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“भला अपनी माँ के साथ बर्फीले पहाड़ों में घूमने कौन जाता है!”

एक बड़ा ही फेमस डायलॉग है जिसे मां-बाप अपने बच्चों को खूब सुनाते हैं, “तुम्हारे पैरों में तो जैसे पर ही लग गए हैं, जब देखो तब घूमना ही होता है।”

लेकिन, मैं यहां ये डायलॉग अपनी मां के लिए इस्तेमाल कर रही हूं। जी हां, कतई घुमक्कड़ किस्म की महिला हैं मेरी मां। बस एक बार बोल दो, “चल रही हो घूमने?” फिर क्या, बाकी के सारे प्लान साइड रखकर पल भर में ही, मन ही मन अपना बैग बांध भी चुकी होती हैं।

पिछले साल भी कुछ ऐसा ही हुआ। जून की गर्मी में मां का दिल्ली आना हुआ था। अब जून की गर्मी में दिल्ली में कहीं घूमने का तो सवाल ही नहीं उठता है। लेकिन, यहां पर मां की इज्ज़त का सवाल जो था! उन्हें अपनी दोस्तों को अपनी घूमने या कहिए सैर-सपाटे वाली तस्वीरें दिखाते हुए इतराना भी तो था। खैर, मां की इज्ज़त के सवाल के बहाने ही हमने मनाली का प्लान बना लिया।

वैसे, घुमक्कड़ किस्म की होने के बावजूद मां को ज़्यादा घूमने का मौका नहीं मिला। जी हां, यहां भी वही मध्यम परिवार वाली स्टोरी है: ‘घूमने के लिए पैसे कहां से आएंगे, बच्चों की पढ़ाई ज़्यादा ज़रूरी है’ जैसी तमाम बातें। हमारे लिए फैमिली ट्रिप या कहीं बाहर घूमने का मतलब बस किसी रिश्तेदार के यहां चले जाना होता था।

हमारी फैमिली ट्रिप पहली बार पिछले साल ही हुई थी। लेकिन, मैं यहां उसकी बात करके अपना मूड खराब नहीं करूंगी। अरे भई, मूड खराब इसलिए, क्योंकि मैं उस फैमिली ट्रिप से नदारद जो थी। तो कुल मिलाकर बात ये हुई कि मां के साथ मनाली वाला ट्रिप मेरे जीवन का पहला ट्रिप था। और, पहाड़ों पर मां के जीवन का दूसरा ट्रिप। इसके पहले मां बचपन में अपने परिवार के साथ काठमांडू की यात्रा पर गई थीं।

मनाली जाने के पूरे रास्ते मां अपनी उस काठमांडू की यात्रा की बातें करती रहीं। शायद हमारे आस-पास बैठे लोगों को भी मेरी मां के बचपन की उस यात्रा की पूरी कहानी याद हो गई होगी।

मैंने कई दफा मां से कहा भी, “बस करो मां, समझ गए तुम नेपाल गई थी।” लेकिन शायद मैं उस वक्त मां की उस खुशी को समझ भी नहीं सकती। शायद मां के लिए वो पल दोबारा से अपना बचपन जीने जैसा था। और, मां जिन बारीकियों के साथ अपनी उस यात्रा के बारे में बता रही थीं, उससे साफ था कि मां उस पल को आज तक भूल नहीं पाईं क्योंकि उन्हें उस तरह का पल वापस जीने का फिर दूसरा कोई मौका मिला ही नहीं।

मुझे और मेरी मां दोनों को ही एसी बस से सांस-संबंधी दिक्कत होने की वजह से हमने दिल्ली से मनाली के लिए सामान्य बस को ही चुना। लंबी यात्रा होने की वजह से एक वक्त के बाद मुझे ज़ोरदार नींद आने लगी। लेकिन, मेरी मां की आंखों से नींद जैसे अपना बोरिया बिस्तर लेकर भाग ही चुकी थी। मां, पूरी एक्साइटेड थीं बस की खिड़की से पहाड़ों का नज़ारा देखने के लिए। साथ ही मुझे भी बार-बार ठोककर जगाते हुए कहती, “अरे बेटा, तुम सब मिस कर दोगी।”

