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समाज को अपना तन-मन-धन समर्पित करने वाले महात्मा ज्योतिबा फुले

महान चिंतक महात्मा ज्योतिबा फुले का जन्म एक मराठी माली परिवार में सन 1827 में हुआ। उनका विवाह, सावित्री बाई फुले के साथ हुआ। जिन्हें प्रथम भारतीय महिला शिक्षिका होने का गौरव प्राप्त है। ज्योतिबा फुले के समय भारत पर अंग्रेज़ी हुकूमत थी। इसे वे दलितों, पिछड़ों और महिलाओं के उत्थान लिए एक अवसर की दृष्टि से देखते थे। वे दलितों पिछड़ों और महिलाओं की शिक्षा के लिए आजीवन कार्य करते रहें।

उन्होंने सन 1849 में महिलाओं की शिक्षा के लिए कन्या विद्यालय की स्थापना की तथा दलित छात्रों के लिए सन 1852 में विद्यालय प्रारंभ किया। उन्होंने छुआछूत, अंधविश्वास, धार्मिक रूढ़िवादिता, संकीर्ण विचार, पुरोहितवाद आदि का पुरज़ोर विरोध किया। इस के लिए उन्होंने एक सामाजिक संस्था ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना सन् 1873 में की।

महात्मा ज्योतिबा फुले ने उस समय की राजनीतिक गुलामी से ज़्यादा आंतरिक सामाजिक गुलामी का विरोध किया। उनका मानना था राजनीतिक गुलामी से ज़्यादा खतरनाक सामाजिक विषमता हैं। जिसके कारण दलित, पिछड़े, महिलाएं बद्तर ज़िंदगी जीने के लिए अभिशप्त हैं। इसलिए उन्होंने समतावादी समाज की स्थापना के लिए इस विषमता को समाप्त करने का निश्चय किया। उन्होंने पाया इस व्यवस्था के लिए धार्मिक मान्यताएं, अंधश्रद्धा, अशिक्षा और मनुवादी व्यवस्था ज़िम्मेदार हैं। ज्योतिबा फुले चाहते थे दलितों, पिछड़ों और महिलाओं में शिक्षा का प्रसार हो। उन्होंने शिक्षा के अभाव को इस प्रकार व्यक्त किया है।

“विद्या बिन मति गयी, मति बिना नीति गयी,
नीति बिना गति गयी, गति बिना वित गया।”

डॉ अम्बेडकर भी उनके विचारों से प्रेरित थे और उन्हें अपना गुरु मानते थे। डॉ अम्बेडकर का भी ज्योतिबा फुले की तरह मानना था राजनीतिक गुलामी से सामाजिक गुलामी अधिक खतरनाक है। महात्मा फुले कर्मकांड, पुनर्जन्म, दैववाद, स्वर्ग-नर्क आदि में विश्वास नहीं करते थे। वे सत्य को ही धर्म मानते थे। इन मान्यताओं को थोथला साबित करने के लिए कई पुस्तकें भी लिखी। जिसमें सामाजिक रूढ़ियों का पुरज़ोर विरोध किया। उनकी पुस्तक “गुलामगिरी” विशेष प्रसिद्ध है। उनकी अन्य पुस्तकें तृतीय रत्न, पांवडा छत्रपति राजा शिवजी भोसला का, ब्राह्मणों की चालाकी, किसान का कोड़ा, सत्सार, चेतावनी, अछूतों की कैफियत,सावर्जनिक सत्यधर्म, अखंडदि, काव्यरचना आदि हैं।

ज्योतिबा फुले ने समकालीन समाज में फैली छुआछूत, गरीबी, अशिक्षा, स्त्रियों की दयनीय स्थिति, शोषण, गुलामी आदि का डटकर विरोध किया। इन्ही संघर्षों के चलते उन्हें महात्मा की उपाधि प्राप्त हुई। उनके विरोधियों ने उन्हें तरह-तरह से प्रताड़ित किया।

सामाजिक विषमता की लड़ाई के चलते उन्हें अपने ही घर से निकाल दिया। लेकिन उन्होंने सामाजिक विषमता के प्रति लड़ाई को कमज़ोर नहीं पड़ने दिया। आगे चल कर उन्होंने बलहत्या-प्रतिबंधक ग्रह की स्थापना की और विधवा-मुंडन पर रोक, देवदासी प्रथा पर रोक, नारी-मुक्ति, छुआछूत आदि पर पहल की। उन्होंने दीनबंधु पत्रिका का प्रकाशन किया एवं राजनीति में भी सक्रिय भूमिका निभाई और अंत तक फूले दंपति सामाज सेवा के लिए समर्पित रहे।

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