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गुलज़ार की ‘कोशिश’ संवेदनहीन बॉलीवुड के लिए एक बड़ी सीख है

मूक -बधिर या विक्लांग लोगों की कहानियां सिनेमा में अति नाटकीयता, दुखड़े के साथ गैर-ज़रूरी राग-विलाप समेटे हुए रहती है। आपने इन्हीं कुछ फिल्मों के आधार पर मत विकसित कर लिया होगा। लेकिन ठहरिए शायद आपने सरल, स्वभाविक, प्रभावी एवम संतुलित गुलज़ार की ‘कोशिश’ नहीं देखी। इस किस्म की सादी,  सच्ची, नेकदिली वाली फिल्में रोज़ -रोज़ देखने को नहीं बनती। हरि व आरती की स्नेहमय कथा मन पर सकारात्मक प्रभाव छोड़ जाने में सक्षम थी।

‘कोशिश’ का प्रभाव सरल,सहज़ एवं सच्ची कहानियों में भरोसा जगाता है। फिल्मकार ने इसे दुखगाथा बनने नहीं दिया, एक आशावान संघर्षगाथा बनाई, प्रेमकथा बनाई। कोशिश, दया के पात्र वाले किरदारों से आगे की कहानी थी। गुलज़ार ने दिखाया कि जटिल मानवीय संवेदनाए ली हुई फिल्में भी खूबसूरत बनाई जा सकती हैं।

संदेशवाहक मूक-बधिर हरिचरण माथुर (संजीव कुमार ) बोलने-सुनने से मजबूर लेकिन मेहनतकश शख्स था। हरि अपने जैसी आरती (जया बच्चन) से स्नेह के धागों में बंध जाता है। हरि उसमें अपना स्वभाविक जीवन साथी देख रहा था शायद। वो आरती को मूक-बधिरों के विद्यालय में जाने को उत्साहित करता है। यहां वो अपने समुदाय से संकेत भाषा में बातचीत करने की कला सीख लेगी। हरि-आरती का अलबेला प्यार विवाह की मंज़िल को पाता है। बरसों बाद जीवन भर का यह साथ आरती के गुज़र जाने से खालीपन का शिकार हुआ तो हरि ने बड़ी हिम्मत से पुत्र अमित को एक मेहनती एवं आत्मनिर्भर शख्स बनाया।

हरि यह उम्मीद लगाए था कि इस कठिन परवरिश से प्रेरणा लेकर अमित किसी भी मूक-बधिर सहभागी का अनादर नहीं करेगा, लेकिन अपने जीवन साथी को लेकर स्पष्ट था कि वो शरीर के किसी भी मजबूर (आंख कान ज़बान से मजबूर) लड़की को नहीं अपनाना चाहता। एक सामान्य व्यक्ति होने के नज़रिए से अमित की सोच एक हद तक ठीक थी । किंतु मां-बाप एवम लड़की के नज़रिए से दिल दुखाने वाली बात थी। कथाक्रम में थोड़े से स्टीरियोटाइप को तोड़ कर निर्देशक फिल्म की रूह से इंसाफ कर गए। दो असामान्य से सामान्य लोगों की यह प्रेमकथा हमारी समझ से आगे जाकर विकसित होती है। कथाक्रम का फ्लो यह रेखांकित कर गया कि जीवन आस्था एवं आशाओं का दूसरा नाम है।

गुलज़ार जिस खूबसूरती से हरेक फ्रेम, किरदार को गढ़ते चले, वो कमाल के नतीजे दे गया। अनावश्यक किरदार कथा की रूह को स्थान से भटका दिया करते हैं, कोशिश में कोई भी किरदार बस यूं ही नहीं आया। आप उस नाबीना शख्स (ओमशिवपूरी ) को याद करें, एकबारगी में बस ना जाने क्यों के दायरे में नज़र आएंगे लेकिन कहानी के साथ यह नाबीना आदमी हरि -आरती की जिंदगी में धुरी उभर कर आता है।