हम दोनों ही नौसिखिया ट्रैवलर ! हमें इतना भी नहीं पता था कि जून का वक्त मनाली में सबसे भीड़ वाला समय होता है। मैंने कई दोस्तों से सुना था कि वो पहले से होटल बुक नहीं करवाते, डेस्टीनेशन पर आसानी से उन्हें होटल मिल जाता है। बस से उतरते समय मां और मैंने ख्याली पुलाव बनाना शुरू कर दिया। “मां देखो, इस तरफ वाला नज़ारा बहुत शानदार है, हम इधर फेस वाला ही होटल लेंगे।” “हां बेटा, मज़ेदार रहेगा।”

लेकिन, कुछ ही मिनटों में हमें अपनी बदनसीबी का अहसास हो गया। कोई अच्छा व्यू वाला होटल तो दूर ठीक-ठाक रेंज में कोई ढंग का होटल ही मिल जाए वही काफी था। वो तो धन्य हो हिमाचल टूरिज़्म का। करते कराते हमें हिमाचल टूरिज़म की पूरी एक डॉरमेट्री मिल गई। अब खिड़की के बाहर नदी थी, सामने पहाड़ और उस डॉरमेट्री के अंदर मां और मेरी ढेर सारी बातें।

हालांकि हमें यह पता नहीं था कि घूमना कहां है ? लेकिन कहते हैं ना माओं के कान बहुत तेज़ होते हैं। तो डॉरमेट्री बुक करते समय ही मां के कानों में ‘बर्फ’ जैसी कोई बात सुनाई दी। मां ने मेरी तरफ ठीक वैसे ही देखा जैसे कोई बच्चा अपनी किसी खास चीज़ को पाने की लालसा से देखता है। मुझे नहीं पता था आगे क्या होने वाला है और हम किस तरह की जगह पर जाने वाले हैं ? बस, हमने बिना सोचे बुक कर ली रोहतांग की बस और चल दिए मां और बेटी बर्फिली यात्रा पर।

हमारी बस में कोई कपल था, कोई पूरी फैमिली, तो कोई दोस्तों का झुंड। अकेले मां-बेटी की जोड़ी हम ही थे, इस वजह से हम कई लोगों की नज़रों में भी आ गए थे। एक अंकल ने पूछा भी, ‘अरे बेटा, तुम अपनी मां को घुमाने लाई हो या मां तुमको घुमाने ?’ मां की फोटो खिंचवाने की बच्चों-सी उत्सुकता, वो भी पूरे स्टाइल के साथ, बस के लोगों को सरप्राइज़ भी कर रही थी। मेरी मां के चेहरे पर एक अलग रौनक थी जो इसके पहले मां के घर और स्कूल के रोज़ाना के कामों मेंं हमें कभी दिखी ही नहीं।

हम रोहतांग पास पहुंच चुके थे। हमारे चारों तरफ बर्फ ही बर्फ। मेरे लिए ये नज़ारा किसी सपने से कम नहीं था। मेरा मन कुछ उसी तरह फुदक रहा था जैसे किसी को कोई बिछड़ा प्रेमी मिल गया हो। मैं उस वक्त अपनी मां के साथ एक अलग ही दुनिया में थी।

मुझे नहीं पता था कि दूर से बर्फ देखने में जितना अच्छा लगता है, उसके पास जाने पर अपनी औकात सामने आने वाली है। मेरे लिए एक कदम भी बर्फ पर चलना किसी मिशन पर जाने से कम नहीं था। लेकिन मेरी मां मुझे बार-बार फोर्स कर रही थीं, “जाओ बेटा स्लाइड करो।” और मैं डरपोक लड़की कोई ना कोई बहाना मारकर उनकी बात टालने की कोशिश में लगी थी। मुझे ऐसा लगा कि जब मुझे इस बर्फ में चलने में इतनी दिक्कत हो रही तो मेरी मां के लिए तो बहुत ही मुश्किल हो रही होगी। इस वजह से मैंने एक डंडा ढ़ूढकर मांं को पकड़ा दिया।

अचानक मुझे बस पर कुछ सामान रखने जाना पड़ा। मैंने जाते हुए मां से कहा, “तुम इधर ही रहना, मैं तुरंत आ रही हूं।” वापस आने पर देखती हूं, मां गायब है। आस-पास कहीं नज़र नहीं आ रही थीं। कुछ समझ नहीं आया कि अचानक कहां जा सकती हैं मां। सबसे ज़्यादा डर इस बात का था कि घर पर अभी किसी को पता तक नहीं था कि हमलोग रोहतांग पास आए हुए हैं। तुरंत ही सारी खुशी, सारा एक्साइटमेंट जैसे एक खौफनाक डर में बदल गया। दूर-दूर तक मां का कुछ पता नहीं था। अभी किसी से कुछ पूछने ही वाली थी कि ऊपर से स्लाइड करते हुए मेरे नज़दीक आती हुईं मेरी मां नज़र आईं।

