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BJP चुनावी रणनीतिकार शुभ्रास्था का असम घुसपैठ, सेक्युलर शब्द और अन्य मुद्दों पर इंटरव्यू

पिछले चार सालों में भारतीय जनता पार्टी(BJP) को अभूतपूर्व सफलता मिली है। हाल ही में पार्टी काफी अलग-अलग चीज़ों को लेकर खबरों में बनी हुई है जैसे कि असम में गैरकानूनी बांग्लादेशी घुसपैठ का आक्रामक राजनीतिकरण, सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने की मंशा का आरोप और नॉर्थ ईस्ट में खासकर असम और त्रिपुरा में अभूतपूर्व सफलता के लिए।

और इन्हीं तमाम मुद्दों पर हमने बात की BJP समर्थक शुभ्रास्था से, जो 2016 असम चुनाव में पार्टी की चुनावी रणनीतिकार रह चुकी हैं। अपनी पार्टी की सफलता के बाद शुभ्रस्था ने रजत सेठी के साथ मिलकर एक किताब भी लिखी जिसका नाम है “The Last Battle of Saraighat” इस किताब में असम चुनाव में BJP की जीत के बारे में विस्तार से बताया गया है।

इंटरव्यू में शुभ्रास्था ने बताया कि क्यों बांग्लादेशी हिंदुओं को शरण देना ठीक है लेकिन मुस्लिमों को नहीं, वो लोग जो सोचते हैं कि BJP महिला विरोधी पार्टी है, वो आलसी हैं और क्यों सेक्युलर शब्द भारतीय संविधान का हिस्सा नहीं होना चाहिए। और भी बातें पढ़िए-

BJP को महिला विरोधी पार्टी करार देने वालों पर टिपण्णी

मेरे ख्याल से वो बस आलसी हैं और वो किसी बहस की गहराई में नहीं जाना चाहते। उनकी रिसर्च पूरी नहीं है, दरअसल ये पहली सरकार है जिसमें इतनी महिला मंत्री हैं।

यह बस कहने की बात नहीं है, यकीन ना हो तो बस गूगल कर लीजिए आपको पता चल जाएगा विकिपीडिया पर। संविधान सभा वाली बहस वगैरह देखने की भी ज़रूरत नहीं है इसके लिए।

आप कैबिनेट को एकबार विस्तार से देख लीजिए आपको खुद अंदाज़ा हो जाएगा, मैं क्या कह रही हूं। लंबे अरसे तक महिलाओं को बस महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय या खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय तक ही सीमित कर दिया जाता था। इस सरकार ने महिला नेतृत्व की बनी बनाई छवी तोड़कर एक महिला को रक्षा मंत्रलाय सौंपने का काम किया है। कॉर्पोरेट अफेयर्स, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, वित्त मंत्रालय में भी महिलाओं की भागीदारी बढ़ाई। मुझे नहीं लगता कि जो लोग इस तरह का सवाल पूछने वाले, वाकई सवाल पूछना चाहते हैं। ये ऐसे लोग होते हैं जिनका मकसद बस हंगामा खड़ा करना होता है। ये ऐसे लोग हैं जो बेमतलब एक मुद्दा बनाना चाहते हैं। उनका काम महज़ प्रोपेगैंडा फैलाना है।

मॉब लिंचिंग पर चुप्पी के लिए प्रधानमंत्री मोदी की आलोचना पर

मुझे लगता है कि मॉब लिंचिंग को लेकर जिस तरह की चर्चाएं होती हैं वो काफी सेलेक्टिव हैं। अगर प्रधानमंत्री अखलाक के बारे में बोलते हैं तो उन्हें केरल और कर्नाटक में जो हो रहा है उसपर भी बोलना होगा। इस तरह उन्हें जो कुछ त्रिपुरा में हुआ उसपर भी बोलना चाहिए। बिहार में जब RJD और JDU की साझा सरकार थी तो हर दिन कोई ना कोई बलात्कार और हिंसा की खबर आती थी। यह तथ्य हैं, कुछ तथ्य जो मीडिया के द्वारा दिखाए गएं और कुछ जो जानबूझकर दबा दिये गए। और कानून व्यवस्था केंद्र का मसला नहीं है यह राज्य सरकारों की ज़िम्मेदारी है। मेरे खयाल में उन्होंने चुपरहकर बहुत ही बढ़िया काम किया, जिससे राज्य सरकारों की असलीयत का पता लगा। चाहे वो कोई भी राज्य सरकार हो, BJP की सरकार हो, कॉंग्रेस की सरकार हो या किसी अन्य पार्टी की।

