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गरीबों को शिक्षा से वंचित करने की साजिश तो नहीं विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता

भारत की उच्च शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने की दिशा में मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा 60 संस्थानों को स्वायत्तता देने की पहल की गयी है। इनमें  नैक (राष्ट्रीय मूल्यांकन और प्रत्यायन परिषद) के आकलन में एक निर्धारित ग्रेड से ऊपर पाने वाले केन्द्रीय विश्वविद्यालय, राज्य विश्वविद्यालय, मानित विश्वविद्यालय और कुछ निजी विश्वविद्यालय सम्मिलित हैं। यदि इस सुधार से संबंधित प्रेस रिलीज़ को देखें तो उसमें स्वायत्तता को गुणवत्ता संवर्धन का माध्यम बताया गया है। इसके तरीके क्या हो सकते हैं? इसका अनुमान प्रेस रिलीज़ के दूसरे पैराग्राफ से लगाया जा सकता है।

इसमें लिखा गया है कि ये संस्थान नए अध्ययन कार्यक्रमों और परिसरों को खोलने के लिए स्वतंत्र हैं। कौशल आधारित कार्यक्रमों का विकास और रिसर्च पार्कों का विकास कर सकते हैं। वे विदेशी संकाय सदस्यों और विद्यार्थियों को प्रवेश दे सकते हैं। वे अपने संकाय सदस्यों को आर्थिक प्रोत्साहन देने के लिए भी स्वतंत्र हैं। इन्हें अकादमिक भागीदारी और दूर शिक्षा केन्द्रों को खोलने की अनुमति दी जाएगी।

स्पष्ट है कि इन संस्थानां को निर्णयां और प्रक्रियाओं में स्वायत्तता के साथ प्रबंधन और संचालन में स्वायत्तता दी जा रही है। स्वायत्तता देने के समर्थक जिन तर्कों के आधार पर इसकी पैरवी कर रहे हैं उन तर्कों का दूसरा पक्ष जान लेना इसकी आलोचना के लिए पर्याप्त है। आगे बढ़ने से पहले उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अब तक की उपलब्धियों, चुनौतियों और संभावनाओं पर सरसरी निगाह डालते हैं।

आज़ादी के बाद से उच्च शिक्षा ने अपने प्रसार क्षेत्र को व्यापक किया है। परिणामस्वरूप नामांकन दर में वृद्धि हुई है और तरह-तरह के पाठ्यक्रमों का विकास भी हुआ है। इसके साथ ही यह सीमा रही है कि व्यवसाय और बाज़ार की मांग के अनुरूप कार्यशक्ति की पूर्ति नहीं हो पा रही है, शोध का अपेक्षाकृत निम्न स्तर है और शिक्षण एवं मूल्यांकन में चयनात्मक प्रवृत्ति हावी है।

जिन पैमानों पर कुछ संस्थानों को स्वायत्तता देने का फैसला किया गया है उनके आधार पर जान पड़ता है कि ये संस्थान उक्त सीमाओं को संबोधित करते हैं। जिन संस्थानों ने इन सीमाओं को संबोधित कर लिया है उनसे क्या अपेक्षाएं हैं? यही कि वे नए पाठ्यक्रम, नए केन्द्र और नए शोध प्रारंभ करें। अच्छा होता कि इस नवाचार के द्वारा ये संस्थान अपने ही जैसे लेकिन गुणवत्ता के पैमाने पर पीछे ठहर रहे संस्थानों की मदद करते। लेकिन इसके बदले यह संभावना अधिक है कि वे विदेशी विद्यार्थियों और संकाय सदस्यों को आकर्षित करने का कार्य करें। इस तर्क को समर्थन स्वायत्तता के स्वरूप विदेशों से जुड़ने और कार्य करने की सकारात्मक परिस्थितियां के उल्लेख से मिलता है।

