं है, नक्सलियों की भी है । कश्मीर में मरने वाले शहीदों की भी है, अलगाववादियों की भी है,  इरान , ईराक , लीबिया , म्यांमार , मालदीव , युक्रेन , सीरिया , सूडान में मरने वाले जवानों और उनके प्रतिद्वन्द्वियों की भी है। उन सब के परिवारों की है,  माओं की है , पिता, भाई , बहन ,दोस्त और उनकी प्रेयसी सब की है ।

 

 

 

 

~ यह कहानी 2 साल पहले पढ़ी एक कहानी से काफी हद तक प्रेरित है जिसकी लेखिका श्रद्धा जी हैं ।

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