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जानिए कश्मीर के गुज्जर बकरवाल समुदाय और उनके सेना संबंध के बारे में

ऊंची नाक और लम्बी काली या सफेद पगड़ी वाले गुज्जर, कश्मीर की पहाड़ियों में आसानी से देखे जा सकते हैं। अकसर जो अपने पशुओं, घोड़ों व खूंखार कुत्तों को लिये हुए घुमक्कड़ जीवन जीते हैं। सारे गुज्जर घुमक्कड़ नहीं हैं बल्कि गुर्जरों का एक धड़ा ही घुमन्तु रूप में परंपरागत ज़िंदगी जी रहा है जिसे गुज्जर बकरवाल कहा जाता है। बकरवाल अर्थात बकरियों व भेड़ों के साथ यायावरी करते हुए गुज्जर जिन्हें गोजरी में बकरवाल कहा जाता है। जम्मू कश्मीर में आधे गुज्जर स्थायी जीवन जी रहे हैं और खेती बाड़ी करते हैं। ये स्थायी गुज्जर हज़ारों साल से आबाद हैं यहां।

पंडित जवाहरलाल नेहरु ने गुज्जरों को जंगल का राजा कहा था, जंगल का राजा होने के साथ एक ज़माने में गुज्जर ज़मीन के भी राजा थे। सम्राट कनिष्क, सम्राट मिहिरकुल और सम्राट मिहिरभोज की विरासत के वाहक ये गुज्जर सदियों से कश्मीर की पीर पंजाल की पहाड़ियों से लेकर शिवालिक की पर्वत श्रंखलाओं तक में निडरता व बहादुरी के साथ रहते रहें हैं। कश्मीर की सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक कड़ी में गुर्जर गुम नहीं होते बल्कि समानांतर योगदान देते चलते हैं। कश्मीर की घाटी का गुज्जर कबीला वहां हज़ारों साल से आबाद है। मुख्यतः गुज्जर यहां कुषाण काल में अपने राजा कनिष्क के समय से रह रहें हैं, ये वो गुज्जर हैं जो वहां स्थायी निवास करते हैं, खासकर पुंछ रजौरी में।

गुज्जरों में जो पूरी तरह खानाबदोश ज़िन्दगी जीते हैं, खासकर जिन्हें गुज्जर बकरवाल कहा जाता है वो बाद में गुजरात से पलायन करके आये हैं, ये गुजरात पंजाब(पाकिस्तान) का है जो एक ज़माने में गुज्जर सत्ता का मज़बूत केंद्र था। गुजरात ( जिसमें स्यालकोट, पेशावर स्वात घाटी आदि) से ये गुज्जर कश्मीर की घाटी में आये। गुज्जरों का एक हिस्सा आधुनिक राजस्थान से भी आये जिसे उनके पलायन के समय गुर्जरराष्ट्र व गुर्जरत्रा आदि नामों से जाना जाता था। राजस्थान के मारवाड़ इलाके से गुज्जरों का पलायन किसी भयानक सूखे या गुर्जर प्रतिहार काल के बाद राजनैतिक सत्ता के पराभव के कारण हुआ होगा। कुल मिलाकर इस प्रकार गुज्जर घाटी में आबाद हुए।

गुज्जर बकरवालों की अपनी एक भाषा है गोजरी जो कि बहुत प्राचीन है और राजस्थानी व गुजराती भाषा की जननी मानी जाती है। गुज्जरों का पहनावा भी बाकी कश्मीरियों से अलग ही है। गुज्जरियां अलग तरह की टोपी पहनती हैं जिस पर सुन्दर डिज़ाइन बने होते हैं और यह टोपी मध्य एशिया के अन्य कबीलों से मिलती जुलती हैं।

कश्मीर में कश्मीरी पंडितों,लद्दाखियों व डोगरों के साथ गुज्जर चौथी सबसे बड़ी नस्लीय आबादी है। कश्मीरी गुज्जरों को कश्मीरी कहने की बजाय गुज्जर ही कहते हैं और अलग मानकर चलते हैं। इसे इस उदहारण से समझिये की अगर कोई आदमी कश्मीर में भारत का पक्ष रखता है या कश्मीरी किसी से चिढ़ते हैं तो उसे वे गुज्जर कहकर हिकारत से खुन्नस निकलते हैं।गुज्जरों के लिए खुद को बार बार गुज्जर कहलाना ही गर्व से भरता है और उनकी ऊंची पगड़ी के साथ ही सीना भी खुशी से फूल जाता है। कश्मीरियत, लद्दाकियत व जम्मूइयत के बाद यह गुज्जरियत है जिसे पहाड़ जैसा जीवन घाटी में जीना पड़ता है।

भारतीय फौज की आंख और कान है गुज्जर समुदाय जम्मू कश्मीर में। फौज के सबसे भरोसेमंद साथी हैं जो उन्हें दुर्गम से दुर्गम पहाड़ों और दर्रों की भी सूचना देते हैं जिन्हें फौज भी तलाशने में नाकाम रहती है। बंटवारे व आज़ादी के वक्त पाकिस्तान से कबायली हमलों की जानकारी भी गुज्जर बकरवालों ने ही दी थी और उनके खिलाफ खुद भी लड़े व बाद में भारतीय फौज के साथ भी लड़े। चाहे सन पैंसठ की लड़ाई हो या कारगिल का युद्ध हर बार गुज्जरों ने भारतीय फौज को सूचना दी और साथ खड़े रहे।

