रेप पर कड़े कानून और सज़ा की मांग जोर पकड़ रही है। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है मगर ये तय है कि कड़े कानून और सज़ा से भी रेप की घटनाएं पूरी तरह बंद नहीं हो पाती। जैसे दहेज विरोधी कानून के बाद भी दहेज लेने को नहीं रोका जा सका है या SC/ST एक्ट से भी दलितों का उत्पीड़न समाप्त नहीं हो गया है। क्योंकि हम लक्षणों का इलाज करते रहे बीमारी का नहीं, रेप की जड़ कानून व्यवस्था में नहीं है रेप की जड़ हमारे समाज संस्कृति और मूल्यों में हैं।
कठुआ, उन्नाव और ऐसे ही कई जगहों पर हुए नृशंस अपराध के बाद हमें चाहिए था कि हम अपने गिरेबां में झांके अपनी संस्कृति और मूल्यबोध का पुनर्मूल्यांकन करें, मगर दिखावटी, अकर्मण्य समाज ने इसे भाजपा से जोड़ कर खुद के अंदर झांकने से छुट्टी पा ली, रेप तो भाजपा की समस्या है हम सब तो पाक साफ हैं।
हमारी संस्कृति अपने मूल से एक स्त्रिद्वेषी और अन्यायपूर्ण संस्कृति रही है, मनुष्य और मनुष्य के बीच असमानता इस संस्कृति की आत्मा है। हम अपने मूल्यों से सीखते है कि स्त्रियों दोयम दर्जे इंसान होती है पुरुष उनसे हर मामले में श्रेष्ठ होते हैं। स्त्रियों को पुरुषों के नियंत्रण में रखना चाहिये, जो पुरुष, स्त्री को नियंत्रण में नही रख सकता वो कायर है उसमें मर्दानगी नहीं हैं। हमारा समाजीकरण स्त्री और पुरुष को दो एकदम विपरीत खांचो में डालकर होता है।
हमारे लोकगीत कहावतें साहित्य सिनेमा गाने सब स्त्रिद्वेषी है जहां स्त्री को, पुरुषों को ईश्वर का दिया हुआ उपहार समझ लिया जाता है। ये धर्म जिसके लिए हम जान लेने देने को आतुर हो जाते हैं, सब स्त्रियों की अधीनता को समाजिक स्विकृति प्रदान करते हैं, अरविंद जैन की किताब ‘औरत होने की सज़ा’ पढ़िये, देखिये की किस तरह 1950 के बाद जब संविधान लागू हो गया तब भी भारतीय कानून व्यवस्था कैसे कानूनी तौर पर स्त्री विरोधी है !
ये पूरी तरह सत्य है कि भाजपा और संघ वर्तमान समय मे इस सड़ते हुए समाज संस्कृति का सबसे प्रमुख चेहरा है परंतु भाजपा के बिना भी स्त्री विरोधी अपराधो में कोई बहुत कमी नहीं थी। कुनन पोषपोरा, मणिपुर में मनोरमा देवी बहुतेरे उदाहरण हैं राज्य संरक्षित स्त्री अपराधों का।लड़के तो लड़के होते हैं उनसे गलतियां हो जाती है, ये किसी दल विशेष की मानसिकता नहीं है ये ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से संचालित पूरे समाज की मानसिकता है।
और ऐसे अपराधों के लिए जो फांसी की सज़ा की मांग की जाती है वो अक्सर बहुत ही सेलेक्टिव और सुविधाजनक होती है। NCRB के अनुसार भारत में बलात्कर और यौन अपराध में शामिल ज़्यादातर लोग पीड़ित/पीड़िता के अपने रिश्तेदार ही होते है या उनके पहचान के ही होते हैं, क्या हम उनके लिए भी फांसी की मांग करेंगे या परिवार की इज़्ज़त के नाम पर उनका मुंह बंद करा दिया जाएगा?
यौन हिंसा की सबसे बड़ी जगह हमारा अपना घर है, घरेलू दायरों में होने वाले उत्पीड़न, विवाहित जीवन में बलात्कार, इन मसलों पर हमारी चुप्पी क्यों रहती है? इसलिये क्योकिं इसमें हम खुद अपराधी होते हैं, ऐसी ही चुप्पी आगे चलकर कठुआ या उन्नाव जैसी घटना में तब्दील होती है तो हम अचानक नींद से जाग उठते हैं। हम कभी अपने दैनिक जीवन की हरकतों का अवलोकन नहीं करते कि हमारा खुद का व्यवहार और बातचीत किस कदर स्त्री विरोधी होती हैं, हम कैसे एक बलात्कार की संस्कृति में जीते और इसे प्रचारित करते हैं। आत्मावलोकन कोई मसला ही नहीं होता हमारे लिए।
भाजपा इस सारे मसले का एक पहलू हो सकती है, मगर इस पूरी बहस को भाजपा तक सीमित कर देना हमारे खुद के शुतुरमुर्गी रवैये को दर्शाता है, ये वक्त है हमे अपने समाज संस्कृति मूल्यबोध और राज्यव्यवस्था के पुनर्मूल्यांकन करने का, अपना खुद का पुनर्मूल्यांकन करने का और भाजपा का नाम लेकर हम इससे भाग नहीं सकते नहीं तो हमारी आने वाली पीढियां भी इसी दंश को भुगतने के लिए अभिशप्त होंगी।