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अपने आप में सीमित रहने वाला हमारा समाज अन्याय के खिलाफ कब एकजुट होगा?

मेरे एक फेसबुक मित्र का सवाल है, “अन्याय के विरोध में सड़क पर कम लोग क्यों आते हैं ?”

एक महिला साथी ने कहा “ये भारत है भाई ! यहां भीड़ दंगा करने के लिए आती है, झोपड़ियां जलाने, हत्या करने, हाथ-पैर तोड़ने, बलात्कार करने, रैलियों में झंडा ढोने के लिए आती है।

यहां तक कि अन्याय का विरोध कर रहे लोगों का विरोध करने के लिए आती है. लेकिन यही भीड़ न्याय के लिए साथ खड़े होने में नहीं आती है।

इस पर मेरा विचार है कि बुनियादी शिक्षा जो हमें सबसे पहले परिवार से मिलती है, उसी में कमी है। याद करिये वो दिन जब बच्चे को बाहर भेजते समय माँ बाप बोलते हैं कि, “अपने काम से काम रखना, फालतू के पचड़ों में मत पड़ना।” वो समाज में हो रही बुरी चीज़ों से बचने यानि कि उन्हें नज़रंदाज़ करने के लिए बोल रहे होते हैं, ये सीधे-सीधे किसी भी बच्चे की संवेदनशीलता और सामाजिक जिम्मेदारी को ख़त्म या कम करना हुआ।

लड़ने और टकराने में जोखिम और नुकसान का डर होता है, जिससे सभी अपने-अपने बच्चों को बचा कर रखना चाहते हैं, (समाज में दूसरों के साथ गलत होता देख कर भी)। समाज का यही व्यक्तिगत डर सामूहिक चरित्र और बर्ताव बन जाता है, जो समाज को ‘व्यक्ति’ के स्तर तक तोड़े रखता है।

विरोध का जोखिम न उठाने से समाज में मौजूद जोखिम कम नहीं होते बल्कि बढ़ते ही हैं।

लोगों को संवेदनशील होने के लिए वजह चाहिए होती है, मसलन, वो हमारा भाई हो, रिश्तेदार हो, सामान जाति, धर्म या पेशे वाला हो। क्योंकि उन्हें सिखाया गया है कि, “अपने काम से काम रखो”। लोगों को लगता है कि अन्याय या अपराध की तरफ आंखे मूंद लेने से वो इससे बच जाएंगे, लेकिन ऐसा होता नहीं है। हर किसी का नम्बर आता है, “अलग-अलग”, अब चूंकि समाज के लोग “अपना-अपना” देखने के आदी हैं, तो अन्याय की स्थिति में वो “अलग-थलग” ही पड़ जायेंगे।

कुछ दिन पहले इलाहाबाद में LLB छात्र दिलीप सरोज की हत्या के विरोध में कलेक्ट्रेट में हुए प्रदर्शन में महज़ 100-200 लोग इकठ्ठा हुए, उनमें भी कई गुट थे, जिनमें ज़्यादातर छात्र ही थे, जो कि एक दूसरे को ‘नेता बनने’, ‘फेमस होने’ का उलाहना देते हुए लताड़ रहे थे। वहां पर उपस्थित एक सीनियर सिटीज़न ने सबसे आखिर में मौका मिलने पर यह बात कही कि, “ये लड़ाई सिर्फ छात्रों की नहीं है, ये ज़िम्मेदारी समाज के हर व्यक्ति की है, लड़कियों की! बूढ़ों की! औरतों की! जवानों की! सब की!”

उसी के दूसरे दिन मैं उसी समाज में एक शादी में शामिल हुआ, मैं चकित था 500 लोगों को इकट्ठा देख कर, मैं सोचने लगा, एक परिवार से जुड़े हुए इतने लोग? ये लोग कहां चले जाते हैं जब किसी के साथ कोई अनहोनी होती है? तब ये लिफाफे लेकर क्यों नहीं प्रकट होते?

अत्याचारियों की मज़बूती उनकी मज़बूती नहीं होती, ये हमारी कमजोरी होती है, जो उन्हें मज़बूत बनाती है।

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