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क्या हमने स्कूली विद्यार्थियों का जीवन बोझिल बना दिया है?

स्कूली शिक्षा में बोझ को कम करने की कवायद एक बार फिर शुरू हुई है। मानव संसाधन मंत्रालय ने N.C.E.R.T के माध्यम से स्कूली शिक्षा के विभिन्न भागीदारों से ‘शिक्षा के बोझ‘ को कम करने से संबंधी सुझाव मांगे हैं। ऐसी सूचना है कि विद्यालयी शिक्षा के वर्तमान पाठ्यक्रम को आधा करके शिक्षा के बोझ को कम करने की मंशा है।

इस मंशा में यह मान्यता निहित है कि शिक्षा में बोझ का कारण पाठ्यक्रम है जिसमें सूचना की प्रधानता है। इसे कम या नियोजित करके स्थिति को सुधारा जा सकता है। इसके समांतर खेल और जीवनकौशल जैसे आयामों को बढ़ाकर विद्यालयी शिक्षा को विद्यार्थी केन्द्रित बनाने की बात भी की जा रही है। यह कोई नयी बहस या कवायद नहीं है। लगभग दो दशक पहले यशपाल कमेटी ने भी ‘शिक्षा बिना बोझ के’ रिपोर्ट में विश्लेषण के साथ समस्या के कारण और समाधान बताये थे। इस तरह की हर रिपोर्ट और अनुशंसा बताती है कि सीखने की प्रक्रिया में आनंद नहीं है। विद्यालय का स्थानीय परिवेश से संबंध नहीं है। शिक्षा के भागीदार, खासकर शिक्षक, उत्तरदायी नहीं है।

इन सैद्धान्तिक निष्कर्षों और प्रस्तावों से अलग हटकर भारतीय समाज और विद्यालय के साथ उसके सबंध को देखिए। इसकी शुरूआत स्कूल जाने वाले किसी बच्चे के एक दिन की परिकल्पना से करते हैं। इस दिन का बड़ा हिस्सा स्कूल और स्कूल द्वारा अपेक्षित व्यवहार और संज्ञान को आत्मसात करने में बीत जाता है। दिन की शुरूआत इस सोच से होती है कि स्कूल जाने के लिए तैयार होना है। दिन का अंत इस निष्कर्ष से होता है कि क्या स्कूल का होमवर्क पूरा हो गया? इस बीच में स्कूल का काम पूरा करने की शर्त में टीवी देखने या विडियो गेम खेलने जैसे पुरस्कार भी दिए जाते हैं।

विडंबना यह है जो परिवार स्कूल की इस ‘अनुशासित’ व्यवस्था से बच्चे के जीवन को नियंत्रित कर पाने में सफल नहीं है उन्हें स्कूल ही अयोग्य घोषित कर देता है। इस स्थापना का प्रमाण आप किसी दूर-दराज या अर्बन स्लम के अध्यापक की बातचीत में देख सकते हैं। ऐसे क्षेत्रों के अध्यापक  सीधे कह देते हैं कि बच्चे पढ़ नहीं सकते हैं क्योंकि उनके परिवार में पढ़ाई का माहौल नहीं है। पहली दशा में विद्यार्थी पर परिवार और स्कूल की अपेक्षाओं का बोझ है तो दूसरी दशा में परिवार द्वारा सहयोग न मिल पाने और स्कूल द्वारा पल्ला झाड़ लेने के कारण विद्यार्थी अकेले पास-फेल के खेल में फंसा है। इन दोनों संदर्भों में वयस्क की भूमिका क्या रही?

पहली, उसने बच्चे की दुनिया में एकमात्र महत्वपूर्ण अनुभव के रूप में ‘विद्यालयी अनुभव’ को स्थापित कर दिया। दूसरी, उसने दुनिया का ऐसा चित्र प्रस्तुत किया जहां स्कूल में सफल होना, स्कूल के बाहर सफल होने की गारंटी थी। तीसरी, वयस्कों ने बच्चे की दुनिया विस्तृत करने के बजाय उसे काट-छांट कर सीमित करते हुए ऐसी दुनिया बनाया जिसका लक्ष्य बच्चे को आर्थिक दृष्टि से उत्पादक बनाना था। इस सीमित दुनिया में बच्चों को अपने हमउम्रों में आगे रहने के लिए जो संघर्ष करना पड़ता है वह अंततः बोझ और तनाव बन जाता है।

शिक्षा के बोझ के आंकलन के लिए ऐसे सवाल उठाए जाते हैं- क्या पढ़ाने की सामग्री जैसे- किताब, विषयवस्तु या पाठ्यचर्या के अन्य किसी हिस्से द्वारा बोझ पैदा होता है? क्या पढ़ाने के तरीके से बोझ पैदा होता है? क्या मूल्यांकन के तरीके से बोझ पैदा होता है? इस तरह के तर्क स्कूलिंग की पूरी प्रक्रिया को विश्लेषण के दायरे से बाहर रखती हैं। इसे दूसरी दृष्टि से देखिए। 4 से 6 वर्ष के पाल्य के अभिभावक की चिंता होती है कि वे अपने बच्चे को बेहतर से बेहतर स्कूल में प्रवेश दिलाएं। वे इसके लिए दोस्तों और अन्य संबंधियों से चर्चा करते हैं। अवकाश लेकर विद्यालयों का चक्कर लगाते हैं, प्रवेश के लिए भागदौड़ करते हैं। अभिभावकों की यह दशा देखकर क्या बच्चा ये समझेगा कि विद्यालय का आनंद से कोई लेना-देना है? विद्यालय में प्रवेश की इस पूरी कवायद में विद्यालय की छवि एक महत्वपूर्ण लेकिन बोझ युक्त और तनाव वाली दुनिया की बन जाती है।

