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जब कोई प्वाइंट ना बचे तो बोल दो ‘तुम कहां थे उस वक्त’

राजनैतिक अपरिपक्वता का भयंकर सबूत विकट क्षणों में दिया जाता है। कोई धर्म ढूंढने लगता है, कोई राजनीति, और इन सबसे बिफर कर समर्थकों की जमात बिफर पड़ती है, या तो बहाने ढूंढती है या हिंसक हो जाती है, और सबसे बड़ी बात, अपने मुख से जो कचरा निकालती है। ये आपको सोचने पर मजबूर करता है कि क्या विपदा के क्षण में भी अपनी विचारधारा से जोंक की भांति चिपके रहने से आप इंसानियत के प्रति अपने कर्त्तव्य की अवहेलना तो नहीं कर रहे हैं? 

जो लोग इन घृणित घटनाओ के पीड़ित होते हैं, जो इनके साक्षी बनते हैं वो किसी पार्टी के प्रवक्ता नहीं है, किसी संगठन के ब्रांड एम्बैसडर नहीं हैं, और जो लोग इसके विरुद्ध आवाज़ उठा रहे हैं, वो संगठन की आवाज़ नहीं, बल्कि एक विचार के प्रतिनिधि रहे हैं और शायद रहेंगे, तो आपकी प्रतिक्रिया किसके प्रति थी- पीड़ित व्यक्ति के प्रति, संगठन के प्रति या विचारधारा के प्रति। तिस पर अपराधियों के समर्थन में झंडा रैली निकाला जाना न केवल असंवेदनशीलता, अमानवीयता और क्रूरता की नयी परिधि को छूते हैं, बल्कि ये  बदलते राजनैतिक समीकरणों की तस्वीर भी है, और उसके बदलती किस्मत की नजीर भी।

और नया समीकरण कहता है कि जो “राइट” है वही “राइट” है। और बाकि चीज़े बड़ी आसानी से उसका विलोमार्थी बन जाती हैं। खास तौर पर जब पीड़ित का धर्म या पहचान आपसे अलग हो, तो अपने कृत्य को जायज़ ठहराना आसान हो जाता है। ये बड़े दुःख की बात है कि आज भी समाज में ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं जो अपने विरोधी विचारों और समुदायों के शारीरिक व मानसिक दमन को उपयुक्त और प्रशंसनीय समझते हैं। प्रतिस्पर्धी विचारों का दमन करना अब केवल एक राजनैतिक षड्यंत्र नहीं रह गया है, ये एक मानसिक अवसाद है, जिसका बोझ हम सब अपने कंधो पर ढो रहे हैं

और इस मानसिक अवसाद का सबसे आसान समाधान है whataboutism. मतलब “उसका क्या?” जब भी कोई विचार उठे तो कह दो- उस समय कहां थे, सिर्फ इस पर क्यूं बोल रहे हो, उसपर क्यूं नहीं? हम लोग बातों को विमर्श का हिस्सा नहीं बनाते, हम लोग बातें इसलिए उठाते हैं ताकि चल रहे विमर्श को तोड़ सके। मतलब ये कि अगर किसी कोने का प्रश्न उठाया जा रहा है तो आप कोई और मुद्दा ढूंढ निकालते हैं, और उसे पहले विमर्श के साथ संगठित नहीं करते, ऐसा करना तो आन्दोलन को मज़बूत करना होगा। आप मुद्दा उठाते हैं और कहते हैं- जो भी बात उठा रहे है वो मूर्ख है, धूर्त है, क्यूंकि उन्होंने ये वाली बात नहीं उठाई। अंत में सब विचार मर जाते है क्यूंकि सब एक दूसरे की काबिलियत और नीयत पर सवाल उठाते रह जाते है।

दुनिया का सबसे बड़ा शत्रु कोई इंसान नहीं, बल्कि एक सोच है और इस सोच का नाम है whataboutism हिन्दी में कहें तो ‘उस बात का क्या’. कोई भी मुद्दा भटकाना हो, किसी विचार को पनपने से रोकना हो, किसी आन्दोलन को कमज़ोर करना हो, किसी अभियान पर ऊंगली उठानी हो तो ये अचूक हथियार है। दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवाद वो नहीं जो लोगों को खत्म करे, उससे बड़ा आतंकवाद वो है जो सोच को खत्म करने पर तुला हो। ये whataboutism किसी अन्य विचार से सांत्वना नहीं रखते, इनको बस ये विचार तभी आते हैं जब कोई और विचार तूल पकड़ रहा हो।

वो मर रहा है, शोर मचाओ
तीस साल पहले कोई मरा था, उसका क्या?
दंगे हो रहे हैं, आवाज़ उठाओ
पिछली सरकार में भी हुए थे, उसका क्या?
औरतें सदियों से दबाई जा रही है
वो फलाना केस झूठा साबित हुआ था, उसका क्या?
शिक्षा के नाम पर क्या कबाड़ा चलाया जा रहा है
JNU में जो हो रहा है उसका क्या?
इतिहास के साथ खिलवाड़
macaulay ने जो किया उसका क्या?

सवाल उठाने की नीयत से जब सवाल उठाये जाते हैं जब सवाल एक तंज एक ताना बनकर आते हैं, जब सवाल किसी विचार को उठने से पहले ही गिराने की सोचे, तो उस सवाल का जवाब देना खुद को एक ऐसे दलदल में फंसाना है जिसमें सवाल हर ओर से फेंके जायेंगे, और जवाब सुनने में किसी की दिलचस्पी नहीं होगी। उनका मंतव्य बस इतना सा है चुप हो जाओ आवाज़ मत उठाओ, क्यूंकि सदियों पहले जब तुम पैदा भी नहीं हुए थे, तब हमारे साथ अन्याय हुआ था और तुम चुप रहे थे। चुप हो जाओ क्यूंकि अगर तुमने आवाज़ निकाली, तो हम गिनाएंगे तुमको वो सौ बातें, जिसपर तुम चुप रहे थे।

तुम किसान की बात करो, हम मज़दूर की याद दिलाएंगे, मज़दूरों की बात करो, राष्ट्र की एकता की बात करेंगे। राष्ट्र की एकता की बात करो, हम संस्कृति की बात करेंगे. संस्कृति की बात करो, हम कोई और मुद्दा उठाएंगे। और जब बात करने को जब कुछ नहीं बचेगा, तो हम सीमा पर खड़े जवानों की बात कर तुमको एंटी-नेशनल घोषित कर जाएंगे।

तो एक विनम्र अनुरोध है- अगर कोई नया मुद्दा मिले, नया सवाल मिले, तो उसे उठाने के लिए किसी और विचार को नीचे गिराना कतई आवश्यक नहीं है। दुनिया में हर कदम पर अत्याचार है,अन्याय है, फसाद है, निर्भर इसपर करता है कि आपका मकसद क्या है। जो आवाज़ उठी है, अगर वो इस मकड़जाल में फंस कर खत्म हो जाएगी तो और कुछ नहीं, इंसानियत शर्मसार हो जाएगी और तब आपको इंसानियत के चिथड़ो पर राजनीति करने को भी नहीं मिलेगा।

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