ना जाने कब हम विदेश से जुड़ने और उसे अपनी ओर आकर्षित करने का ‘ऑब्शेसन’ से मुक्त होंगे! स्वायत्तता का यह मॉडल संभव है कि कुछ संस्थानों को वैश्विक गुणवत्ता सूची में स्थान दिला दे लेकिन अधिकांश संस्थानों की गैर बराबरी और पिछड़ापन जस की तस बना रहेगा। यह प्रयास भी एक तरह से मैकाले के निस्यंदन सिद्धान्त की तरह है जहां हमारे नीति निर्माता मान रहे हैं कि कुछ संस्थाओं में सुधार का प्रभाव अधिकांश संस्थानों तक छनकर पहुंच जाएगा।

विश्वविद्यालय राज्य से स्वतंत्र संस्थान नहीं हैं। इनमें और राज्य के बीच एक संतुलन बनाया गया है। राज्य इन्हें ज्ञान के जनन और प्रसार के संस्थान के रूप में अवसर और स्वतंत्रता देता है तो इन पर निगरानी की व्यवस्था भी करता है। स्वायत्तता देने के बहाने सरकार का तर्क है कि वह इन संस्थानों में विकास के नए अवसर देने के लिए अपने हस्तक्षेप को कम करना चाहती है। यदि सरकार इस तर्क के आधार पर सुधार करती है तो वह यह भी मान रही है कि सरकार विश्वविद्यालय की कार्यप्रणाली में अवरोधक है।

यदि सरकार के हस्तक्षेप का कम होना गुणवत्ता वृद्धि का माध्यम हो सकता है तो सामान्य प्रायिकता सिद्धान्त के अनुसार उतनी ही संभावना है कि स्वायत्तता के नाम पर विश्वविद्यालय स्वछंद हो जाये। कहने का अर्थ है कि सरकार के साथ संबंध में संतुलन के बदले स्वायत्तता के मुखौटे को देखना अधूरा सत्य है। इसे प्रचारित करके सरकार विशेष रूप जो वित्तीय बोझ विश्वविद्यालयों पर थोपने जा रही है उसे भी देखने की ज़रूरत है। स्वायत्तता की बहस में अकादमिक निर्णयों की स्वतंत्रता के साथ संसाधन प्रबंधन की स्वायत्तता भी सम्मिलित है। इसके अनुसार विश्वविद्यालयों को कुल बजट का 30 प्रतिशत खुद कमाना होगा। स्वाभाविक है कि इसके लिए विश्वविद्यालय की कार्य योजना में आय अर्जन से संबंधी गतिविधियों को बढ़ावा मिलेगा।

आय को बढ़ाने का सामान्य सिद्धान्त है-उत्पाद की मांग और कीमत को बढ़ाना, इसके सापेक्ष लागत को कम करना। उच्च शिक्षा के संदर्भ में कीमत को बढ़ाने का अभिप्राय फीस में वृद्धि है और लागत को कम करने का अभिप्राय आवश्यक संसाधनों और सेवाओं में कटौती है।

स्वायत्तता से संबधित प्रेस रिलीज में संकाय सदस्यों की तनख्वाह वृद्धि वाली पंक्ति को देखिए। उसमें कहा है कि प्रदर्शन के अनुसार वेतन वृद्धि की जा सकती है। इसका दूसरा अर्थ है कि प्रदर्शन के अनुसार वेतन को कम भी किया जा सकता है। जब विश्वविद्यालय को अपनी आय का 30 प्रतिशत खुद अर्जित करना होगा तो संभावना है कि वह स्वायत्तता की व्याख्या इस तरह से कर दे।

