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बोकारो जंक्शन पर चिथड़े कपड़ों में तन ढ़ककर रात गुजारने वाले सन्नी की मार्मिक कहानी

सन्नी कुमार

बोकारो स्टेशन पर बदहाली की अवस्था में सन्नी कुमार

होलिका दहन वाले रोज़ रात के करीब 10 बजे मैं झारखंड के बोकारो जंक्शन में रांची-दुमका इंटरसिटी एक्सप्रेस ट्रेन का इंतज़ार कर रहा था। स्टेशन में जगह-जगह पर कुड़ेदान, वेपर लैंप और सुरक्षाकर्मियों की अलग-अलग टोलियां इस बात का सबुत पेश कर रहे थे कि विकास सर चढ़ कर बोल रहा है। साथ ही साथ बिहार और झारखंड के अलग-अलग इलाकों से यहां पढ़ने आए बच्चे अपने पेरेन्ट्स के साथ होली की छुट्टी में घर जाने के लिए चहक भी रहे थे।

मैं ये सब ऑब्ज़र्व कर ही रहा था कि इतने ही में लगभग 10 वर्ष के एक बालक ने बदन पर चिथड़े कपड़े और हल्की सी ठंड में ठिठुरते हुए चुपचाप अपना हाथ फैला दिया। यूं तो ट्रेन में सफर करने के दौरान या जिन्दगी के किसी मोड़ पर ऐसे बच्चे, महिलाएं या बुजूर्गों से हमारा वास्ता हो ही जाता है, मगर पता नहीं क्यों उसकी आंखों में मुझे एक अजीब सी घबराहट दिखी।

बोकारो रेलवे स्टेशन पर चिथड़े कपड़ों में रात गुजारने वाला सन्नी

दिल किया कि कुछ देर उससे बातें करूं, शायद कुछ कहना चाह रहा था वो। मैने अपनी जेब से कुछ छुट्टे पैसे निकाले और उसे देते हुए कहा कि बाबु क्या नाम है तुम्हारा?

वो दबे ज़ुबान में कहता है – सन्नी, सन्नी है मेरा नाम। जैसे ही उसने अपना नाम बताया तब मुझे लगा कि इस लड़के से और भी बातें करनी चाहिए। बेशक उससे बात करने के पश्चात उसकी जिन्दगी की बेहतरी के लिए मेरे द्वारा कोई हल न भी निकल पाए, लेकिन अपनी लेखनी के ज़रीए कम से कम लोगों तक सन्नी की मार्मिक कहानी पहुंचा तो सकूं ताकि जब रियल लाइफ में किसी ऐसे ही बच्चे से हमारी पुन: मुलाकात हो तो महज़ एक या दो रूपये का सिक्का देने तक मामला सीमित न रह जाए बल्कि हम ऐसी नौबत आने ही न दें कि देश के भविष्य को भीख मांगनी पड़े।

हमने जो भी चीजें सनी से पूछी उसने बड़े ही आत्मविश्वास के साथ उन सवालों का जवाब दिया। सनी के तन पर फटे हुए कपड़े ज़रूर थे लेकिन दिल में कुछ कर गुज़रने की चाहत भी थी जिन्हे बुरी हालातों ने जकड़ कर रखा था। मेरे ज़हन में ये तमाम सवाल चल ही रहे थे कि मैनें एक बार फिर सन्नी से बातचीत शुरू की।

मैं – सन्नी तुम्हारा घर कहां है? कहां रहते हो तुम?

सन्नी – मेरा कोई घर नहीं है। मैं दिन-रात यहीं स्टेशन पर इधर-उधर रहता हूं।

मैं – अच्छा, मां का नाम क्या है सन्नी ?

सन्नी – राधा, लेकिन वो नहीं है।

मैं – ओह, माफ करना दोस्त, अच्छा क्या हुआ था उन्हें ?

सन्नी – वो बीमार थीं, पापा के पास पैसे नहीं थे कि किसी अच्छी जगह मम्मी की इलाज़ कराई जाए। और इस चक्कर में दो साल पहले उनकी मौत हो गई।

मैं – पापा क्या करते हैं दोस्त ?

सन्नी – पापा कचड़ा चुनते हैं।

मैं – अच्छा, कितने भाई-बहन हो तुम लोग ?

सन्नी – बहन नहीं हैं। तीन भाई थे हम। एक मेले में खो गया। दो अभी ज़िंदा हैं।

मैं – जो मेले में खो गया उसका नाम क्या है ?

सन्नी – घोंचू, घोंचू है उसका नाम।

मैं – एक और भाई है न, वो क्या करता है और उसका नाम क्या है?

सन्नी – समीर, समीर है उसका नाम और वो भी मेरी ही तरह इधर-उधर से भीख मांगता है और कचड़ा चुनता है।

मैं- अच्छा सन्नी, तुम जो लोगों से पैसे मांगते हो। क्या सारी उम्र ऐसा ही करोगे। सरकारी स्कूल में पढ़कर बड़ा आदमी बनने के सपने नहीं देखते?

