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जानिए क्या है दलित साहित्य और कैसे हुई इसकी शुरुआत

साहित्य के एक नए हिस्से को दलित “साहित्य” क्यों कहा जाता है यह बहस चार दशकों से पुरानी है। यह एक सादा सा सवाल है। हमारे यहां का अधिकतर साहित्य सौंदर्य का उपासक रहा है जिसने स्त्री के यौवन पर कविताएं ढाली हैं उसके कपोलों और गीले केशों पर लेखन हुए हैं, उसने बसंत ऋतु के समय के प्रकृति के सौन्दर्य पर आहें भरी हैं। भारतीय लेखन की प्रवृत्ति ही यही रही है कि उसने अधिकतर पारलोकिक विषयों में ही खुद को डुबाये रखा है जिससे मोक्ष, ईश्वर, आत्माओं की बातों में आमजन की समस्याएं गूढ़ रह गयीं।
जैसे मैथिलीशरण गुप्त लिखते हैं-

 “कर वेदों का तुमने विभाग ,रक्षा की उनकी सानुराग
वेदान्त सूत्र रच कर विचित्र , नर को इश्वरता दी विचित्र”

जयशंकर प्रसाद लिखते हैं

 “वे आलिंगन एक पाश थे, स्मिति चपला थी, आज कहां?
और मधुर विश्वास! अरे वह पागल मन को मोह रहा!”

ऐसे ही लालू जगन्नाथ दास रत्नाकर लिखते हैं

“देस देस मैं मचति मंजु मन मादक होरी
उड़त अबीर गुलाल चोटा सों भरि भरि झोरी
चारहूं ओर धमार चारु चैती धुनि गावत
उफ्फ मृदंग कर ताल ताल गुह्चंग बजावत”

उस समय के अधिकतर भद्र कवि पारलौकिक इश्वर की प्रशस्ति पढने में लगे हुए थे जैसे प. लक्ष्मीधर वाजपेयी लिखते हैं

 “जिसके गुण गाते हुए वेद हुए हैं मौन
उसका कीर्तन जगत में कर सकता है कौन”

कविता लेखन की इस कला की जितनी तारीफ की जाए कम है लेकिन इन कविताओं से कहीं लगता नहीं है कि तत्कालीन भारतीय समाज कुछ समस्याओं से भी ग्रस्त रहा होगा इन्हें पढ़कर ऐसा लगता है जैसे सब कुछ ठीक ठाक है अमन-चैन है, सब खुश हैं, समृद्ध हैं।

ऐसी कविताओं का लेखन एक प्रशंसनीय कला है इन्हें लिखकर कवी आत्म संतुष्टि महसूस करता है लेकिन उसी काल खंड में हीरा डोम समाज के कुचले हुए समाज की वेदनाओं पर लिख रहे थे उसी समय अछूतानन्द भी अपनी कविताओं से नवजागरण कर रहे थे।
हीरा डोम लिखते हैं

“खंभवा के फारि पहलाद के बचवले जा ,
ग्राह के मुहें से गजराज के बचवले
कानि अंगुरी पै धैके पथरा उठवले ,
कहंवा सुतल बाटे सुनत न बाटे अब ,
डोमा जानि हमनि के छुए से डेरइले”

यानि कनकी अंगुली पर पर्वत उठाने वाला भगवान अछूतों की क्यों नहीं सुनता? क्या वह भी डोम जान कर छूने से डरता है

समय के इस कालखंड से एक महीन सी धारा अस्सी के दशक में एक पूरी नदी का रूप ले लेती है। इस दशक में हाशिये पर पटक दिए गये समाज के लोग पढ़-लिख कर अपनी वेदनाओं को शब्द देने लग गये, यही वह कालखंड है जबकि दलितों में एक छोटा सा मध्यमवर्ग जन्म लेने लगा उस समय दलितों पर आये दिन हमले होने लगे थे जिसके परिप्रेक्ष्य में ही में एससी-एसटी एक्ट, 1989 लाया गया था।