इक शाम दोनों को यह शख्स समंदर के पास नज़र आता है। जब ओमशिवपुरी को मालूम चला कि दोनों सुन -बोल नहीं सकते तो वो कहते हैं “यह कैसे हमज़ुबान मिलाएं तुमने भगवान, तुम दोनों ना तो कुछ सुन सकते हो,ना कह सकते हो, और मैं देख नहीं सकता। ठीक है बेटा जब बिना आंखों के, बिना बोली के जब इतनी पहचान करा दी है भगवान ने तो आगे भी निभा ही देगा। जब दिल पहचानते हों, तो उन्हें बोलने या सुनने की ज़रूरत नहीं पड़ती। प्यार अंधा होता है, यह तो सुना था, लेकिन गूंगा -बहरा होता, तब भी प्यार ही होता।”

कोशिश का सार यहीं कहीं था। ओमशिवपुरी की बातों में ही कहीं ज़िंदगी का मर्म था।

इस फिल्म में मामूली सी खामी असरानी (कानू) के किरदार के ताल्लुक दिखती है। हरि द्वारा अपने सामान्य पुत्र ‘अमित’  पर मूक-बधिर युवती से विवाह करने का बोझ डालने को भी कहानी का एकपक्षीय पहलू कहकर ‘कोशिश’ की आलोचना की जाती है। कानू की कथा का पूरा हिस्सा मुख्य कहानी के समानांतर होकर भी उससे कोई ख़ास ताल्लुक जोड़ नहीं सका। नदी के एक अलहदा प्रवाह तरह बहता रहा। सिर्फ सरसरी तौर पर प्रासंगिक नज़र आया। कहानी के अतिरिक्त हिस्से की तरह कानू (असरानी ) बेवजह से मालूम पड़ते हैं। लेकिन ठहरीए कानू के बेईमान, दुष्ट किरदार में कुछ लोग हरि के मेहनतकश जज़्बे का अनुभव तलाश सकते हैं। मेहनती हरि के बरक्स कानू जिंदगी को शॉर्ट कट में जी रहा था। जीना चाहता था। यह दो लोग मुक्त्तलिफ राहों का बेहतरीन संघर्ष नज़र आते हैं।

क्या आपने असरानी को इस किस्म के किरदार में पहले कभी देखा था? कॉमिक किरदारों के विशेषज्ञ असरानी में कानू की सम्भावनाएं तलाश लेना गुलज़ार ही कर सकते थे। इस किरदार के अतिरिक्त दिलीप कुमार के मेहमान किरदार के लिए भी गुलज़ार की प्रशंसा की जानी चाहिए।

तमाशबीन दुनिया में हरि-आरती की कथा बहुत प्रेरक दिखाई देती है। कोशिश, दो मजबूर किंतु आशाएं एवं विश्वास लेकर जीवन को संघर्षरत लोगों की तरह जीने की  अनुभव को बयान करती है। हरि-आरती के प्रेमकोण को फिल्मकार ने बड़ी कुशलता से मिलन-विरह की गाथा का भाव दे डाला। एक यात्रा जिसमें हम अनुभव कर सके कि ज़िंदगी का एक पहलू यह भी।

संजीव कुमार के बारे बहुत कुछ कहा गया, बहुत लिखा गया हो। लेकिन जब कभी इस महान शख्स की बात निकलेगी हमेशा बहुत कुछ बाकी रह जाएगा। संजीव हिन्दी सिनेमा में सुनहरे पाठ की तरह आए। वो महान सिनेमा के प्रतिनिधि थे। जीवन के प्रति हरि का संघर्ष देखने लायक था। कर्म की शक्ति में निष्ठा रखने वाला हरि जीवन के कठिन डगर पर संघर्षरत हर अड़चन का बड़ी श्रद्धा से सामना करता है। सामान्य अभिव्यक्ति से कहीं जटिल भावनाओ को भीतर समेटे हुए जी रहा हरि दुनिया में ज़िंदगी का बड़ा आसरा सा था। ज़ुबान की भी एक सीमा हुआ करती होगी लेकिन हरि के हाव-भाव, आंखे, शरीर शब्द के मोहताज़ नहीं थे, अभिव्यक्ति में शब्द से बढ़कर भी उजाले हैं। आंखो एवं शरीर से प्रकट करना बड़ा मुश्किल हुआ करता है लेकिन संजीव इस किस्म के दृश्यों में सहज हैं।