JNU और DU के शैक्षिक संस्कृति के बारे में

मैं भी दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ी हूं और गिलानी का फंक्शन अटेंड किया है। जो कोई भी DU या JNU से पढ़े हैं वो यह जानते हैं कि भारत को गाली देना और कहना कि ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ लिबरल संस्कृति का हिस्सा बन चुका है। इसलिए इस तरह की बातें सामने आना हमारे लिए कोई नई या आश्चर्य करने वाली बात नहीं होनी चाहिए थी। DU और JNU से पढ़े लोग इस हकीकत से वाकिफ हैं लेकिन जो यहां नहीं पढ़े हैं वो इससे अनभिज्ञ हैं। ये एक फैक्ट है। हो सकता है आपकी परेशानी विचारधारा की स्तर है, जिसपर बहस की जा सकती है लेकिन इतना तो समझना पड़ेगा कि देश में और भी सब-नैशनल सिद्धांत हैं जिसे लोग मानते हैं और आप इसके लिए उन्हें दण्डित नहीं कर सकते हैं, लेकिन हां सवाल ज़रूर पूछ सकते हैं।

JNU और DU में अलग विचारधाराओं के लिए जगह के सवाल पर

मैं किसी को उनकी विचारधारा की वजह से नहीं नकार रही हूं, मैं बस इतना कहना चाहती हूं कि क्या किसी सवाल या असहमति के लिए कोई जगह है? लेफ्ट की शैक्षिक दायरों में असहमति की गुंजाइश खत्म होने का नतीजा ही है कि देश में कथित राइट कहे जाने वाले संगठनों को गिलानी पर थूकने जैसे काम करने पड़ते हैं। तो मेरा अर्थ है कि अगर आप एक प्रोपैगांडा का मुकाबला दूसरे प्रोपैगांडा से कर रहे हैं तो या तो दोनों को एक ही चश्मे से देखिए या फिर नैतिकता का पाठ मत पढ़ाइये।

BJP द्वारा मतदाताओं के ध्रुवीकरण और कथित तौर पर असम के मुस्लिमों को बाहरी और बांग्लादेशी बताने की बात पर

हां हमने चुनाव में ध्रुवीकरण किया। लेकिन हमने चुनावों को सांप्रदायिक रंग नहीं दिया। इन दोनों के बीच एक बहुत ही बारीक फर्क है। और जहां तक मुस्लिमों को बाहरी बताने की बात है तो ऐसा कभी नहीं हुआ।

यह बेहद ही आसान है। असम में सवाल हिंदू-मुस्लिम का नहीं है। असम में सवाल वहां के मूल मुसलमानों और बांग्लादेशी मुसलमानों का है। और हां गैरकानूनी घुसपैठ से तो परेशानी है ही। और चुनाव का ध्रुवीकरण गैरकानूनी घुसपैठ के विरुद्ध हुआ था। और ऐसा भविष्य में भी होते रहेगा। लेकिन इसको जो भी सांप्रदायिक नज़र से देखता है वो अपनी पार्टी की सोच और राजनीतिक समझ को दिखाता है। 1946 के असम चुनाव में भी मुद्दा यही था- अवैध घुसपैठ का। आज जब 2016 में चुनाव हो रहे हैं तब भी मुद्दा यही है। और इतने सालों तक असम में किसकी सत्ता थी, काँग्रेस की। इसलिए उनलोगों से ज़्यादा सवाल पूछे जाने चाहिए बजाए मेरे।