इसके बाद इस समाज के लोगों ने अपनी पीड़ाओं की अभिव्यक्ति के लिए साहित्य का सहारा लिया, इस समाज के ज्यादा से ज्यादा लोगों ने लेखन कार्य किया , विद्रोही कवितायें लिखीं। जिसके केंद्र में पारलोकिक ईश्वर ना होकर मनुष्य था, जिसमें राजाओं के वनविहारों की कहानियां नहीं बल्कि धान और गेहूं के खेतों में थके हारे खेतिहर मज़दूरों की पीड़ाएं थीं जहां स्त्री को माता और देवी के रूपों से निकाल उसके मज़दूर होने की बात को सामने लाया जैसे मद्दूरी नगेश बाबू लिखते हैं

“किसी को माँ दूध पिलाते हुए याद आती है ,
लोरी गाते हुए याद आती है
मुझे माँ खेतों में काम करते हुए या
मैले की टोकरी ढोते हुए याद आती है”

यही अंतर है मुख्यधारा के साहित्य और दलित साहित्य में। दलित साहित्य कोई लेखन कला नहीं है बल्कि स्वअनुभूति और स्वपीड़ा को व्यक्त करने का एक माध्यम है इसकी कवितायें एक शैली नहीं बल्कि एक आन्दोलन हैं जो अपने आप में एक विद्रोह समेटे हुए हैं। जो वर्तमान व्यवस्था पर चोट करती है, जैसे अछूतानन्द लिखते हैं

“निसदिन मनुस्मृति ये हमको जला रही है,
ऊपर न उठने देती नीचे गिरा रही है
हमको बिना मजूरी, बैलो के संग जोते ,
गाली व मार उसपर हमको दिला रही है”

दया पवार भारतीय साहित्य के यथास्थितिवाद पर लिखते हैं

“हे महाकवि ,
तुझे महाकवि भी कैसे कहूँ !
इस अन्याय- अत्याचार को सरे आम बयां करने वाला ,
एक भी छंद रचा होता तो तेरा नाम ,
अपने ह्रदय पर अंकित किया होता”

मराठी कविता की मुख्य धारा पर कटाक्ष करते हुए वामन निंबालकर लिखते हैं

इस गाँव सिवान के नाहर की सूखी रौंदी हुई जिन्दगी , 
कभी बनी नहीं विषय तुम्हारी कविता का
उसके लहुलुहान कदमों की और जलती हुई इज्ज़त को
कभी बनी नहीं विषय तुम्हारी कविता का

पंजाबी दलित कविता का आरम्भ करने वाले गुरुदास राम ‘आलम’ तत्कालीन साहित्य पर असंतोष व्यक्त करते हुए लिखते हैं-

 “क्या लिखते हो !
किसके लिए लिखते हो
गंभीरता से सोच
क्या तेरी लेखनी सहायक है
किसी कमजोर की या कि बलवान की ?”

दलित साहित्य पीड़ा की अभिव्यक्ति ही नहीं चेतावनी का भी अखिल चार्टर है जैसे सी.बी. भारती की एक कविता है ‘जोंक’ इसे भी पढ़िए

“जोंक जानती है सिर्फ, औरों का खून चूसना
जोंक जानती है सिर्फ औरों के खून से अपने कद को बड़ा करना
बढ़े हुए अपने कद के जूनून में जोंक नहीं जानती कि एक दिन
उसका शिकार जरूर बिलबिलायेगा ,
दर्द जब न सहा जाएगा, और खून घटा जाएगा ,
तब जरूर वह गुस्साएगा, और मसल दी जायेगी जोंक तब
जोंक नहीं जानती |”

ऐसे असंगघोष की यह कविता भी बहुत कुछ कहती है

समय मांगता है , मुझसे हिसाब
पढ़े क्यों नहीं! नहीं है इसका जवाब , मेरे पास, 
तुमने अपनी वर्जनाओं से , काट ली थी मेरी जिह्वा
मेरे होंठ ही, सिल दिए थे, मेरे कानों में, पिघला हुआ शीशा भी
उड़ेल दिया था, मेरी आँखों में, गर्म सलाखें भी, तुम्हारे ही कहने पर घुसेड़ी गईं
तुम्हारी इस करनी पर, मेरी धमनियों में खौल रहा है, बहता लहू
समय के साथ,इसका, मैं दूंगा माकूल जवाब
मेरी जगह , 
पढ़ेंगे मेरे बच्चे , ज़रूर….

