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एक अनोखी रेल यात्रा जहां पटरियों पर ताश खेलते हैं लोग और बंधी होती है भैंस

आखिरकार पटना शहर के आर ब्लॉक-दीघा रेलवे रूट की अजीबोगरीब स्थिति को पटना हाईकोर्ट ने खत्म कराने का फैसला कर लिया है।रेलवे इस छह किमी के रूट पर रोज़ ट्रेन की दो फेरी महज़ इसलिए लगवाता रहा है कि कहीं उसकी 71.25 एकड़ ज़मीन पर गरीब लोग कब्जा करके घर न बना लें। इस पटरी पर जिस तरह गाय और भैंस बंधी रहती हैं और लोग बैठकर ताश खेलते हैं, ऐसी स्थिति में यह बात सच ही लगती है। मगर जब बिहार सरकार रेलवे से यह ज़मीन फोरलेन सड़क के लिए मांगती है तो रेलवे बदले में 900 करोड़ रुपये की बड़ी राशि मांग लेता है। ऐसे में मामला अटक जाता है।

रेलवे को इस रूट पर लगभग खाली ट्रेन दौड़ाने में सालाना लगभग 72-73 लाख रुपये खर्च करना पड़ता है और एक ट्रेन बेवजह इस काम में फंसी रहती है। इसके कारण रोज़ बेली रोड पर जाम भी लगता है। पटना हाईकोर्ट की कोशिश है कि केंद्र और राज्य दोनों सरकारें मिल-जुलकर इस मामले का हल निकाल लें। इस मामले का क्या हल निकलता है, निकलता भी है या नहीं, यह तो भविष्य की बात है। फिलहाल आपको हम ले चलते हैं, दुनिया के इस सबसे अजीबोगरीब रेल रूट की यात्रा पर, यह यात्रा मैंने 2016 के सितंबर महीने में की थी।इस ट्रेन के ड्राइवर की बोगी में बैठ कर…

आपने राजधानी पटना के हड़ताली मोड़ रेलवे क्रॉसिंग से अक्सर एक पैसेंजर ट्रेन को गुज़रते देखा होगा। यह ट्रेन दिन में चार दफा इस क्रॉसिंग से गुज़रती है और चार दफा इस वजह से बेली रोड के अतिव्यस्त मार्ग पर परिचालन बंद हो जाता है। हालांकि यह ट्रेन ना भी चले तो यात्रियों को कोई फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि दिन भर के चारो फेरों में यह ट्रेन मुश्किल से 25-30 यात्रियों को ही ढोती है। रोज़ाना महज़ तीन सौ रुपये की कमाई करने के बावजूद यह ट्रेन पिछले 12 सालों से लगातार चल रही है। इस ट्रेन के संचालन में रेलवे को हर साल 72-73 लाख का नुकसान होता है। फिर भी इस ट्रेन का परिचालन बंद नहीं किया जा रहा। रेलवे को डर है, अगर एक दिन भी ट्रेन नहीं चली तो इसकी पटरियों पर भी लोग घर बनाकर रहने लगेंगे।

पटरियों के बीचोबीच खड़ा रिक्शा, पटरियों पर बैठे लोग, ऐसा नज़ारा और कहां मिलेगा

यह ट्रेन सुबह पटना घाट से दीघा घाट तक चलती है और लौट कर आर ब्लॉक चौराहा तक जाती है। दोपहर के वक्त आर ब्लॉक चौराहा से दीघा घाट तक आती है और फिर दीघा घाट से चल कर पटना जंक्शन होते हुए पटना घाट तक जाती है। तीन डब्बों वाली इस ट्रेन के दोनों तरफ इंजन हैं। मैं हड़ताली मोड़ के पास इस ट्रेन में सवार हो जाता हूं। देखता हूं कि लगभग पूरी ट्रेन खाली है, सिवा एक किशोर के जो ऐसे ही चढ़ गया है, मज़े लेने के लिए।

दरअसल हड़ताली मोड़ इस ट्रेन का स्टॉपेज नहीं है, मगर वहां मुझे सवार होने का मौका इसलिए मिल गया, क्योंकि जब ट्रेन वहां पहुंची तो बेली रोड पर ट्रैफिक इतना तेज था कि क्रासिंग मैन बैरियर गिरा नहीं पाया। ट्रेन हॉर्न देकर रुक गयी, क्रॉसिंग मैन ने भाग-भाग कर ट्रैफिक रोका और दोनों तरफ रस्से बांधे, (क्योंकि उस वक्त कुछ दिनों के लिए बैरियर खराब हो गया था।) फिर ट्रेन आगे बढ़ी। इस बीच मैंने मौके का फायदा उठा लिया, यह भी बता दूं कि मैं विदाउट टिकट था।

