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आखिर क्यों आज हाशिये पर खड़ा है झारखंड का बिरहोर समुदाय?

देश की आज़ादी के 70 वर्षों बाद भी ऐसे कई समुदाय हैं जो आज भी हाशिये पर बने हुए हैं। ” बिरहोर जनजाति” एक ऐसा ही समुदाय है जो मुख्य रूप से झारखण्ड राज्य के कोडरमा, चतरा, हज़ारीबाग एवं रांची ज़िले में फैला हुआ है। झारखण्ड राज्य में कुल 32 आदिवासी समुदायों को चिन्हित किया गया है जिनमें से 8 जनजाति समुदायों को आदिम जनजाति की श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है। इन्हीं 8 आदिम जनजातियों में से एक हैं बिरहोर जनजाति जो छोटानागपुर के पठार के प्राचीन आदिम जनजातियों में से एक हैं।

बिरहोर जैसा की नाम से ही पता चलता है “जंगल का आदमी” जो कि दो मुंडारी शब्दों से बना है : “बिर” जिसका अर्थ है जंगल तथा “होर” जिसका अर्थ है आदमी। बिरहोर पहाड़ों एवं जंगलों में एकांत जीवन व्यतीत करने वाली घुम्मक्कड़ जनजाति है, जिनका कोई निश्चित आवास स्थल नहीं होता है। बिरहोर झारखण्ड की अल्पसंख्यक जनजाति है जबकि पिछले कई दशक से इनकी जनसंख्या में लगातार वृद्धि दर्ज की जा रही है। जनगणना 1941 में जहां इनकी संख्या 2250 थी वहीं 2011 में बढ़कर 10,726 तक पहुंच गई है।

झारखण्ड के बिरहोरों को दो भागों में उप-विभाजित किया गया है : एक को उथलू या भूव्या (घुमक्कड़ ) व् दूसरे को जगहि या थानिया (वासिन्दे/अादिवासी ) कहा जाता है। यह जनजाति मुख्यतः प्रोटो ऑस्टेलॉइड प्रजाति के अंतर्गत आते हैं एवं इनकी बोली एस्ट्रो -एशियाटिक भाषा से सम्बंधित है।

बिरहोर जनजाति सामान्यतः छोटे- छोटे समूहों में बंटे होते हैं जो जंगलों में घूम-घूम कर अपने जीवनयापन के लिए संसाधनों को जुटाते हैं। जिनमें पुरुष सदस्य जंगलों में शिकार कर भोजन का उपाय करते हैं तो वहीं महिलाएं जंगलों से कंद -मूल, महुआ आदि जुटाती हैं। प्राचीन काल में घने जंगल होने के कारण इन्हें अपने जीवनयापन में कोई परेशानी नहीं होती थी परन्तु अब वनोन्मूलन के कारण इन्हें अपना भोजन जुटाने में काफी कठिनाईओं का सामना करना पड़ता है।

झारखंड सरकार की डॉक्टर रामदयाल मुंडा जनजातीय कल्याण शोध संस्थान की वेबसाइट पर बिरहोर जाति पर बनी एक वीडियो डाली गई है। दूरदर्शन के द्वारा बनाए गए इस वीडियो में बिरहोर जनजाति के लोग बताते हैं कि जंगलो की कटाई के कारण ना तो जंगल में जीव-जंतु ही बचे हैं और न ही पेड़ों से प्राप्त होने वाले कंद -मूल। परिणामस्वरूप कभी-कभी कुछ परिवारों को बिना भोजन के ही दिन और रात काटनी पड़ जाती है।

बिरहोर जनजाति के आवास स्थल को “टंडा” कहा जाता है जहां कुछ परिवार जिनका गोत्र भिन्न होता है समूहों में निवास करते हैंहर समूह का अपना प्रधान होता है जो “नाथा” कहलाता है। नाथा का पद वंशानुगत होता है, नाथा ही मुखिया के रूप में होता है और समूहों की सुरक्षा के दायित्व का भी निर्वहन करता है। कुछ सालों से राज्य सरकार इनको मुख्यधारा में लाने का असफल प्रयास कर रही है। राज्य सरकार ने इन्हें मुख्यधारा में शामिल करने के लिए शहरों के नज़दीक इन्हें बसाने का प्रयास किया है, जिसके लिए आवास का प्रबंधन, बच्चों के लिए आवासीय विद्यालय आदि शहरों के नज़दीक बनाये गए हैं।

