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“माफ करना प्यारी बच्ची हम डर की वजह से चुप हैं”

सुना है वो बच्ची बहुत बातूनी थी। वो हिरनी की तरह दौड़ती-भागती रहती थी, वो अपनी भेड़ों और भैंसों का बहुत ख्याल रखा करती थी। बस वो मासूम एक दिन अपना ही ख्याल ना रख सकी और आंसुओं से तरबतर गीले कफन में लिपट गयी जिसमें अभी तक न जाने कितनी निर्भया पहले लिपट चुकी हैं।

उस मासूम बच्ची की बहन कह रही है कि अब उसे सिर्फ जंगलों में जाने से डर नहीं लगता, रास्तों पर भी लगता है। मतलब समझते हैं आप इस बात का कि खूंखार जानवरों से डर नहीं लगता, इंसानों से लगता है। ये हकीकत हो गयी है हमारे समाज की। वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता सही कह रहे हैं अगर कठुआ रेप केस से भी देश की अंतरात्मा नहीं जागती, तो पता नहीं फिर किस बात पर जागेगी।

लोगों को हर बार लगता है कि सत्ता बदल जाएगी सब कुछ ठीक हो जायेगा। लेकिन 1973 के अरुणा शॉनबाग के चर्चित रेप केस से लेकर 1980 के बागपत में हुए माया त्यागी कांड और 2012 के निर्भया रेप केस के बाद न जाने कितनी सत्ताएं बदली पर रेप की मानसिकता कहां बदली? इंसानियत को तार-तार करने वाली इस कड़ी में अब कठुआ की उस मासूम बच्ची का नाम भी जुड़ गया।

अंतर थोड़ा इतना है कि पहले हम इन सबके विरोध में सड़कों पर उतरते थे। आन्दोलन धरने, प्रदर्शन करते थे अब कम्प्यूटर और मोबाइल के कीबोर्ड तक सीमित हो गये हैं।

मासूमियत और दरिंदगी कैसी दिखती हैं उस बच्ची की दोनों फोटो बताने के लिए काफी है। मैंने एक तस्वीर में उस बच्ची की मासूमियत देखी और दूसरा में क्षत-विक्षत शव देखा जिसमें उसे हवस के कीड़ों ने खाया था।

दुनिया के हर धर्म, हर राजनीतिक व्यवस्था और हर दर्शन में बच्चे मासूम समझे जाते हैं। लेकिन अब तथाकथित धर्म-मज़हब प्रेमियों को बच्चों में मासूमियत की बजाय धर्म दिखने लगे हैं। मसलन नये भारत में जिस-जिस व्यक्ति या गैंग को हिंसा या रेप करना हो या उन्हें निजी, वैचारिक या राजनीतिक, धार्मिक जातिगत बदला लेना हो उसके लिए धार्मिक और मज़हबी और जातिवादी संगठन सुरक्षा के कवच बनते जा रहे है।

उस बच्ची के कातिलों के पक्ष में लगते वो नारे जय श्रीराम, वन्देमातरम और लहराते तिरंगे देखे, वाशिंगटन पोस्ट से लेकर न्यूयॉर्क टाइम्स तक बदनाम होता हिन्दू धर्म दो दिन से लगातार देखा। इसके बाद कभी निर्भया के न्याय के लिए निकले छात्र-छात्राओं पर लाठियां बरसाने वाले कल आधी रात को मैंने इंडिया गेट पर कठुआ गैंग रेप के विरोध में केंडल मार्च करते देखें।

क्या बलात्कारी इंडिया गेट या जन्तर-मंतर पर बैठे हैं? क्या सिर्फ दिल्ली में बलात्कार के विरोध में नारे लगाने से बलात्कार मुक्त भारत हो जायेगा? शायद नहीं! क्योंकि बलात्कारी देश की रग-रग में बस चुका है। हर गली और हर चैराहे पर है, वो बस में भी है, वो स्कूल में भी है, वो जेलों में भी है, वो अस्पतालो में भी है, वो धार्मिक संस्थानो में भी घुस चुके है, वो कठुआ में भी है, वो उन्नाव में भी है। उन्हें बदलने के लिए सभी को बदलने की ज़रूरत है। उसके लिए हर शहर, हर गांव, हर गली, हर घर में मार्च निकालना होगा।

पर अभी हम सब चुप हैं क्योंकि हम डर में जी रहे हैं। किसी को मज़हब के खतरे का डर, किसी को अपनी जात का डर, किसी को धर्म का और कोई वोट बैंक न खिसक जाये इस डर में चुप है, कोई मंदिर-मस्जिद में चंदा कम न हो जाए इस डर से चुप हैं। सच कहूं तो लोग डरों से डरे बैठे है।

प्यारी बच्ची तुम ये मत सोचना कि तुम्हारे साथ न्याय के लिए कम लोग खड़ें हुए हैं, नहीं ऐसा नहीं है, बस हम लोग डरे हुए हैं अपने राजनैतिक नेताओं की सत्ता ना खो जाने के डर से। हम डरे हुए हैं अपने धर्म-मज़हबों के ठेकदारों के रुतबे से। उन सब डर से डरे हुए हैं जो दिन रात सोशल मीडिया पर हमें खैरात में मिल रहा है। दलित डरा हुआ कभी मनुवाद न आ जाये। मुसलमान डरा हुआ कभी इस्लाम पर आंच न आ जाएं, हिन्दू डरा हुआ कहीं फिर से किसी औरंगज़ेब का शासन न आ जाये। हर कोई अतीत से डरा हुआ। इन डरे हुए लोगों को डराने वाले आराम से घर बैठे हैं।

पता नहीं इन लोगों का डर कब खत्म होगा! शायद लोग इंतज़ार कर रहे हैं कि कोई शक्तिमान आएगा या कोई ओडिन पुत्र थॉर जो इन लोगों को इनके डर से बचाएगा। पर प्यारी बच्ची तुम्हें नहीं पता होगा कि धर्म-मज़हब और बीमा पॉलिसी बिना डराए बिकती ही कहां हैं?

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