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सोशल मीडिया को पॉलिटिकल मीडिया बना रहा डेटा का दुरुपयोग

For representative purpose only.

क्या आप उन लोगों में से हैं जिन्हें सोशल मीडिया पर एक्टिव रहना पसंद हैंक्या आप रोज़मर्रा की ख़बरों के लिए सोशल मीडिया पर निर्भर होते हैंक्या आपको स्मार्टफोन पर तरह-तरह के एप्प इंस्टाल करने का शौक हैअगर इन सवालों के जवाब हां में है तो समझिये की सोशल मीडिया आपकी पॉलिटिकल रुझानों को प्रभावित कर रहा है

आपके द्वारा किया जा रहा लाइककमेंट और शेयर आपकी पसंदगी-नापसंदगी के बारे में बताता है आपके लिए भले यह मनोरंजन या जानकारी  लेन-देन का काम हो, मगर किसी के लिए यह केवल डेटा और डेटा है। डेटा एनालिसिस करने वाली एजेंसी इन सब को मिलाकर आपकी अभिरुचि का पता लगाती है जिसका उपयोग आपके प्रोफाइलिंग के लिए किया जाता है  समस्या तब आती है जब एक मतदाता के रूप में आपके चुनाव करने के निर्णय को प्रभावित करने के मकसद से यह खेल खेला जाता है और आपको जानकारी तक नहीं होती

हाल ही में फेसबुक के डेटा चोरी का मामला सामने आया है कंपनी ने भारतीय यूज़र्स का भी डेटा बेचा। इसके बाद “बिग डेटा” मैनेजमेंट और चुनाव के लिए दुरुपयोग की बहस छिड़ गयी है भारत की पार्टियां भी इस गोरख धंधे से अछूता नहीं है अब जब इसकी परतें उखड़ने लगी हैं, काँग्रेस और भाजपा एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाकर पल्ला झाड़ने का नाटक कर रही है केम्ब्रिज एनालिटिका के नए खुलासे ने पक्ष-विपक्ष की सियासी लड़ाई को तूल दिया है। 

चूंकि सभी पार्टियां अपने फायदे के लिए इस तिकड़मबाज़ी में लिप्त हैंइसलिए इसपर सियासत होना भी लाज़मी है। अगर भ्रष्टाचार की गंगोत्री चुनाव हैतो चुनावी भ्रष्टाचार की गंगोत्री कैम्ब्रिज एनालिटिका जैसी एजेंसियां हैं

अगर आज हम सचेत नहीं होते हैं तो इसके दूरगामी परिणाम अत्यंत ही खतरनाक हो सकते है राजनीतिक पार्टियां जनमत बनाने का काम आउटसोर्स कर पोलिटिकल कंसलटेंट एजेंसी को सौंप रही है। जो नागरिक को वोटर तक सीमित कर रहा है वर्चुअल और रियल वर्ल्ड का फासला बढ़ता जा रहा है

डिजिटल टेक्नोलॉजी ने ऐसे औज़ार बना दिए हैं,जिससे “बिग डेटा” को आसानी से मैनेज किया जा सकता है व इनका इस्तेमाल किसी खास सही या गलत उद्देश्य को पूरा करने के लिए किया जा सकता है। कहना गलत न होगा की इस डिजिटल युग ने लोकतंत्र में चुनाव की संस्कृति को भी प्रभावित किया है कोई दस साल पहले कार्यकर्ताओं को पार्टी की रीढ़ मानी जाती थीआज उनकी भूमिका काफी हद तक घट गयी है और इनकी जगह आईटी सेल ने ले लिया है अब पार्टियों के अधिकारिक सोशल मीडिया सेल हैंराष्ट्रीय स्तर से लेकर राज्यज़िले और ब्लॉक तक अलग-अलग पद और प्रभार हैं

सोशल मीडिया की महत्ता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हाल ही में राहुल गांधी ने हर राज्य की काँग्रेस कमिटी के सोशल मीडिया वॉलंटियर को बुलाकर मुलाकात की है भाजपा ने राज्यों के चुनाव प्रबंधन और प्रोपेगैंडा के प्रचार के लिए मीडिया एजेंसी “एसोसिएशन ऑफ  बिलियन माइंडस” को हायर किया था। आने वाले वक्त में बिग डेटा चुनावी राजनीति के सबसे बड़े हथियार होंगे और स्मार्टफोन कुरुक्षेत्र।

जैसे-जैसे लोकतंत्र वोट तंत्र में तब्दील होता जायेगाइस तरह के कारोबार बढ़ते जायेंगे। इससे जहां एक तरफ चुनाव महंगे होते जायेंगेवहीं दूसरी तरफ डेटा एनैलिसिस करने वाली एजेंसियों के बाज़ार बड़े होते जायेंगे और इस खेल में लोकतंत्र हमारे हाथ से फिसलता जायेगा एक वक्त आएगा जब हमारे पास वोटर आईडी कार्ड तो होगा पर हम वोट किसे देंगेइसका फैसला केम्ब्रिज एनालिटिका जैसा गिरोह करेगा ज़ाहिर है हमारा लोकतंत्र बड़ा है, वोटर अधिक हैं, डेटा ज़्यादा होगा, इसलिए चुनाव प्रबंधन के बाज़ार भी बड़े होंगे। एजेंसियों का मुनाफा ज़्यादा होगा। ठगा जायेगा तो बस आम आदमी

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