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आप क्या हैं? इसका फैसला सुनने के लिए दूसरों का मुंह ताकना छोड़ दें

पिछले कुछ समय से मैं यह अवलोकन कर रहा था कि किसी नये या अंजान व्यक्ति से बातचीत के दौरान वह व्यक्ति आपके बारे में क्या जानना चाहता है? मैंने यह पाया कि हर नया व्यक्ति आपके बारे में सबसे पहले जानना चाहता है कि आप क्या हैं? यदि आप ‘कुछ’  हैं तो वह आप में रूचि लेता है और चर्चा को उसी दिशा में मोड़ देता है। यदि उस नये व्यक्ति की ‘कुछ’ की परिभाषा में आप महत्वपूर्ण नहीं है तो आप चर्चा के बाहर हो जाते हैं।

असल में  ‘कुछ’ होना या ना होना सापेक्षिक है। प्रथम दृष्टया लगता है कि यह आपको परिभाषित कर रहा है लेकिन सामने वाला इसके द्वारा आप में छुपी उस ताकत को लक्ष्य कर रहा होता है जिसे वह अपनी आवश्यकतानुसार प्रयोग कर सके। आपकी ताकतवर की स्थिति श्रेष्ठतम नहीं होती है। यह आप भी जानते हैं और आपके अलावा अन्य भी। इसीलिए हम श्रेष्ठ होने के भ्रम को बनाये रखने के लिए ‘ताकतवर’ स्थिति की खोज करते रहते हैं। अपने आसपास के लोगों को अपनी श्रेष्ठता का प्रमाण देते रहते हैं। इसके लिए नाना प्रकार के प्रलोभनों से ताकत का डंका पीटते रहते हैं। वैसे तो ताकत की श्रेष्ठता का प्रमाण विनम्रता और परहित में है लेकिन ऐसा कम ही होता है।

प्रायः अपनी ताकत की सिद्धि के लिए व्यक्ति दूसरों से खुद को अलग करने का यत्न करता है। यहां दूसरों से अलग होने का आशय आपकी वैयक्तिक क्षमताओं का प्रस्फुटन और विविधता के रूप में उसकी सार्वजनिक स्वीकृति नहीं है। बल्कि इसका आशय एक ऐसी श्रेष्ठता से है जहां आप दूसरों से ऊंची पायदान पर खड़े हों। विडंबना यह है कि ताकतवर की इस हैसियत के नकारात्मक प्रयोग को ज्यादा स्वीकृति मिल चुकी है। इसका अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि किसी के ताकतवर होने का अर्थ है कि वह आपका कितना नुकसान कर सकता है। उससे कितने लोग भयाक्रांत हैं। इस भयाक्रांत स्थिति से बचने के लिए अन्य चाटुकारिता की चाशनी का प्रयोग करते हैं। यह पक्ष जितना सत्य है उतना ही यह भी मौजूं है कि ताकत के बिना उस व्यक्ति की ‘औकात’ को भी अन्य अच्छे से जानते हैं।

आजकल पद और ताकत एक दूसरे के पर्यायवाची हो चुके हैं। और इन्हें हासिल करने की इच्छा ज़्यादातर लोगों के जीवन का लक्ष्य बन चुकी है। ऐसा माना जाता है कि सत्ता का संस्थागत लोकतांत्रिक वितरण कल्याण की अवधारणा को कार्य रूप देगा लेकिन यह पहले वाले अर्थ में ही अधिक प्रयोग हो रहा है। इसका एक कारण यह समझ में आता है कि इसे संचालित करने वाले लोग बचपन से डाली गयी आदत ‘ताकत की खोज और उपयोग’ से बंधे रहते हैं। वे ताउम्र कुछ बनने की चाह में जीते रहते हैं और ‘कुछ’ होने के छद्म अहंकार को सिद्ध करने के लिए ऐसे बांध बन जाते हैं जो जल के स्वाभाविक प्रवाह को रोककर उसकी संभाव्य ऊर्जा का अपनी इच्छानुसार प्रयोग करना चाहते हैं। यह चाह हमें ऐसे फंसाये रहती है कि हम तय नहीं कर पाते कि वास्तव में हम क्या बनना चाह रहे हैं या बस खुद के अस्तित्व को दूसरों के लिए सिद्ध करने के लिए, उनके द्वारा स्वीकारे मॉडल में ढलना चाहते हैं।

बचपन में हर कोई पूछता है कि बड़े होकर क्या बनोगे? बड़े होने पर सवाल जवाब के क्रम में सवाल आता है कि आप क्या करते हैं? आप कौन हैं? इसका निर्धारण इस बात से होता है कि आप क्या करते हैं। कई बार मन में आता है कि ऐसे सवालों का उत्तर दे दूं कि मैं कुछ नहीं करता हूं। क्या यह कह देने से कि मैं कुछ नहीं करता हूं मेरा अस्तित्व शून्य हो जाएगा। चूंकि मेरी भौतिक उपस्थिति और क्रियाओं को इग्नोर नहीं कर सकते इसलिए मेरा अस्तित्व तो बना रहेगा। हां यह जरूर है कि सामने वाले की दृष्टि से उसमें लघुता आ जाएगी। यदि दूसरों की दृष्टि में लघुता आपको कमजोर करने लगे तो सतर्क होने की जरूरत है। इस स्थिति में यदि आप प्रतिक्रियात्मक होते हैं तो एक छद्म युद्ध का हिस्सा बन जाएगें। मान लीजिए कि आपने लघुता का प्रतिकार कर लिया तो कोई नया व्यक्ति नए तरीके से आपकी लघुता को परिभाषित करेगा। तो लघुता का आनंद लेने में कोई हर्ज है क्या?

