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“एससी-एसटी एक्ट में किए बदलाव फासिस्ट हमले के संकेत हैं”

पूरा देश जातीय उत्पीड़न और साम्प्रदायिक दंगों की आग में झुलस रहा है। अनुसूचित जाति और जनजाति पर हमले और सांप्रदायिक विद्वेष, झगड़े और दंगे पिछले चार सालों में एकाएक जिस तरह से बढ़े हैं, यह गहरी चिंता की बात है। चाहे वो गौ रक्षा के नाम पर दलितों की हत्या का मामला हो या हाल ही में हुए बिहार और पश्चिम बंगाल के दंगों का, घोर जन-विरोधी और फासिस्ट ताकतों की कुत्सित मंशा साफ़ झलकती है।

ऐसे में, 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा एससी/एसटी एक्ट के प्रावधानों में किए गए बदलाव अलग से चिंता का कारण बन चुका है । ऐसा लगता है जैसे देश का उच्चतम न्यायालय फासिस्ट लंपट गिरोहों के द्वारा गरीब व मेहनतकश जनता, जो अक्सर दलित व आदिवासी होते हैं, पर पूरे देश में किए जा रहे नृशंस तथा अमानवीय हमलों के प्रति आंख मूंद लिया है। सुप्रीम कोर्ट का गरीब दलितों और आदिवासियों की सुरक्षा के प्रति यह रवैया दिखाना हमारे सामने यह प्रश्न ला खड़ा कर दे रहा है कि आखिर देश किस ओर जा रहा है?

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के पीछे यह तर्क नज़र आता है कि इस कानून का दुरुपयोग हुआ है, लेकिन यह तर्क गलत है। पूंजीवाद में आखिर किस कानून का दुरुपयोग नहीं होता है? तो क्या उन सभी कानूनों को भी खत्म किया जा सकता है? सबसे ज़्यादा दुरुपयोग ‘संपत्ति रखने के अधिकार’ का हुआ है, और इस कानून का उपयोग करके बड़े पूंजीपति वर्ग ने अमीरी-गरीबी की एक ऐसी खाई बना दी है कि यह समाज ही रहने लायक नहीं रह गया है। इससे बड़ा और कोई दूसरा अपराध आज नहीं है। इसी खाई के कारण पूरी मानवता कराह रही है। तो क्या सुप्रीम कोर्ट हमारी इस मांग को मानेगी कि ‘संपत्ति रखने के कानून’ को रद्द कर दिया जाये?

अगर सुप्रीम कोर्ट को इस बात का बड़ा फिक्र है कि कानूनों के दुरुपयोग को रोका जाये तो उसे सबसे पहले पूंजीपतियों के पक्ष में खड़े ‘संपत्ति रखने के कानून’ मे बदलाव करे या इसे खत्म ही कर दे या कम से कम इस पर सीलिंग लगा दे।

सुप्रीम कोर्ट ने जो एससी-एसटी एक्ट में बदलाव किए हैं, उनके मुख्य बिंदु कुछ इस प्रकार हैं –

• FIR दर्ज होने पर तुरंत गिरफ्तारी नहीं होगी।
• FIR दर्ज करने के पहले जांच होनी ज़रूरी है कि कहीं लगाए गये आरोप “तुच्छ और प्रेरित” तो नहीं।
• अग्रिम ज़मानत (anticipatory bail) का प्रावधान लाया गया है जिसके तहत कोई व्यक्ति गिरफ्तारी के पहले ही ज़मानत पा सकता है।
• किसी सरकारी अधिकारी की गिरफ्तारी के लिए नियुक्ति प्राधिकारी (appointing authority) से और गैर-सरकारी अधिकारी की गिरफ्तारी के लिए डीएसपी वर्ग के अधिकारी से लिखित अनुमति चाहिए होगी।

ये सारे बदलाव का वास्तविक अर्थ यह है कि अब गरीब और मेहनतकश लोग अपने ऊपर हो रहे जुल्म की FIR भी आसानी से दर्ज नहीं करवा पाएंगे, व्यवहार में यह कानून, जो पहले ही ज़मीनी तौर पर कामयाब नहीं था, इन बदलावों के बाद लगभग अपना वजूद खो देगा।

अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम, जिसे एससी/एसटी एक्ट भी कहा जाता है, 1989 में बनाया गया था उसके बाद से अभी तक इस एक्ट में कई सारे बदलाव किये गये हैं। यह सोच कर ही हंसी आती है कि सुप्रीम कोर्ट के अनुसार उपरोक्त बदलाव ‘बेकसूरों’ के अधिकारों और गरिमा की रक्षा और अधिनियम के दुरुपयोग को रोकने के नाम पर किये गये हैं। कुछ सरकारी आकड़ों को देखें, तो उसी से पता चल जाएगा कि असलियत क्या है।

एक आकड़े के मुताबिक, अब तक दर्ज किये गये मामलों में से 50% मामले कोर्ट तक पहुंचने से पहले ही पुलिस द्वारा खारिज कर दिए जाते हैं। सिर्फ 77% मामलों में चार्जशीट दर्ज की जाती है और उनमें से सिर्फ 15.4% मामलों में ही सज़ा सुनाई जाती है। इन आकड़ों से यह साफ़ होता दिखता है कि एससी/एसटी एक्ट को उचित तरीके से लागू करने की ज़रूरत थी, ना कि उसे कमज़ोर करने की। दलितों पर हुए अत्याचारों के मामलों में पिछले दस सालों में और खासकर पिछले चार सालों में और भी अच्छी-खासी वृद्धि हुई है।

भारत सरकार के नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की जानकारी के अनुसार भारत में हर 15 मिनट में किसी न किसी दलित के खिलाफ अपराध होता है। इतना ही नहीं, हर दिन 6 दलित महिलाओं का बलात्कार होता है और पिछले 10 सालों में दलित महिलाओं पर बलात्कार की घटनाएं दुगनी हुई हैं। 2007 से 2017 तक दलितों के खिलाफ किये गये अपराधों में 66% की बढ़ोतरी हुई है।

यह सारे तथ्य चीख-चीख कर यह कह रहे हैं कि एससी-एसटी एक्ट में हुआ यह बदलाव गलत है और आगे और भी बड़े हमले का संकेत भर है। इस मायने में यह फासीवादी हमला है। हम जानते हैं आज का दौर खुली और नंगी पूंजीवादी तानाशाही का यानी फासीवाद का दौर है, जिसमें घोर से घोर जन-विरोधी शक्तियां अपने पूरे उभार पर हैं। बिहार और पश्चिम बंगाल के जिलों में हुई सांप्रदायिक हिंसा भी इस बात के ताजे प्रमाण हैं। अगर इन शक्तियों का बस चले तो ये अपने मतलब के लिए पूरे देश को सांप्रदायिक दंगों और जातीय उत्पीड़न की आग में झोक दें।

हम सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गए इस फैसले का समर्थन नहीं करते हैं और इसे वापस लेने कि मांग करते हैं। इसके साथ ही हम देश की आवाम को ये बताना चाहते हैं कि आने वाला वक्त इससे भी और ज़्यादा भयावह होगा। अगर समय रहते इसे रोका नहीं गया, तो स्थिति अत्यंत विस्फोटक स्तर तक खराब हो सकती है। इसलिए हम देश की आम जनता तथा जागरूक व प्रगतिशील जमात से आह्वान करते हैं कि इन जन-विरोधी फासीवादी ताकतों को पहचाने और इनके खिलाफ सघर्ष में शामिल हों।

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