वह गुस्सा और स्वअनुभूति दलित लेखकों/कवियों के लेखन में थी वह मुख्यधारा के लेखन में कभी रही ही नहीं। मुख्य धारा के लेखकों ने भी कई बार अश्पृश्यता, जाति व्यवस्था पर लिखा है लेकिन उनका लेखन उस तरह चोट नहीं करता जिस तरह से दलित साहित्य ने किया है
जैसे मलखान सिंह लिखते हैं

“मेरी माँ मैला कमाती थी
बाप बेगार करता था और
मैं मेहनताने में मिली जूठन को
इकठ्ठा करता था और खाता था”

मलखान सिंह अपनी ‘’एक पूरी उम्र’’ नामक कविता में लिखते हैं

“यकीन मानिए , इस आदमखोर गाँव में ,
मुझे डर लगता है !
लगता है कि अभी बस अभी !
ठकुराईसी मेड़ चीखेगी
मैं अधशौच ही खेत से उठ जाऊँगा।
कि अभी बस अभी।
महाजन आयेगा मेरी गाडी से मेरी भैंस उधारी में खोल ले जाएगा।”

इस तरह दलित साहित्य पर विमर्श भले ही पुराना है लेकिन एक धारा एक रूप में अस्सी के दशक में ही सामने आया है। इसी के साथ कुछ लोगों का मानना है कि दलित साहित्य के लिए दलित होना ज़रूरी नहीं है। उनका कहना है कि हिन्दी में दलित समस्याओं पर लिखनेवालों की एक लम्बी परम्परा है। इसी कड़ी में काशीनाथ सिंह कहते हैं

‘‘घोड़े पर लिखने के लिए घोड़ा होना ज़रूरी नहीं।’’

लेकिन इस तर्क का चिंतन बहुत ही सतही है! जैसे घोड़े के अलावा कोई अन्य घोड़े पर लिखेगा तो वह उसके बाहरी अंगों, उसकी चाल, उसके वेग, उसके पुट्टों, उसकी मदमस्त हिनहिनाहट पर ही लिख सकता है लेकिन दिन भर के थके-हारे, भूखे-प्यासे घोड़े के मन में अपने मालिक के प्रति क्या भाव चल रहा होगा उसकी अन्तः पीड़ा क्या होगी मालिक का कौन-सा रूप और चेहरा उसकी कल्पना होगा, सिर्फ घोड़ा ही जानता है।

ऐसे ही जैसे एक गणितज्ञ संभव है एक अच्छा लेखक या कवि भी हो ! वह किसी स्त्री पर सुंदर गीत लिख सकता है , उसके सौन्दर्य पर श्रृंगार रस में ढेरों कवितायें गढ़ सकता है लेकिन स्त्री मातृत्व पर लिखने की उसकी संवेदनाएं कहीं न कहीं बौनी रह जायेंगी! स्त्री के मात्रत्व पर लिखने के लिए उसे मातृत्व जीना पड़ेगा। उसके बाद ही वह नन्हें शिशु के प्रति माँ के स्नेह को सही शब्द दे पायेगा।

यही कारण है साहित्य की वर्तमान धारा के इस नए हिस्से को “दलित साहित्य” कहा जाता है जिसमें संवेदनाओं, पीड़ा, भावनाओं, और वेदनाओं का एक अनूठापन है जिसमें समाज की सड़ी हुई व्यवस्था के प्रति एक विद्रोह है।


~ इस लेखन में मैंने ‘कंवल भारती की दलित विमर्श की भूमिका , दलित ( निर्वाचित कवितायें ) , ओमप्रकाश वाल्मीकि की किताब ‘दलित साहित्य: अनुभव संघर्ष एवं यथार्थ’ और तमाम वेबसाइट्स से इनपुट लिया है

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