मेरा विदाउट टिकट होना भी एक मजबूरी थी, क्योंकि इस रेलवे रूट पर कहीं भी टिकट नहीं बेचे जाते। वरना अधिक से अधिक पांच रुपये का टिकट होता। ट्रेन हड़ताली मोड़ से आगे बढ़ी तो फिर सौ मीटर बाद रुक गयी, क्योंकि आगे दो भैंसे पटरियों में बंधे थे। ड्राइवर हॉर्न देने लगे, दो लोग दौड़े-दौड़े आये और उन्होंने अपने भैंसे खोले, फिर ट्रेन आगे बढ़ी। कुछ देर चल कर फिर ट्रेन रुक गयी, इस बार पटरियों में न भैंस बंधे थे और न ही कोई दूसरी बाधा थी। वजह क्या थी, समझ नहीं आया, मैं बोगियों से उतर गया और इंजन के पास चला गया। ड्राइवर को अपना परिचय दिया तो उसने इंजन का दरवाज़ा खोल दिया, मैं इंजन में चला गया, अंदर दो ड्राइवर बैठे थे।

ड्राइवर ने बताया यह पुनाइचक स्टेशन है, मैंने नज़र दौड़ाई तो कहीं स्टेशन या हॉल्ट जैसी कोई चीज नहीं थी। पटरियों के आसपास झुग्गियां थीं, एक तरफ नाला था और दूसरी तरफ एक खतरनाक ढलान के पास एक कच्ची सड़क। फिर मुझे एक टिन का शेड नजर आया (तस्वीर देखें।) शायद वही पुनइचक हॉल्ट रहा हो। ट्रेन वहां से खुल गयी, फिर मैं ड्राइवर से बातें करने लगा।

यह पुनइचक रेलवे स्टेशन है, यह टिनशेड ही स्टेशन भवन है

ड्राइवर ने बताया कि इस ट्रेन के संचालन में रोज़ाना 200 लीटर डीजल की खपत होती है। ट्रेन के लिए संचालन के लिए दो ड्राइवर, एक गार्ड और चार-पांच क्रॉसिंग मैन बहाल हैं। इस रूट की पटरियों के दोनों किनारे झुग्गी बस्तियां बसी हैं, जब ट्रेन नहीं चल रही होती है तो इन बस्तियों के लोग और जानवर पटरियों पर काबिज हो जाते हैं।

इस ट्रेन की शुरुआत 2004 में तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद ने की थी, मकसद था शहर में यात्रियों को ढोना और साथ में दियारा क्षेत्र से सब्ज़ियों को ढोकर शहर लाने में उस इलाके के लोगों की मदद करना। हालांकि यह लक्ष्य कभी हासिल नहीं हो पाया, इस ट्रेन की धीमी गति की वजह से कभी यात्री इस पर चढ़ना पसंद नहीं करते। हम भी क्या करें, इस रूट की हालत ही ऐसी है। इतना वक्त लग जाता है कि लोग इस पर मुफ्त यात्रा करने के लिए भी तैयार नहीं होते। सिर्फ शाम के वक्त कुछ यात्री दीघाघाट स्टेशन पर चढ़ते हैं, जिन्हें पटना स्टेशन से ट्रेन पकड़नी होती है।

हालांकि इस रूट पर पटरियां 1862 से ही बिछी हैं। पहले इस पर मालगाड़ियां चलती थीं, जो गंगा किनारे से जहाज़ों से पहुंचने वाले सामान को शहर लाती थी। मगर 25-30 साल पहले वे ट्रेनें भी बंद हो गयीं।

अगला स्टोशन शिवपुरी था। वहां मैं उतर गया, ड्राइवर ने बताया, देखिये स्टेशन बनने का एक शिलालेख भी है। वहां गया तो उस पर लिखा था कि तत्कालीन रेलमंत्री लालू प्रसाद ने इसका शिलान्यास किया है। उस जगह भी दर्जनों भैंस बंधे नज़र आ रहे थे। ट्रेन आगे बढ़ी तो मैं फिर सवार हो गया।

पटरियों पर इस तरह भैंसों का बंधा होना इस रूट के लिए आम बात है

आगे का रास्ता मुश्किलों भरा था, क्योंकि इस रूट पर ट्रेन जैसे-जैसे आगे बढ़ रही थी, अतिक्रमण भी बढ़ता जा रहा था और बेली रोड के पास के लोग तो ट्रेन को देखकर पटरी खाली कर देते थे, मगर आगे के लोग निश्चिंत रहते थे, कई बार हॉर्न देने पर भी अपनी रफ्तार से काम करते नज़र आ रहे थे। जगह-जगह ट्रेन रोक कर हॉर्न देना पड़ता था।

