Site icon Youth Ki Awaaz

बिखरे ज़हन – एक असली किस्सा, रेपिस्ट सोच का

यह रोज होने वाली बातों में से ही एक थी। वैसी ही बातें जो की जाती हैं और भूल जाए जाती हैं। लेकिन जो हम सोचते हैं उसके अंदर हर की गई बात एक जगह बनाती जाती है और सोच को एक दिशा देते जाती है। यही दिशा तय करती है पूरे समाज की सोच। एक साथ। एक जैसी। एक किसी समय के एक बड़े तबके की सोच।

तीन बुकिंग कैंसल होने के बाद इस टैक्सी ने कन्फर्म किया कि हां ‘हम जायेंगे’। और अंततः आ भी गया। अंततः इसलिए कि कैंसल बटन पे दायां अंगूठा लगभग छू गया था। ट्रैन छूटने में 70 मिनट बाकी थे और नई दिल्ली स्टेशन की दूरी के हिसाब से एंग्जायटी का पहला लेवल पार हो गया था। इसलिये अंततः उसका आ जाना एक रोजमर्रा की जीत थी।

आते ही अंदेशा हो गया कि ये साहब हमसे भी ज्यादा जल्दी में हैं। गाड़ी का ब्रेक लगना और यू टर्न लगभग एक साथ हुआ । बिना किसी आई कांटेक्ट के मैं गाड़ी की पिछली सीट पर था और हम रवाना हो चुके थे।

कुछ रूटीन टैक्सी शिष्टाचार का आदान प्रदान हुआ। ओटीपी नंबर, कहां जाना है, कैश या ओला मनी इत्यादि। अगले चौराहे पर टैक्सी रुकी , शायद चिराग दिल्ली जैसा कुछ। कहीं लाल बत्ती हो और बहुत गाड़ियां खड़ी हों, बेसब्री से हॉर्न दे रहीं हों, तो लगता है चिराग़ दिल्ली है।

साहब की नज़र लाल बत्ती की चिराग पर नहीं थी पर। मुझे अंदेशा भी नही था कि कहां हो सकती है। अभी तक मैंने खिड़की से बाहर या अपने फ़ोन में देख के ही बात की थी उनसे। इन्होंने भी पीछे बना मुड़े ही काम चलाया था। आजकल ऐसे ही हर कोई एक दूसरे से बात करता है, फोन में गर्दन डाले हुए।

अचानक वो मुड़ा (मैं साहब से ‘वो’ पर आ गया हूँ , क्योंकि उसको देखते ही लगा कि हम उम्र ही है, तो एकवचन में काम चल जाएगा। हालांकि हमारी बात आगे बहुवचन में ही हुई, शिष्टाचार के नाते)।
उसका मुड़ना महत्वपुर्ण घटना नहीं थी, जो उसने कहा वह भी एक रोज़ाना कहीं बोले जाने वाली बात थी। लेक़िन मुझे आगे बात करने पर विवश करने वाला सवाल ये था, कि अगर ये महत्त्वपूर्ण नहीं है तो क्या है?

उसका लहज़ा प्रभावी था। टीवी चैनल में सनसनीखेज ख़बर बेचने जैसा।

‘ये देख रहे हैं सर, अब इस लड़की ने ऐसी जींस पहन रखी है और इतना सा टॉप। कैसे इनका बलात्कार नहीं होगा।’

आधा सेकंड का विराम।
मेरा दिमाग़ सुन्न।

‘अभी कुछ दिन पहले एक मंत्री ने नहीं कहा था कुछ , ये जीन्स पहनने वाली लड़कियों के बारे में? एकदम सही ही कहा था उसने तो…..’

‘क्या.. क्या कह रहे हो तुम, मुझे समझ नहीं आया, फिर से बोलो तो।’
मेरी आवाज़ कब सुन्न दिमाग़ से बाहर निकल पड़ी, पता नहीं।

ये आदमी हट्टा कट्टा था। आंखों में आक्रामकता दिखती थी। ये वाक्य मज़ाक था या उसकी सोच थी या वो एक बातचीत शुरू करना चाहता था, मेरी सोच पढ़ने के लिये, समझना मुश्किल था।
लेकिन आसान भी था। क्योंकि इसी को ‘नार्मल’ कहा जाता है। मज़ाक में भी यह असहनीय था और किसी ढली हुई सोच का ही नतीजा था।
मुझे लगा मेरी सोच जानने की अगर उसकी इच्छा है तो ज़रूर पूरी होनी चाहिए।

‘मैं ये कह रहा हूँ कि ऐसे कपड़े पहन कर ये घूमेंगी खुले आम, तो किसकी नज़र ख़राब नहीं होगी। मतलब कि क्या करेगा कोई।’