लघु मानव के इसी आनंदभाव ने लोक में राम की प्रतिष्ठा की। अपार शक्ति के स्रोत होने के बावजूद वे कभी प्रतिक्रियात्मक नहीं हुए। वे ताकत या कह लें ‘कुछ’ होने के ऐसे मॉडल हैं जो सत्ता की दृष्टि से कुछ भी नहीं थे। एक निपट संन्यासी जो निर्बलों के बल थे। परहित के लिए समर्पित थे। इसी तरह का एक अन्य उदाहरण बुद्ध भी थे। क्या बुद्ध ने अपने अस्तित्व सिद्धि के लिए कोई मारममार मचायी थी? वे तो सत्ता और ताकत के रास्ते को छोड़कर प्रेम और अहिंसा का उपदेश देते फिर रहे थे। उनका उपदेशों और व्यवहार में खुद को ऊंचे पायदान पर खड़े करने का लक्ष्य न होकर बल्कि अपने को लोक में समाहित करने का उत्साह था।

क्या महात्मा गांधी ने कभी अपनी वैचारिक और लोकशक्ति से कोई चमत्कार दिखाने की कोशिश की? वे तो अपनी आत्मशक्ति पर कायम थे। अपने जैसे ही अन्य लोगों की आत्म शक्ति को जाग्रत कर रहे थे। ऐसा करते हुए जब चमत्कार हो गया तब लोगों ने उसे ताकत का नाम दे दिया। निहितार्थ है कि ताकत की खोज और सिद्धि आपको वैयक्तिक दृष्टि से कायर बना देती है। इस कायरता को छुपाने के लिए ताकत के आवरण की खोज उद्विग्न करती है। अंततः यह उद्विग्नता दूसरों को नीचा दिखाकर थोड़ी देर के लिए शांत हो सकती है लेकिन समाप्त नहीं। ऐसे उद्विग्न और काहिल लोगों के कई उदाहरण आप अपने चारों तरफ खोज सकते हैं। ये लोग अपने पूरे दिन का आकलन ही इस तथ्य पर करते हैं कि उन्होंने कितने लोगों को रोका? वे अपनी रोज़मर्रा की बातचीत में लगातार अपना बखान करते हुए बताते हैं कि वे सामने वाले का क्या-क्या और किस-किस तरह से नुकसान कर सकते हैं।

ये लोग सुनिश्चित करते हैं कि वे अपने पद और औकात के अनुसार आप के कार्य में यथासंभव बाधा डाल दें। अक्सर हम ऐसे लोगों से घबरा जाते हैं जबकि हमें इनका एहसान मानना चाहिए। क्यों? क्योंकि ‘कुछ’ करने की चुनौती ‘कुछ’ में नहीं निहित है बल्कि ऐसे लोगों से पार पाने में निहित है जो स्वभावतः आपको कुछ करने से रोकेंगे। ऐसे व्यक्तियों से जो अपनी ताकत से आप को रोकने की कोशिश कर रहे होते हैं, से पार पाने का सरल तरीका है उनका सामना अधिक ताकतवर से करा दिया जाए।

एक दूसरा तरीका है कि आप अपनी पूरी ताकत से इनका प्रतिरोध करें। इन दोनों प्रयासों में आप को भी अशांत और उद्विग्न होना पड़ेगा। इन रास्तों पर चलने का एक डर यह है कि कहीं आप भी ऐसे ही सत्ता-कामी न बन जाए! इन सबके उलट यदि आप ने ‘कुछ’ न होने में सुख खोज लिया तो आप सुखी होंगे और आपके विरोधी भी सुखी हो जाएगें। आप व्यर्थ के अन्तरा वैयक्तिक संघर्ष से बच जाएगें। मानव होने की अपनी विशेषता का दूसरा पक्ष पहचानिए। अपनी ऊर्जा को मूर्खों या दुष्ट प्रकृति वालों से संघर्ष में नष्ट मत कीजिए। किसी ऐसी धारा को खोजिए जो आपकी रचनात्मकता को पोषित करें और स्वान्तःसुखाय हो। इसके लिए आपको ‘कुछ’ होने की लालसा त्यागनी होगी।

आप क्या हैं? इसका फैसला सुनने के लिए दूसरों का मुंह ताकने का लोभ छोड़ना होगा। आप क्या करना चाहते हैं? इसे तय करके कीजिए। ध्यान रखने कि आवश्यकता है कि अनुकरण और प्रतिक्रियावादिता उद्विग्न करती है संतुष्ट नहीं। यह आपके होने को सत्ता के सापेक्ष सिद्ध करती है लेकिन आपके होने का आपके लिए क्या अर्थ है इससे दूर कर देती है।

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