सरकार द्वारा उपरोक्त किये जा रहे उपाय आधे-अधूरे होने के कारण सफल नहीं हो पाते | विद्यालय खोले गए हैं पर उसमें संसाधनों की आपूर्ति शायद ही होती है, विद्यालय में बच्चों की संख्या भी नाम मात्र की ही है। बच्चे दाखिला लेते तो हैं पर बीच में ही विद्यालय छोड़ चले जाते हैं। साक्षरता की दर बिरहोर जनजाति में निम्तम स्तर की है।

1991 तक ज्ञात आंकड़ों से पता चला की प्राइमरी स्तर पर 66, मिडिल स्तर पर 29, माध्यमिक स्तर पर 3 तथा स्नातक स्तर पर सिर्फ एक बिरहोर था (स्रोत :बिहार जनजातीय कल्याण शोध संस्थान )। इससे आगे की जानकारी लेने के लिए जब मैंने झारखंड राज्य में स्थित डॉ॰रामदयाल मुंडा जनजातीय कल्याण शोध संस्थान में फोन किया तो मुझे ये जानकर काफी हैरानी हुई की उनके पास इसके आगे का कोई भी डाटा उपलब्ध नहीं था ।

शिक्षा का निम्तम स्तर व कई प्रकार के धार्मिक अन्धविश्वास के कारण टंडा में निवास करने वाले बिरहोर कुपोषण, चर्मरोग, घेघा तथा ऐसी ही कई अन्य बिमारियों से ग्रसित हैं। जंगलों में काफी अंदर निवास स्थल होना इसका एक बड़ा कारण हो सकता है। इसके अलावा उनके कुछ धार्मिक विश्वास या क्रियाकलाप भी इसका एक कारण होता है।

जैसे जब कोई महिला गर्भवती होती है तो बच्चे के जन्म से पूर्व व पश्चात जच्चा -बच्चा को बुरी आत्माओं से सुरक्षा के लिए सभी उपाय प्रचलित हैं। प्रसव के वक्त महिला को आवास से अलग घास-फूस व झाड़ियों से बने कमरे मे रखा जाता है और जन्म के सात दिन तक पूरा टंडा उनसे निषेध मानता है और जन्म के सात दिन पश्चात ही उनका आरंभिक शुद्धिकरण किया जाता है। जन्म के इक्कीस दिन बाद उनकी अंतिम शुद्धि की जाती है तब तक उन्हें अपवित्र ही समझा जाता है और पूरा टंडा उनसे परहेज़ रखता है।

जंगलों में निवास करने के कारण इन्हें पेयजल के लिए नदियों व झरनों पर निर्भर रहना पड़ता है। अस्पताल, मातृ सेवा केंद्र, सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र आदि की सुविधा इन्हें शायद ही उपलब्ध होती है क्यूंकि इनके गांव और अस्पताल के बीच काफी दूरी है। इन सभी समस्याओं से निपटने के लिए बिरहोरों के गांव के समीप एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र तथा एक आवासीय विद्यालय की भी स्थापना की जाये ताकि बिरहोरों को स्वस्थ जीवन और सुखी जीवन जीने में कठिनाई न हो। गांव में उनकी ही बोली में नुक्कड़ नाटक के द्वारा उनके धार्मिक अंधविश्वास से होने वाले नुकसान के लिए भी इस समुदाय को जागरूक किया जाना चाहिए।

आजीविका का एकमात्र स्रोत इनका परंपरागत पेशा रस्सी बनाना है जिनका न तो इन्हें उचित दाम मिलता है और ना ही साल के ज़्यादातर समय काम। जंगलों में रहने वाले इस समुदाय के पास आधुनिक समाज के काम आने वाला कोई विशेष हुनर नहीं है। कच्चे माल की अनुपलब्धता इनके बिखराव का भी एक बहुत बड़ा कारण बन रहा है। काम की तलाश में ये कभी इधर तो कभी उधर भटक रहे हैं और गांव से मजबूरन प्रवास कर रहे हैं। अब महज़ 10 प्रतिशत आबादी ही जंगलों पर निर्भर है। बाकि आबादी रोज़गार की तलाश में लगातार पलायन कर रही है, व जीविका के लिए जो भी काम मिल रहा है लोग उसको अपनाने का प्रयास कर रहे हैं। अतः इनकों धीरे-धीरे कौशल विकास केंद्र में भेज कर तकनिकी ज्ञान भी दिया जाना चाहिए ताकि आधुनिकता के साथ वो ताल-मेल बिठा पाएं और जीविकोपार्जन में उन्हें कोई कठिनाई न हो।