डर है कि कहीं विश्वविद्यालय भी शॉपिंग मॉल ना बन जाए जहां से खरीददारी करने के लिए सेल का इंतज़ार करना पड़े! इसके लिए इंटरनेशनल इंस्टीच्यूट ऑफ एजुकेशनल प्लैनिंग की वर्ष 2013 की रिपोर्ट देखिए। कंबोडिया, चीन, वियतनाम, जापान और इण्डोनेशिया के अध्ययन के आधार पर इस रिपोर्ट में बताया स्वायत्तता के परिणामों की व्याख्या की है। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि स्वायत्तता के उपरांत बाज़ार के बढ़ते हस्तक्षेप से अकादमिक गतिविधियों के बदले बाज़ार आधारित गतिविधियों को अधिक स्थान मिलने लगा। विश्वविद्यालयों तक पहुंच में अवसरों की असमानता, कार्य बोझ में वृद्धि और अकादमिक प्रशासन के बदले प्रबंधकीय तौर तरीकों से प्रशासन और संचालन होने लगा। इसके आधार पर भारत में स्वायत्तता के परिणामों की परिकल्पना कर सकते हैं।

स्वायत्तता से संबंधी दस्तावेज इसकी सफलता का उपाय सधे हुए दूरदर्शी नेतृत्व में देखते हैं। विश्वविद्यालयों के संदर्भ में यह नेतृत्व कुलपति और अन्य संबंधितों के चयन और नियुक्ति में देखा जा सकता है। सवाल है कि क्या स्वायत्तता के साथ इन महत्वपूर्ण नियुक्तियों को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त कर सकते हैं? कहने को तो स्वायत्तता के नाम पर संस्थान को इस तरह की नियुक्तियों का अधिकार दे दिया जाएगा। लेकिन विश्वविद्यालय का राज्य और समाज से जो संबंध है और विश्वविद्यालय के भागीदारों-संकाय सदस्यों और प्रशासकों की राजनीतिक पैठ को देखते हुए कहना ना होगा कि राजनीतिक हस्तक्षेप को सामने के दरवाज़े से बंद किया जा सकता है, लेकिन पीछे के दरवाज़े से यह हस्तक्षेप बढ़ जाएगा।

यदि कहीं सत्ता पर कायम रहने की इच्छा हावी हुई तो यह स्थिति विश्वविद्यालयों को आंतरिक संघर्ष की ओर ले जाएगी। इसके अलावा हमें अकादमिक नेतृत्व और प्रबंधन नेतृत्व में फर्क करना होगा। विश्वविद्यालयों का अकादमिक नेतृत्व बैलेंस सीट पर नहीं फंसता है। इसका लक्ष्य दीर्घकाल में शिक्षण और शोध में सुधार करने वाले उत्तराधिकारी तैयार करना है जबकि प्रबंधन नेतृत्व तो मौद्रिक लाभ और तात्कालिक आंकड़ों में दिखने वाले लाभों को तैयार करता है। स्वायत्तता के जुमले में प्रबंधन का शब्द कर्णप्रिय प्रतीत होता है लेकिन यह विश्वविद्यालय की अध्ययन और मनन की संस्कृति से मेल नहीं खाता। प्रबंधन के गुण से कोल्डड्रिंक और इंश्योरेंस पॉलिसी बेची जा सकती है शिक्षा नहीं! 

स्वायत्तता के रूप में उच्च शिक्षा में सुधार अति नियंत्रण से मुक्ति का आकर्षण तो दिखाता है, लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि जिन संस्थानों को स्वायत्तता दी जा रही है अभी उनके पास आधारभूत संसाधनों की ऐसी पृष्ठभूमि नहीं है कि वे खुद को संपोषित कर पाए। उनकी अकादमिक उपलब्धियां भी सरकार के अनुदान पर टिकी हैं। हमारी अधिकांश उच्च शिक्षा की संस्थाएं वित्त और प्रदर्शन दोनों ही तरह की समस्याओं से जुझ रही है। जिन संस्थानों का प्रदर्शन अच्छा है उनके साथ से इनका विकास किये जाने के बदले नवाचार का बाज़ार तैयार करना विश्व पटल पर भारत को स्थान तो दिला सकता है लेकिन उच्च शिक्षा के लिए जनाकांक्षा की पूर्ति का लक्ष्य इसके द्वारा नहीं पूरा हो सकता।

 

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