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अमिताभ जी, ‘सबका साथ सबका विकास’ का आपने यह कैसा फॉर्मूला निकाला है?

पिछले हफ्ते जामिया मिल्लिया इस्लामिया में अब्दुल गफ्फार खान (सीमांत गांधी) के पहले स्मारक व्याख्यान के दौरान नीति आयोग के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अभिताभ कांत ने कहा “बिहार, उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों के कारण भारत पिछड़ा बना हुआ है।” अमिताभ कांत के इस बयान में  पहले तो परिपक्वता कम और हिंदी बेल्ट या हिंदी हार्ट लैंड राज्यों की जानकारी का अभाव अधिक दिखता है। दूसरा, आर्थिक संसाधन के ज़रूरतमंद राज्यों से पल्ला झाड़ने की नियत अधिक दिखती है।

भारत के पूर्वी प्रदेश जिन्हें हिंदी बेल्ट या हिंदी हार्ट लैंड भी कहा जाता है वहां से औपनिवेशिक काल में बड़े पैमाने पर गिरमिटिया मज़दूर के रूप में पलायन करते थे। आज भी बेहतर जीवन, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के लिए शिक्षित और अशिक्षित दोनों ही निवासी दूसरे राज्यों में पलायन करते हैं। इन प्रदेशों के आर्थिक पिछड़ेपन के अपने ऐतिसाहिक और राजनीतिक कारण रहे हैं, जिन्होंने मिलकर हिंदी बेल्ट के प्रदेशों की मौजूदा सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के ताने-बाने को गढ़ा है। इसको समझे बिना अनर्गल बयान देना “थोथा चना, बाजे घना” की कहावत को चरितार्थ करता है।

भारत के हिंदी बेल्ट के पिछड़ेपन की जड़ें गुलाम भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की नीतियों और लूट से भी जुड़ती हैं। इस दौर में इन क्षेत्रों में ज़मींदारी प्रथा के साथ-साथ रजवाड़ों का भी बोलबाला था। कर या लगान वसूल करने के लिए भूमि पर स्थाई बंदोबस्ती व्यवस्था लागू थी और राजस्व सरकार तक सीधे नहीं, ज़मींदारों, रजवाड़ों से होकर गुज़रता था। ज़मींदारों और रजवाड़ों का लगान वसूली तो तय रहता था पर सरकारी निवेश इन इलाकों में शून्य के बराबर था जिसके कारण सामूहिक रूप से समाज का विकास रुक गया, जमीदारों और रजवाड़ों का ही विकास होता रहा।

दूसरी तरफ, दक्षिण प्रदेशों में रैयतवारी व्यवस्था कायम की गई थी, यहां सरकार और किसान के बीच में कोई तीसरा नहीं था, यहां रेवेन्यू जेनरेशन, हिंदी बेल्ट के प्रदेशों से अधिक होता रहा। इसी कारण शिक्षा, स्वास्थ्य एंव अन्य सामाजिक क्षेत्रों में तुलनात्मक रूप से ज़्यादा निवेश होता रहा। सोशल सेक्टर में अधिक निवेश के कारण इन क्षेत्रों का सामाजिक और आर्थिक विकास हिंदी बेल्ट के तुलना में अधिक हुआ। हिंदी बेल्ट के प्रदेशों में आज भी चकबंदी और सिंचाई  की समुचित आधारभूत व्यवस्था, दक्षिण के राज्यों की तुलना में काफी कम है।

आज़ाद भारत में भी औधोगिक विकास का अधिक फायदा दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों को हुआ। हां सस्ते श्रम की कमी को हिंदी बेल्ट के राज्यों से ज़रूर पूरा किया गया। आज भी इन प्रदेशों के श्रमिकों की समान्य अनुपस्थिति से कई राज्यों में श्रम संबंधी सारी गतिविधियां ठप पर जाती है।

आज़ादी के कई दशक बाद नई आर्थिक गतिशीलता यानी उदारीकरण के दौर में हिंदी बेल्ट के राज्यों का विकास उस गति से नहीं हो सका। क्योंकि इन राज्यों के पास आधारभूत ढांचों का ही अभाव था। इन आधारभूत ढांचों के विकास के लिए हिंदी बेल्ट वाले प्रदेश, नीति आयोग और वित्त आयोग से हमेशा विशेष पैकेजों की गठरी की उम्मीद से बंधे रहते हैं, जिससे ये प्रदेश राष्ट्रीय औसत के ऊपर छंलाग लगा सकें। इन राज्यों ने खुद को आगे बढ़ाने की भी कोशिशे की हैं, परंतु फाइनैंशियल मुश्किलें उनके रास्ता की मुख्य बाधाएं है।

अगले कुछ दशकों में आर्थिक रूप से मज़बूत कई राज्य भारत के फिनांशियल कैपिटल के रूप में उभरेंगे। लेकिन हिंदी बेल्ट के प्रदेशों की आर्थिक दिक्कतों के सामने नीति आयोगों का मुंह फेर कर उकड़ूं बैठे रहना, ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ने के जैसा ही है। नीति आयोग का काम है कि वह देश में समान विकास के लिए नीतियां बनाए। राज्य से बेहतर विकास के लिए आर्थिक संसाधन के लिए केंद्र की सहायता में हिस्सेदारी में इजाफा के राज्यों के दौर में इस तरह की बयानबाज़ी अस्थिरता ही पैदा करेगी। किसी भी प्रदेश के मूल्यांकन के पूर्व उसके आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक इतिहास को अपने ज़हन में रखे, अज्ञानता का अभाव देश को दोराहे पर ला देगा। नीति आयोग को समझना होगा कि “हाथ झटकने से सबका साथ, सबका विकास नहीं होगा।”

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