मेरा बोलना बहुत ज़रूरी था। यह असली ज़िन्दगी थी। और यह बयान भी असली था। एक सच था। रोज़ बोला जाने वाला, सबकी सहमति से बोला जाने वाला सच। रोज़ हंस के उड़ा दिए जाने वाला सच।

आप सोच रहे होंगे किसने कहा होगा ये। किस जात का होगा। किस धर्म का। किस जगह से आता होगा। पढ़ा लिखा होगा कि नहीं। और जैसे ही आपको पता लगेगा आप एक चित्र उस आदमी या जात या धर्म या जग़ह का गढ़ लेंगे। इसलिए इस किस्से में यह आपको जानने को नहीं मिलेगा।
बहुत को यह नार्मल बात लग रही होगी, तो कुछ को गुस्सा आ रहा होगा, तो कुछ के लिए यह आर्टिकल पढ़ना ही फज़ूल होगा।

बहरहाल आगे क्या हुआ? दुनिया चल रही है। आप को इस समय जो करना था वो आप कर रहे हैं। हर कोई कुछ कर रहा है। लेकिन कुछ बलात्कार भी हो रहे हैं। कैसे होते हैं ये?   यह बयान जो ऊपर आया है यह बताता है कि कैसे होते हैं। कुछ समझ आ रहा है? यह हवस के अलावा राजनीतिक और बदला लेने का हथियार भी है। ताकत की नुमाइश भी।

मेरा बोलना जरूरी था। बोलना पड़ा। मैंने सोचा कि इस गाड़ी से अभी उतर जाना चाहिए और कंपनी से शिकायत कर देनी चाहिए। ये आदमी खतरनाक हो सकता है। लेकिन ऐसे ही तो बहुत सारे लोग सोचते हैं। मुझे इसकी बात इसी को समझानी होगी। शायद ये समझता ही नहीं कि बलात्कार क्या बला है। गुस्से को बातचीत में बदलना बहुत कठिन था।

‘क्या कह रहे हैं आप ? मतलब कोई जीन्स पहनके निकलेगा तो बलात्कार कर देंगे? या जो जीन्स पहनते हैं उन्हीं का बलात्कार होता है? या आप कह रहे हैं कि जीन्स पहने हुए लड़की का बलात्कार होना ठीक बात है?’

पहले तीन सवालों से कुछ फ़र्क नही पड़ता दिखा था। शायद अंतिम सवाल ने उसे कुछ चौंकाया। उसे लगा कि बात कश्मीर वाले मसले की तरफ़ जा रही है।

‘नहीं, देखो जो आठ साल वाली बच्ची के साथ हुआ, वो तो बहुत ही ग़लत चीज थी। उनको तो गोली मार देनी चाहिये। उसको तो पता भी नहीं होगा कि जीन्स क्या होता है। लेकिन आप ही बताओ इस तरह के कपड़े पहनेंगी की पेट दिख रहा है, जांघे दिख रही हैं, रात को शराब पीके नाईट क्लब से स्कर्ट पहन के नशे में घूम रही हैं, तो कुछ कैसे नहीं होगा।’

वो अपने पहले तर्क से आगे बढ़ चुका था। उसकी आवाज़ में आत्मविश्वास और बढ़ गया था।

‘बताओ आप, ऐसे खुले आम घूमने पर तो लोग घूरेंगे, कमेंट भी देंगे और इनमें से कई और भी आगे बढ़ जाएंगे।’

बहुत सारे तरीके से इसका जबाब दिया जा सकता था। पर मुझे लगा यह सोच का विषय है और शायद रास्ता सोच के स्तर पर बात करने से ही निकलेगा। जो भी हो, अपने आस पास ऐसे तर्क देने वालों को समझाने की ज़रूरत बहुत बड़ी है। मैंने गुस्से पर फिर से कोशिश को तवज़्ज़ो दी।

‘तो आपको क्या लगता है, सलवार कमीज़ या साड़ी वाली महिलाओं को कोई नहीं घूरता या उनके बलात्कार नहीं होते। या आपको लगता है कि भारत के ग्रामीण जगहों पे जहां जीन्स, नाईट क्लब और स्कर्ट नहीं दिखते वहां यह सब नहीं होता?’

इस बात का सहज जबाब एक ही था उसके पास।

‘वहां कम होते हैं। गांवों का माहौल अभी भी ठीक है। दिल्ली जैसी जगह में कभी भी हो सकता है। ऐसे कपड़े देख के कब किसका दिमाग़ ख़राब हो जाये क्या पता।’

मुझे रोकना पड़ा। और बात को इस दायरे से बाहर ले जाना भी जरूरी था, उसके एक निश्चित तरीके से व्यवस्थित विचारों को हिलाने के लिए।

‘भाईसाहब ना तो दिल्ली के बाहर कम होते हैं और ना ही सलवार कमीज वाली लड़कियों के साथ । उन्नाव में क्या हुआ था? जीन्स की गलती थी या सलवार की?
ख़ैर ये बताइये आपको क्या लगता है, कि इंसान, जानवरों से अलग है?’