वहीं दूसरी तरफ जया भादुरी ने भी आरती के सादे, सरल, सहज किरदार को बारीकी से निभाया संजीव के हरि का सुंदर साथ दिया।  संजीव के बिना आप ‘कोशिश’ की कल्पना नहीं कर सकते। आपका अभिनय में कमाल की अभिव्यक्ति नज़र आई जोकि परिभाषा के परे सी थी। संजीव अदाकारों के अदाकार थे। गुलज़ार ने आपके हुनर का शायद सबसे उम्दा इस्तेमाल किया, कोशिश यह साबित करती नज़र आई। फिल्म के अनेक दृश्यों का प्रभाव संजीव की वजह से था।

इस किस्म का रोल अभिनय से परे जाकर जिंदगी का हिस्सा बन जाता है। एक किस्म का अनुराग हो जाना स्वभाविक है। अभी बहुत कुछ बाकी था संजीव में,लेकिन वो ही बाकी नहीं रहे। संजीव सरीखे अभिनेता से हर दिन,हर लम्हा सीखा जा सकता है। संजीव-गुलज़ार की जोड़ी हिन्दी सिनेमा की शायद सबसे बेहतरीन फिल्मकार-अभिनेता जोड़ी थी। आप दोनों ने जिस किस्म के विषय चुने,जो जोखिम उठाए वो अतुलनीय था।

सरल,स्पष्ट व सूक्ष्मग्राही नाम होना गुलज़ार की फ़िल्मों की यूनिकनेस रहती है। कविता या कहानी लिखने से कहीँ ज़्यादा मुश्किल उसके लिए सटीक शीर्षक देना होता है। किनारा, माचिस, खूशबू, परिचय, लेकिन, नमकीन, इजाज़त सरीखे नाम गुलज़ार की कलात्मक समझ को बयान करती है। यह सभी नाम अपनी -अपनी फ़िल्मों के बारे में बहुत कुछ बयान करते हैं। यह महज़ नाम नहीं बल्कि एक अनुभव यात्रा को व्यक्त करते हैं। कथानक की ओर संकेत करते हैं। आप इनके वैकल्पिक नाम सोंच के देखिए,दूसरा नाम कोई सूझेगा ही नहीं!

मूक-बधिर जोड़े की ऐसी दास्तां हिंदी सिनेमा में देखने को नहीं मिलती। सक्रीय समाज के बीच हरि-आरती जैसे लोग अजनबी महसूस करते होंगे। हरि समान लोगों के लिए सामान्य ज़िंदगी गुज़र करना बड़ा मुश्किल हुआ करता है। कोशिश, अपनी राह में उन सभी चुनौतियों का डटकर  सामना करती देखी गई। संजय लीला भंसाली की ‘खामोशी’ के लिए रेफेरेन्स पोइंट यही रही होगी।

गुलज़ार के  लीड किरदार सुन-बोल नहीं सकते थे, फिर भी संयमयित वर्णन व व्याख्या देखने को मिलती है। एक स्टीरियोटाइप हिंदी फिल्म में ऐसा कुछ देखने को नहीं मिलेगा। यह ताज़ा एहसास जगाने वाली कथानक लेकर चली। इसके अनेक सिक्वेंस फिल्म में हैं। आरती -हरि को अपने नवजात बच्चे का अपनी तरह होने का संदेह एक वक्त के लिए काफी डरा गया, जिस तरह कोई डरावना सपना डराता है। लेकिन आप देखें कि हरि किस शिद्दत से अपने बच्चे के सामान्य होने की पुष्टि करता है। हो जाने बाद मां -बाप का खुशी का ठिकाना देखिए, सीटियां बजा-बजा कर समूचा पड़ोस इकट्ठा कर लिया।

कोशिश का उद्देश्य मूक -बधिर एवम शरीर के किसी भी अंग से अक्षम लोगों के समक्ष पेश दिक्कतों को दिखाना भर नहीं था बल्कि हरि-आरती के उदाहरण के ज़रिए हिम्मत-हौसले व प्रेम के विजय को दिखाना था।

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