आजीविका के लिए केंद्र सरकार की मनरेगा योजना भी सतही रह गई। रांची के पास बिरहोरों की बस्ती में जाकर इसकी स्थति साफ-साफ देखी जा सकती है। हालांकि बिरहोरों से बातचीत के क्रम में पता चला कि जॉब कार्ड तो सबके पास उपलब्ध है पर काम शायद ही किसी को मिला। इसका कारण यह नहीं कि सरकार ने काम दिए ही नहीं बल्कि बिरहोरों ने काम मांगा ही नहीं क्यूंकि इनके पास जानकारी ही नहीं थी। वहीं कुछ का कहना था कि काम दें तो यहीं आकर दें उतनी दूर ब्लॉक में जाकर कौन काम मांगेगा। जागरूकता की कमी साफ-साफ देखी जा सकती है और ना ही सरकार की तरफ से इन्हें जागरूक करने के लिए सफल प्रयास किये जाते हैं। (जनजातीय बहुल गाँव जाकर स्वयं से जुटाई गयी सूचना)

कुपोषण इन जनजातियों की एक और बड़ी समस्या है जिससे निपटना कठिन होता जा रहा। जिसके कारण शिशु मृत्यु दर और मातृ मृत्य दरें भी उच्च हैं। हालांकि राज्य सरकार ने अनाज उपलब्ध कराने के लिए कई योजनाएं चला रखी हैं परन्तु पारदर्शिता की कमी और भ्रष्टाचार के कारण लीकेज की समस्या लगातार बनी हुई है। परिणामस्वरूप ज़रूरतमंदों को अनाज शायद ही उपलब्ध हो पाते हैं और जिन्हें मिलता भी है उनकी मात्रा उन तक पहुंचते-पहुंचते काफी कम हो जाती है।

भूमि अधिग्रहण की समस्या भी आदिवासी राज्य में एक गंभीर समस्या के रूप में उभरकर सामने आया है। औद्योगिक विकास के नाम पर आदिवासियों से उनके जमीन का अधिग्रहण राज्य सरकारें करती ही जा रहीं है| खूटें गाँव के बिरहोर जनजातियों ने बताया कि एच. इ.सी की स्थापना के वक्त भूमि अधिग्रहण करते वक्त उनसे यह वादा किया गया था कि उसमे उनको रोजगार दिया जायेगा पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और आज बिरहोर जनजाति के पास न तो रोज़गार है और न ही खेती के लिए ज़मीन ही बच पायी है।

1894 के भूमि अधिग्रहण अधिनियम को और भी अधिक प्रभावी बनाने के लिए उसकी जगह पर लार (LARR) अधिनियम लाया गया। इसके बावजूद भी आदिवासियों के भूमिअधिग्रहण का मामला बढ़ता ही जा रहा है और सुधार के नाम पर राजनीतिकरण किया जा रहा है।आदिवासियों के विकास के लिए संविधान द्वारा इन्हें कई सारे अधिकार दिए गए हैं साथ ही समय-समय पर वन अधिकार अधिनियम 2006, अनुसूचित जाती/जनजाति (अत्याचार निवारण ) अधिनियम 1989 , पंचायत (अनुसूचित क्षेत्र विस्तार अधिनिअयम)1996 जैसे कानून बनाकर भी इनके अधिकारों की रक्षा करने का प्रयास किया जाता रहा है। लेकिन सिस्टम में इक्षाशक्ति की कमी तथा प्रशासन में फैले भ्रष्टाचार के कारण ये सभी कानून बस सतह पर ही रह जाते हैं।

जैसा कि बिरहोरों की स्थिति देख कर समझ आता है कि वो जंगलों को छोड़ना नहीं चाहते और जंगलों से प्राप्त होने वाले कच्चे माल तथा उससे बनाये गए उत्पादों के द्वारा ही अपनी जीविका चलाना चाहते हैं। अतः राज्य सरकार को वन अधिकार अधिनियम को और प्रभावी बनाने की ज़रूरत है ताकि बिरहोरों के अधिकारों को सुरक्षा प्रदान की जा सके। साथ ही उनके द्वारा तैयार माल को बेचने के लिए एक नियमित बाज़ार की भी स्थापना की जा सकती है। आदिवासी समाज अपनी रूढ़िवादी सोच से बाहर निकलना नहीं चाहते परन्तु तेज़ी से आधुनिक समाज को बढ़ते हुए देख वो खुद को धीरे-धीरे उसमें ढालने का प्रयास ज़रूर कर रहे हैं। अतः राज्य सरकारें अगर अपनी इच्छाशक्ति को मज़बूत कर ले तो हाशिये पर खड़े बिरहोर समुदाय को मुख्यधारा में शामिल करना उतना मुश्किल भी नहीं होगा।


श्वेता, Youth Ki Awaaz के मार्च-अप्रैल 2018 बैच की ट्रेनी हैं।

फोटो आभार: संग्राम झारखंड 

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