उसके जज्बात बाहर आये।

‘अरे नहीं इंसान तो बहुत बड़ा और बहुत ही क्रूर जानवर है।’

मुझे आगे बढ़ना था। तर्क को बहुत आरंभिक स्तर पे ले जाना था।

‘और हवसी भी है, और क्रूर भी। लेकिन बहुत समझदार भी। आप ये गाड़ी कैसे चला ले रहे हैं? अपने भेजे के दम पर जो जानवर के पास कम है। समझे?
इंसान को जानवर से अलग करता है उसका भेजा, उसका दिमाग़। इसीलिए इंसान सहमति से सेक्स करता है, जबरदस्ती से नहीं।  लोग घरों में क्या करते हैं, सहमति कि जबरदस्ती ? क्या जबरदस्ती करना ठीक है किसी भी चीज में? ‘

सेक्स शब्द सुनना उसे अटपटा लगा। उसकी गालियों की तुलना में यह बहुत कमजोर शब्द भी लग रहा होगा उसे। ख़ैर मुझे और बोलना था।

‘तुम्हें क्या लगता है, छोटे कपड़े पहनी हुई लड़की देख कर कोई भी बलात्कार कर देगा तो गलती लड़की की माननी चाहिए ? या जबरदस्ती करने वाले की ? ‘

‘पूरी तरह नहीं, पर एक तरीके से तो है ही लड़की की गलती’।

‘और जिसने किया उसकी कोई गलती नही ?’

‘उसकी क्या गलती है, कब तक रोकेगा अपने आप को ।’

‘इसका मतलब आप कह रहे हैं कि जबरदस्ती ठीक है? आपको यह समझ नहीं आता कि जो जानवर वाली बात कह रहे थे, वो यही है। इंसान और जानवर का क्या फर्क है? जबरदस्ती तो जंगलों में होती है। इंसान ने तौर तरीके बनाये हैं, हर चीज के। ताकि कोई जबरदस्ती न हो, और हर इंसान अपने जानवर को दूर रख सके। अच्छा आप यही बता  दीजिये, कि आप रास्ते में कुछ खा रहे हैं और एक भूखा आदमी आपके हाथ से जबरदस्ती छीन कर, एक थप्पड़ लगा कर खा ले, तो आप क्या कहेंगे? ‘

‘मारेंगे साले को वहीं  पकड़कर’ ।

‘क्यों, क्योंकि उसने जबरदस्ती की?’

‘हां, लेकिन ये बात , जो हम कर रहे थे उस से अलग है। ऐसे कपड़े देखकर किसी का भी मन बिगड़ सकता है।’

‘तो आप कह रहे हैं, जबरदस्ती ठीक है, इस मामले में ? और गलती उसकी है जो स्त्री है और आपने ज़बरदस्ती कर ली तो आप सही हैं। चलिए मान  लेता हूँ कि छोटे कपड़े वाली लड़की से जबरदस्ती होना ठीक है, तो आप ये बताइये की सलवार कमीज पहने हुई लड़की के साथ जबरदस्ती होगी तो सही होगा या गलत?

‘गलत ही होगा।’

‘तोह एक जबरदस्ती सही और एक ग़लत?’

‘नहीं, देखिये जबरदस्ती तो गलत ही है। लेकिन इन लोगों को अपना ख़याल रखना भी तो चाहिए ना। आप ही बताओ जहां इतनी बुरी तरह लोग घूरते हों वहां आप अपनी बेटी को छोटे कपड़े पहन कर जाने दोगे? मैं तो नहीं जाने देता मेरी बेटियों को बाहर, बिना सलीके का कपड़ा पहने।’

यह सारे तर्क वही थे, जो रोजमर्रा में आप सुनेंगे। अगर रेप कल्चर के ऊपर कोई टेक्स्ट बुक होती तो यही लक्षण मिलते, इस कल्चरल बीमारी को पहचानने के। लेकिन वो यहां तक आ गया था कि जबरदस्ती ठीक नहीं है पर इस तरीके के समाज में अपनी सुरक्षा ज़रूरी है। समाज की सोच बदल सकती है या नहीं,  इस जगह तक उसे ले जाना बहुत मुश्किल था, खासकर यह देखते हुए कि उसके सारे वाक्य  गालियों से भरपूर थे जो मैंने यहाँ एडिट कर दिए हैं।

‘तो आप कहते हैं कि अगर जीन्स या छोटे कपड़े वाली लड़की का रेप हो तो रेपिस्ट को सजा नहीं होनी चाहिये?’