अजीब नज़ारा था, कहीं खाट पड़ी रहती थी और लोग बैठकर बतिया  रहे थे, कहीं रिक्शा पटरियों के बीचो-बीच लगाया रहता था, कहीं बैठकर लोग ताश खेल रहे होते थे, कहीं औरतें पटरियों पर बैठकर जू निकाला करती थीं।

ट्रेन आती देखकर भी किसी को कोई हड़बड़ी या खतरे का अहसास नहीं होता। आराम से लोग उठते, फिर भूल जाते कि उन्होंने पटरियों के बीच में गाय को खिलाने वाली नाद रख छोड़ी है। ड्राइवर वहां पहुंचकर हॉर्न बजाता। कोई आवाज़ देता, ऐ फलनवां, तोहर लाद रैह गेलौ पटरिये पर… फिर फलनवां दौड़े-दौड़े आता… दो लोग मिलकर नाद हटाते और ट्रेन आगे बढ़ती।

राजीव नगर स्टेशन के पास तो एक व्यक्ति ने ट्रेन से सटाकर अपनी बोलेरो लगा दी थी। अगर ट्रेन आगे बढ़ती तो बोलेरो का पलटना तय था। अब ड्राइवर महाशय की विनम्रता कहिये या स्थानीय लोगों की दबंगई का डर ट्रेन वहां दस मिनट तक रुकी रही। ढूंढकर ड्राइवर को बुलाया गया, उसने बोलेरो को हटाया, फिर ट्रेन आगे बढ़ी। आगे ड्राइवर ने बताया कि क्या करें, मार तो नहीं खा सकते न…

इस बीच एक ड्राइवर ने जो इस रूट पर कई वर्षों से ट्रेन चला रहा था, एक ज़रूरी जानकारी दी। उसने बताया कि 2005 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने रेलवे को प्रस्ताव दिया था कि यह ज़मीन राज्य सरकार को दे दी जाये, ताकि उस पर एक हाइवे बनाया जा सके।यह प्रक्रिया इसलिए पूरी नहीं हो पायी क्योंकि बदले में रेलवे ने राज्य सरकार से हार्डिंग पार्क की ज़मीन मांग ली, ताकि पटना जंक्शन के प्लेटफॉर्म की संख्या बढ़ाई जा सके। फिर यह बातें भी होने लगी कि इस रूट को पाटलीपुत्र जंक्शन से जोड़ा जा सकता है। योजनाएं कई बनीं मगर कुछ भी फाइनल नहीं हो सका। लिहाज़ा 12 सालों से बिना पैसेंजर के यह ट्रेन लगातार चल रही है।

आखिरकार हमलोग दीघा स्टेशन पहुंच ही गये। ट्रेन स्टेशन से कुछ दूर पहले ही रुक गयी। क्योंकि आगे दोनों तरफ कीचड़ भरे गड्ढे थे। अगर ट्रेन वहां रुकती तो नीचे उतरना भी मुश्किल होता। दोनों तरफ झुग्गी-झोपड़ियां भी थीं, बहरहाल मैं किसी तरह नीचे उतरा और दीघा स्टेशन का बोर्ड, या कोई भवन या झोपड़ी तलाशने लगा, जिससे समझा जा सके कि यह स्टेशन ही है। अफसोस की बात है कि मुझे ऐसा कुछ भी नहीं मिला, जिससे स्थापित हो सके कि यह रेलवे स्टेशन है, इस यात्रा का आखिरी पड़ाव।

थक हार कर मैंने दोनों ड्राइवरों से विदा ली और सड़क तक पहुंचने का रास्ता तलाशने लगा। कुछ दूर गीली मिट्टी पर पटरियों के समानांतर चलने के बाद सड़क दिखी। अब मैं निश्चिंत था, सामने वही शोर-गुल, गाड़ियों की आवाजाही थी, ऑटो और कार चल रहे थे, सड़क के किनारे सब्ज़ियां बिक रही थी। मैं जहां था वहां से ट्रेन नज़र नहीं आ रही थी। ट्रेन को वहां दो घंटे रुकना था, ड्राइवर भी कहीं चाय-पानी के लिए निकल गये होंगे।

हमारी मंज़िल दीघा रेलवे स्टेशन, अब स्टेशन कहां हैं यह आप तलाशिये

पुष्य मित्र बिहार के पत्रकार हैं और बिहार कवरेज नाम से वेबसाइट चलाते हैं। कुछ ऐसी ही बेहद इंट्रेस्टिंग ज़मीनी खबरों के लिए उनके वेबसाइट रुख किया जा सकता है।

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