यदि हाशिए या ग्रामीण परिवेश के अभिभावकों के संदर्भ में देखें तो स्थिति भिन्न हो सकती है। वे विद्यालय के गुणवत्ता हीन इनपुट को लेकर चितिंत रहते हैं। उनके मन में ये कल्पना रहती है कि किसी तरह शहर के स्कूल में बच्चे को पहुंचा दें तो समस्या हल हो जाएगी। इस तरह से औपचारिक शिक्षा की सामाजिक प्रस्तुति और स्वीकृति इस प्रकार की बन चुकी है यह अपनी स्वाभाविकता खो चुकी है और एक ऐसी कृत्रिम परिस्थिति के रूप में स्थापित हो चुकी है जिसकी कीमत आनंद के अवसरों को चुकाकर देनी पड़ती है।

अब एक अन्य दृष्टि से इस समस्या पर विचार कीजिए। क्या विद्यालय के बाहर की दुनिया में कोई बोझ नहीं है? सवाल थोड़ा अटपटा लग सकता है लेकिन विद्यालय की दुनिया और बच्चे की दुनिया के बाहर की दुनिया में भी बोझ बढ़े हैं। बच्चा अपने परिवार और समुदाय में देखता है कि सभी एक होड़ में हैं। उन्हें कुछ न कुछ पाना है। इस कुछ की सामाजिक स्वीकृति होनी चाहिए। वह यह भी समझ जाता है कि इसे पाने के लिए  दिन-रात परिश्रम करना होता है। जो बच्चा अपने परिवेश में इस दबाव को महसूस कर रहा है स्वाभाविक है कि वह जैसे-जैसे बड़ों की इस दुनिया में वयस्क बनता है जीवन के दबाव को अपनाने लगता है। वह भी कुछ पाने की होड़ में शामिल हो जाता है। वयस्कों की दुनिया उसे इस होड़ का खिलाड़ी बनाने के लिए लग जाती है।

कक्षा में पढ़ना, हॉबी क्लास जाना, खेल में आगे रहना, सामान्य ज्ञान में तेज़ होना जैसी कसौटियों में बच्चे को खुद को श्रेष्ठ करना होता है। यह प्रक्रिया कहने को तो रूचि और सर्जनात्मकता का मुखौटा ओढ़ती है लेकिन बच्चे की संभावनाओं को साकार करने के बदले समाज की अपेक्षाओं के सापेक्ष उसके बड़े होने को नियंत्रित करते हैं। इस नियंत्रण में यदि वह फिट नहीं हो पाता या नियंत्रण कारगर नहीं हो पाता तो बच्चे को असफल घोषित कर दिया जाता है। और असफलता के कारणों को अन्ततः बोझ मान लिया जाता है।

इसे एक उदाहरण द्वारा समझने की कोशिश करते हैं। हाल के वर्षों में शिक्षा के बोझ को कम करने के उद्देश्य से कक्षा 10 में बोर्ड परीक्षाएं समाप्त कर दी गयी थी। इसके प्रभाव को गुणवत्ताहीन विद्यार्थी के रूप में मापा गया। विद्यार्थियों की उपलब्धियों से जुड़े ऐसे आंकड़े प्रस्तावित किए गए जो बताते थे कि कक्षा 8 में पढ़ने वाला प्राथमिक कक्षा की किताबों को नहीं पढ़ सकता है। इन तर्कों के आधार पर पुनः बोर्ड परीक्षाएं आरंभ की गईं। यहां परीक्षा रूपी औजार से विद्यार्थी की योग्यता को स्कूली दक्षताओं में मापने की सीमा का विकल्प नहीं खोजा गया। स्कूली ज्ञान में विद्यार्थी की दक्षता को उसके समग्र अनुभवों का आकलन मान लिया गया। इसके आधार पर उसके बारे में भविष्यवाणी करने का विकल्प नहीं खोज सके। इस कारण परीक्षा की आवश्यकता जस की तस बनी रही और उसे पुनः अपनाना पड़ा।

तात्पर्य है कि स्कूल के बाहर बच्चे को देखने के लिए परीक्षा परिणाम जैसे औजारों को अपनाये रहने के कारण शिक्षा का अंतिम उत्पाद केवल अंक रह जाता है जिसमें बच्चे का निरपेक्ष आकलन ना होकर सापेक्ष आकलन होता है। यह सापेक्षता बच्चे को उसकी खुद की खूबियों को बताने के बदले नाकामियों को ज़्यादा उभारती है। कुल मिलाकर हमने बच्चे के जीवन में विद्यालय को केन्द्रीय स्थान देते हुए एक अजीब से प्रवृत्ति अपना ली है। हम सबके बारे में भविष्यकथन अवश्य करना चाहते हैं। रोज़मर्रा की सामान्य गतिविधियों से कक्षा में पढ़ने और परीक्षा तक भविष्य कथन करने का हर संभव प्रयत्न भी करते हैं। इस पूरे प्रयत्न में सुरक्षित भविष्य की लालच में वर्तमान को बोझिल कर देते हैं।

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