‘नहीं, सजा तो होनी ही चाहिये। पर इन लड़कियों को भी समझाना चाहिये।’

मैं ये कहता कि, पुरुषों को समझाना चाहिये तो कुछ फ़ायदा नहीं था। क्योंकि उनकी तो गलती ही नहीं है।

ख़ैर मैं चुप हुआ कुछ सेकंड, समय खत्म होने वाला था और मैं हार रहा था। मैंने बस कहा कि –

‘देखो भाई,  अकेले में बैठ के फिर से इस बयान को 20 बार कहना अपने आप से  जो तुमने कहा था अभी – कि ऐसी लड़कियों का बलात्कार नहीं होगा तो क्या होगा?
और फ़िर जानवर और इंसान का फर्क वाली और फ़िर जबरदस्ती कोई तुम्हारा खाना छीन के खा ले, ये वाली बात सोचना । मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूं कि अपनी सोच के पीछे क्या है यह सोचना। कि जो तुम सही मानते हो वो कैसे बना। सोचना कि क्या किसी भी हालत में जबरदस्ती ठीक हो सकती है? नहीं समझ आये तो फ़ोन करना, हम आगे बात करेंगे। ‘

आदमी होशियार था। वो बात करना चाहता था, कि ये छोटे कपड़ों वाली कल्चर की साइड लेने वाले क्या सोचते हैं। क्योंकि वो अपनी सोच के प्रति आश्वस्त था।

‘ सर, आप कुछ भी कह लो। में ये नहीं कह रहा कि मैं ऐसा कुछ कर दूंगा, पर मुझे लगता है, इसे रोकने का ये एक उपाय है कि कम से कम भड़काने वाले कपड़े तो नही पहनें।’

अंतिम पांच मिनट के लिए, एक दो अलग सवाल पूछ लेने का आईडिया ठीक लगा मुझे।

‘अच्छा ये बताओ कि तुम्हें उत्तरप्रदेश का मुख्यमंत्री बन दें तो पहली पांच बड़ी चीजें क्या करोगे?’

उसकी आंखें चमक गयीं। चिराग़ दिल्ली की रेड  लाइट की तरह।

‘ 1. चारों तरफ़ , हर सड़क पर पीसीआर वैन, हर जगह सीसीटीवी कैमरे, किसी भी क्राइम पर तुरंत कार्यवाही, बलात्कार और मर्डर के लिए सर – ए- आम गोली।

2. जो अफ़सर कार्यवाही न करे, बर्खास्त।

3. हर बच्चे को 12 वी तक ज़रूरी शिक्षा।

4. किसानों को सारी सुविधाएं, पैसे और फसल का कंपनी के मार्केट रेट से भी ज्यादा दाम।

5. चारों तरफ अच्छी सड़क और हर घर में बिजली। ‘

‘कमाल के सीएम होगे यार तुम तो।’ उसके सारे इरादों से सहमत नहीं होने के बावजूद मैंने कहा।

‘लड़कियों को घूरने और छेड़ने वालों का क्या करोगे?’

‘ चारों तरफ़ पुलिस होगी सर, किसी की मज़ाल आंख उठा के भी देख जाए’

‘छोटे कपड़े या जीन्स वालियों को भी नहीं देखेंगे?

‘मैं अगर सीएम बन जाऊं तो किसी की हिम्मत नहीं’

‘अजीब पागल हो, तो फ़िर अभी क्यों ऐसा बोलते फिरते हो कि बलात्कार हो जाएगा। ‘

‘ अरे सर हमारे यहां का आदमी है ही ऐसा, हम सब ऐसे ही सोचते हैं, हमारे दोस्त भी, हमारे रिश्तेदार भी । ‘

‘ घर जाके सबसे वही सवाल पूछना जो मैंने पूछे थे तुमसे, हो सके तो इससे भी कठिन सवाल। और सबको बताना कि जितना अपनी सोच के खिलाफ सोचोगे और बोलोगे उतना ही रेप  कल्चर कम होगा।’

मैं बोलते हुए टैक्सी से उतर रहा था। उसने बैग निकाल के नीचे रख दिया। पेमेंट इत्यादि हुआ। सामने अजमेरी गेट नई दिल्ली स्टेशन की भीड़ थी। मुझे पहाड़गंज जाना था। रास्ता कहाँ से गुज़रा कुछ पता नहीं। ये सब बात नहीं होती तोह शायद रास्ते के ऊपर झगड़ा होता।

उसने कहा वापस गाड़ी मैं बैठते हुए, कहां जाएंगे सर।
मैंने कहा चंडीगढ़।

तभी दो युवतियां जीन्स और टॉप पहने हुए, अपने ट्राली बैग खींचते हुये पास से निकलीं। मैंने फ़िर से टैक्सी की तरफ देखा तो वो चल चुका था।

 

Exit mobile version