हालात या हुकूमत चाहे जो रहे मगर गुज्जर बकरवालों ने कभी भी आतंकवाद या अलगाववाद का रत्ती भर भी समर्थन नहीं किया। ऑपरेशन सर्प विनाश इसका उदाहरण है जिसमें गुज्जरों ने फौज के साथ मिलकर आतंकियों का सफाया किया। गुज्जर कौम ने अपने धार्मिक तौर तरीके भले ही बदलें हों मगर राष्ट्रप्रेम व राष्ट्ररक्षा का भाव नहीं। पूरी घाटी का गुज्जर समुदाय अपने पुरखों सम्राट नागभट्ट और मिहिरभोज के हिन्द के प्रतिहार होने की परंपरा को भूले नहीं हैं बल्कि बेहद गर्व व अभिमान के साथ आज भी प्रतिहारी यानि भारत की चौकीदारी करने में सबसे आगे हैं।

पाक अधिकृत कश्मीर में भी गुज्जर सबसे बड़ी नस्लीय आबादी है। पाकिस्तानी फौज व सत्ता के जुल्म व ज़्यादती के खिलाफ गुज्जरों ने लगातार आवाज़ उठाई है, परिणामस्वरूप बहुत स्व गुज्जरों को बलूचिस्तान के इलाकों में बसा दिया ताकि प्रतिरोध को दबा सके।

कल्हण की राजतरंगिणी में भी जो की कश्मीर के दो हज़ार साल का क्रमवार ऐतिहासिक ब्यौरा देती है, पंजाब के गुज्जर राजा अलखान का वर्णन है जिसे कश्मीर के राजा पराजित कर देते हैं मगर कन्नौज के गुर्जर सम्राट के कहने पर उसे उसका राज्य वापिस कर देते हैं। कश्मीर के राजनैतिक व सत्तापटल पर गुज्जर फिर बस एक अलग-थलग व बहिष्कृत कबीले की तरह ही दिखते हैं मगर मुग़ल काल में वे मुगल शासकों का ज़बरदस्त सामना भी करते हैं मगर पराजय झेलते हैं।

हाल के कुछ सालों से गुज्जरों पर कथित गौ रक्षकों के हमले बढ़े हैं जबकि इन गौ रक्षकों से कहीं अधिक गुज्जर गौ पालन करते हैं।भारत के प्रति वफ़ादार व राष्ट्रभक्त क़ौम है। मगर नारेबाज़ी करती उस कथित राष्ट्रवादी भीड़ को कौन समझाये जो अपनी दूषित और पूर्वाग्रही मानसिकता से पीड़ित है। इस नारेबाज भीड़ ने अपने सींगों पर राष्ट्रवाद का ऐसा कवच पहना रखा है कि ये बस सींग मारते जा रहे हैं और लोग छलनी। घाटी में गुज्जरियत ही मज़बूत कड़ी है जो हमारे इस अभिन्न अंग को जोड़े हुए है, इस पर चोट मत करिए। गुज्जर बकरवाल सदियों से अपने पुरखे बाबा कनिष्क की बहुधार्मिक और समरसता की विरासत को अंगीकार किये हुए हैं।

कश्मीर की वादियों और पहाड़ों में भी गोजरी के मधुर गीत गूंजते हैं, चेनाब नदी के किनारे गुज्जर भी गोजरी में बेंत व टप्पे गाते हैं। यहां की हरी भरी बर्फीली वादियों में गुज्जरों के भी हंसने और बोलने की आवाज़ सुनाई देती है।

पिछले दिनों जो ये घटनाक्रम हुआ है उसने पूरे भारत को झकझोर कर रख दिया है कि देखों हम कहां आ गए हैं जब हमारे हाथों में तिरंगा और भारत माता की जय जैसे नारे बलात्कारियों के समर्थन में लगाये जा रहें हैं और हम अवाक् खड़े देख रहे हैं। उस आठ साल की बच्ची के पिता ने ठीक कहा कि मुझे लगा की मेरी दूसरी बेटी की भी हत्या कर दी गयी जब मैंने इन दरिंदों के बचाव में तिरंगा लहराता देखा,भारत माता की जय नारे सुने। बच्ची के पिता ने कहा कि हमनें मंदिर की तलाशी इसलिए नहीं ली क्योंकि वो एक पाक जगह है जहां ऐसे कुकृत्य नहीं होते। बच्ची को दायें-बायें का नहीं पता था वो हिंदू मुस्लिम को क्या समझती।

खुद पर शर्मशार होते हुए हमें इन सामूहिक अपराधों की आड़ में छुपी घिनौनी सोच के लोगों का भी विरोध करना होगा और आवाज़ उठानी होगी। ज़ुल्म, अन्याय और ज़्यादती कहीं भी हो हमें मानवीय व विवेक के आधार पर उनके खिलाफ मुखर होना होगा। वक्त चुप बैठकर तमाशबीन होने का नहीं है बल्कि एक मशाल मानवता के लिए जलाने का है।

भारत भर से जो इस दरिंदगी के खिलाफ एकसुर व संवेदना के साथ आवाज़ उठी है वो आश्वस्त करती है, भरोसा दिलाती है कि हम अपने मज़हबी चश्मों में अभी इतने मशगूल नहीं हुए हैं कि इंसानियत से खाली हो गये हों। यह दिखाता है कि हम बराबर इन घृणित अपराधों और गिरोहों के खिलाफ बुलंद तरीके से खड़े रहेंगे।

हम चूके नहीं हैं, बल्कि जागे हैं और अब सोयेंगे नहीं इन ज़ुल्मों और दुष्कृत्यों को देखकर और ना ही मुंह फेरेंगे।


यह लेख The Popular Indian वेबसाइट पर भी प्रकाशित किया गया है।

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