सन्नी – साहब, अब नहीं होगी पढ़ाई। बड़ा होकर कहीं काम पकड़ लूंगा।

मैं – अच्छा सन्नी, जब तुम्हारी मां का देहान्त हुआ तब तुम्हारी उम्र कितनी थी?

सन्नी – मैं आठ साल का था तब। मां मुझे बहुत प्यार करती थी। कहती थीं कि मैं कचड़े चुन कर और लोगों से पैसे मांग कर तुमको पढ़ाउंगी। लेकिन मर गई।

मैं – अच्छा सनी, तुम जो रात को यहां सोते हो कभी कोई तुम्हे परेशान भी करता है?

सन्नी – नहीं साहब, बस पुलिस वाले कभी-कभी भगा देते हैं यहां से मुझे। तब कंबल लेकर भागना पड़ता है। नहीं तो वे दौड़ा कर मारते हैं।

मैं – सन्नी, तुम बोकारो के ही हो, या कहीं और से आए हो?

सन्नी – यहीं रहता हूं मैं और मेरा जन्म भी यहीं हुआ है। वो जो सीढ़ी देख रहे हो न साहब, मैं वहीं पर पैदा हुआ हूं।

मैं – तुमको किसने कहा कि तुम वहां पैदा हुए हो?

सन्नी – मां बताया करती थीं। मेरे और दो भाई भी सीढ़ी के पास ही पैदा हुए थे।

मैं – अच्छा सनी ये बताओ, तुम्हारे और कोई रिश्तेदार नहीं है इस शहर में क्या?

सन्नी – हैं न साहब, मेरे मामा जी.

मैं – तो तुम उनके घर में क्यों नहीं रहते?

सन्नी – उनकी झोपड़ी टुटी-फूटी है और वो भी कूड़ा ही चुनते हैं।

अब मुझे लगने लगा कि सनी शायद बोर हो रहा है। क्योंकि वो लगभग 7 मिनट तक मुझसे बात करता रहा और लगातार इधर-उधर देख रहा था। ये सच है कि इतने देर में नहीं भी तो कम से कम 10 – 12 रूपये वो लोगो से मांग कर कमा ही लेता। मुझे खुद पर शर्म भी आ रही थी कि एक कहानी लिखने के लिए मैनें बेचारे का 7 मिनट ज़ाया कर दिया। लेकिन जितनी शर्म मुझे खुद पर आ रही थी उससे कहीं ज़्यादा इस देश की व्यवस्था के बारे में सोच कर मैं दुखी हो रहा था।

एक ऐसी व्यवस्था जो 10 वर्ष के सनी को दो वक्त के भोजन का जुगाड़ करा पाने में असफल है। एक ऐसी व्यवस्था जहां सनी की मां अपने बच्चों को बड़ा आदमी बनाने का ख़्वाब देखते-देखते बीमारियों की जकड़न में दम तोड़ देती है और उसका एक बेटा मेले की भीड़ में बिछड़ जाता है, और एक ऐसा पिता जिसकी आंखों के सामने उसके दो बच्चे भीख मांगते हैं और वह भी लाचारी में कचड़े उठाने को विवश है।

ये हाल सिर्फ एक सन्नी का नहीं है, बल्कि देश के अलग-अलग मानचित्रों में ऐसे बच्चे भाड़ी संख्यां में मौजूद हैं जो कलम के बजाए अपने हाथ में कटोरी लिए घुमते हैं। हालात ने भले ही उनके अच्छे दिनों के सारे द्वार बंद कर दिए हैं, लेकिन हम और आप यदि उसकी कटोरी में एक और दो रूपये डाल कर ये सोचते रहेंगे कि भगवान हमारा भला करेगा तो यक़ीन मानिए आप उस बच्चे के सबसे बड़े दुश्मन हैं। क्योंकि इससे उस बच्चे के अंदर कभी ये समझ विकसित होगी ही नहीं कि ज़िन्दगी में पढ़ लिखकर एक सफल इंसान भी बना जा सकता है।

इसमे कोई दो राय नहीं है कि ख़राब माली हालत से जूझ रहे इन भीख मांगने वाले बच्चों के लिए बहुत मुश्किल होता है आदर्शवादी बातों का पालन करना। लेकिन आज ज़रूरत है बाल अधिकारों और ग़रीबी उन्मूलन की दिशा में कार्य कर रहे तमाम सामाजिक संगठन और सरकारें एकजुट होकर एक सकारात्मक पहल के ज़रीए सड़कों पर भीख मांगने वाले सन्नी जैसे ही बच्चों की जिंदगियों में बेहतरी लाने के साथ-साथ उनके हौसलों को भी नई उड़ान प्रदान करें।

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