एक बच्चा पहली बार जब चलना सीखता है उस वक्त उसके चेहरे पर जो खुशी होती है, मेरी मां की आंखों में भी उस वक्त कुछ वैसी ही खुशी झलक रही थी। क्योंकि वो इतने सालों से चल तो रही थीं, लेकिन कई दुश्वारियों के बोझ की गठरियों के साथ। उनके चलने में सौ-सौ भार था ! लेकिन आज वो सारी गठरियां बर्फ की चादर में बिखर गई थींं। उस वक्त मेरी मां उम्र की किसी सीमा में नहीं बंधना चाहती थीं। वो सारी सीमाओं को तोड़कर बस उस पल को एन्जॉय करना चाहती थीं। वो ना सिर्फ अपनी ही रौ में आरी-तिरछी स्लाइड करतीं जा रही थीं बल्कि उनका स्लाइड करते हुए हर पल का फोटो खिंचवाने का उनका डिंमाड भी जारी था। बर्फ में अलग-अलग पोज़ देकर जितनी उन्होंने फोटो खिंचवाई शायद उस यात्रा में मेरी फोटो भी उतनी नहीं होगी और स्टाइल में तो कतई नहीं। उस वक्त कई लोगों की नज़रे मेरी मां की ओर थीं और उन नज़रों को मेरी मां की ओर उठा देखकर घमंड से मेरी छाती चौड़ी हुई जा रही थी।

बहुतों को ये किस्सा शायद कुछ खास नहीं लगे। लेकिन, कुछ लोगों के लिए खास हो भी सकता है। उन्हें, जो एक ऐसे मध्यम वर्गीय परिवार से ताल्लुक रखते हैं, जहां बच्चोंं की पढ़ाई और रोज़ाना का जीवन ही मुश्किल से चलता है, वहां फैमिली ट्रिप के बारे में सोचना शायद ही हो पाता हो। और, अगर मां-बाप के कहीं घूमने की बात भी हो तो सबसे पहले किसी तीर्थ-स्थान का नाम ही लिस्ट में आता है।

हमने अपनी मां के अंदर हमेशा से एक बच्चा देखा है, तमाम विपरीत परिस्थितयों में भी खुद को कैसे खुश रखना है, वो बखूबी जानती हैं। और इस ट्रिप में उनके अंदर का वो बच्चा सारे बंधनों को तोड़कर बाहर खेलता हुअा नज़र आया। मेरे कई दोस्तों ने कहा, “मां के साथ पहाड़ों का ट्रिप कौन करता है ?” मैं उन दोस्तों से बस इतना ही कहूंगी, कभी अपने बूढ़े मां-पापा को पहाड़ों पर ले जाकर तो देखो इसका जवाब खुद ही मिल जाएगा। वैसे, मैं बूढ़ा शब्द भी वापस लेती हूं क्योंकि मेरी इस कहानी में मेरी 59 साल की मां के आगे उनकी 26 साल की बेटी भी फीकी नज़र आ रही थी।

मां इस गर्मी में दोबारा दिल्ली मेरे पास आने वाली हैं और मैं मां के साथ पहाड़ों की एक और रोमांचक यात्रा पर निकल पड़ने का खाका अभी से तैयार करने में लग गई हूं। क्योंकि मैं मानती हूं कि उम्र के इस पड़ाव पर अब उनकी जगह सिर्फ घर की रसोई या हमारी परवरिश की चिंता में अपनी स्कूल की नौकरी में सीमित नहीं रह गई है। उनकी यह सबसे छुटकी बेटी भी अब कुछ हद तक उस मुकाम पर पहुंच ही गई है कि वह अपनी प्यारी कामकाजी मां के जीवन में खुशियों के उन रंगों को भर सकने का टास्क पूरा कर सके जो अब तक उनसे अनछुए रह गए थे। आप भी एक कोशिश कीजिए। फिर देखिए कि अपने मां-पापा के अंदर के बच्चे को बाहर निकालना किसी पहाड़ से अपूर्व आनंद से अपने को भींगो लेने से ज़रा भी कम नहीं है ! और, ये पहाड़ों पर घुमाई वाला आइडिया तो पक्का काम करने वाला है।

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