BJP बांग्लादेशी हिंदुओं का स्वागत करती है लेकिन मुस्लिमों का नहीं के सवाल पर

हां क्योंकि दूसरी तरफ से धार्मिक उत्पीड़न का शिकार होकर आए शरणार्थी में फर्क है। और यह निराधार बाते नहीं हैं। जब बंटवारा हुआ था उस वक्त आप पाकिस्तान में हिंदुओं की संख्या देखिए और आज वहां हिंदुओं की संख्या देखिए। इसी प्रकार आप बांग्लादेश की भी समीक्षा करिए आपको पता चल जाएगा कि क्या बातें हो रही है। तो अगर कोई बॉर्डर पार से आए और कहे कि हमारा धर्म के नाम पर उत्पीड़न किया जा रहा है और हम यहां सुरक्षा और छत चाहिए तो क्या भारत को मानवाधिकारों का खयाल नहीं रखना चाहिए?

भारत सरकार रोहिंग्या मुसलमानों के साथ बांग्लादेशी हिंदुओं से अलग व्यवहार क्यों कर रही है?

उन्होंने कौन सा रास्ता अपनाया है? और रोहिंग्या के सवाल पर मैं बहुत स्पष्ट हूं। रोहिंग्या जाकर जम्मू में बस गए हैं। अगर वो सिर्फ म्यांमार के बार्डर के आसपास के इलाकों में रहते तो बात समझ में आती थी। लेकिन मुझे रोहिंग्या का जम्मू जाकर बसने का मतलब समझ नहीं आता। और वह तमाम रिपोर्ट्स सब जानते हैं जिसमें रोहिंग्या ISIS जैसी विचारधाराओं का समर्थन कर रहे हैं।
तो यहां तस्वीर साफ है कि यह महज़ इस्लामीक आतंक बढ़ाने की कोशिश है। तो या तो हम उसका सामना करें या मुंह बद करके बैठ जाएं क्योंकि ऐसा बोलना सही नहीं है।

2014 के बाद से उत्तर पूर्वी राज्यों में BJP की चुनावी सफलता पर

ऐसा कहना कि BJP बहुत कम समय में सत्ता में आ गई, उत्तर पूर्व में संघ द्वारा लगातार किए जाने वाले बेहतर काम को कम आंकना होगा। संघ ने अपना काम बंटवारे के बाद 1947 से ही करना शुरू कर दिया था। और मैं यहां संघ को क्यों ला रही हूं क्योंकि BJP एक विचारधारा वाली पार्टी है, ये कोई ऐसी पार्टी नहीं जहां कुछ राजनेता साथ आएं और सत्ता के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं।

तो मैं यह कहना चाहती हूं कि यह उत्तर पूर्व का राजनीतिक बदलाव एक बहुत ही स्लो प्रॉसेस था। हां लेकिन यह उसी का असर है कि आज BJP उत्तर पूर्व के राज्यों में सत्ता में है। लेकिन अगर आप असम की बात करेंगे तो पिछले चुनावों से BJP की स्वीकार्यता लगातार बढ़ी है। ज़ाहिर है कि लोग BJP को मौका देना चाहते थे। लोगों को धीरे-धीरे समझ आ चुका था कि BJP किन मूल्यों पर खड़ी है। जिस तरह के लोकतंत्र में हम रहते हैं वहां संख्या काफी मायने रखती है ताकि आप MLA या MP के तौर पर चुने जाएं और काम करें। शायद इसी में वक्त लगा।

संविधान में सेक्युलर शब्द जोड़ना बुरा आइडिया क्यों था?

क्योंकि भारतीय समाज काफी धार्मिक है। और इसका हिन्दू, मुस्लिम या क्रिश्चन से कोई लेना-देना नहीं है। हम एक धार्मिक राष्ट्र हैं। आज भी जब हमारे मंत्री, MP या MLA का शपथग्रहण भगवान की शपथ से होता है। और यह एक सेक्युलर देश की निशानी नहीं है। तो बेवजह ऐसे शब्द की ज़रूरत क्यों है? हमें इस नैतिक शिक्षा की ज़रूरत नहीं थी ये तो हमारी संस्कृति में है।

इंटरव्यू को संक्षिप्त और आसान बनाने के लिए एडिट किया गया है।

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फोटो आभार:शुभ्रास्था/ Facebook
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