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दलित समुदाय के लिए डॉ. भीमराव अम्बेडकर क्यों हैं खास

डॉ. बाबा साहब भीमराव आंबेडकर भारतीय इतिहास के प्रमुख व्यक्तियों में से एक थे। जिन्होंने उपेक्षितों, शोषितों, दलितों, पिछड़ों, पीड़ितों  में सम्मानपूर्वक जीने की ललक जगाई। हज़ारों सालों से हो रहे शोषण और दमन के कारण, मानसिक रूप से मृत पड़ी जमात के मन में अपने अधिकारों के प्रति जो बिगुल फूका था, वह कारवां बनकर निरंतर बढ़ता जा रहा है।

भारत देश को आज़ादी प्राप्त होने के बाद उन्होंने कहा था, “हम ऐसे समय में प्रवेश कर रहें हैं, जिसमें हम राजनैतिक रूप से तो बराबर हैं, लेकिन सामाजिक रूप से बराबर नहीं है।” उनकी यह बात आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी उस समय थी। जातिवादी ज़हर ने हमारे भारतीय समाज को बुरी तरह जकड़ लिया है। इस कारण दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों पर आए दिन अत्याचार होता रहता है, जिसके कारण एक बड़ी जनसंख्या ज़िल्लत की ज़िंदगी जीने के लिए अभिसप्त है।

जाति उन्मूलन के लिए प्रयास

डॉ. बाबा साहब भीमराव आंबेडकर ने भारतीय समाज-व्यवस्था का गहन अध्ययन किया और उन्होंने पाया कि भारत को कमज़ोर बनाने, इसकी विकास की धारा अवरुद्ध करने तथा सामाजिक सौहार्द्र में सबसे बड़ी बाधा भेदभावपूर्ण जाति-व्यवस्था ही है। उनके समय देश में जातिप्रथा, जिसका सबसे अमानवीय रूप छुआछूत  था, आज से कहीं अधिक विद्यमान थी। आज आज़ादी के 70 साल बाद भी, वह कुछ पुराने रूप में और कुछ रूप बदलकर हमारे समाज में मौजूद हैं। जाति-व्यवस्था के रूप में, भारतीय समाज में शोषण को  सामाजिक और धार्मिक मान्यता प्राप्त रही है, जिसे बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने भी स्वयं भी भोगा था। इसलिए उन्होंने इस अमानवीय व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई अपने जीवन भर जारी रखी।

भारतीय जाति व्यवस्था को समझने और उसके उन्मूलन के  लिए उनकी पुस्तकें अछूत कौन और कैसे?, शूद्रों की खोज, काँग्रेस और गांधी ने अछूतों के लिए क्या किया?, जातिभेद का बीजनाश आदि प्रमुख हैं। इन पुस्तकों में उन्होंने बताया कि जातिभेद की नींव में धार्मिक ग्रंथ हैं, जिनको सामाजिक मान्यता प्राप्त है। सामाजिक क्रांति के उद्देश्य से ही उन्होंने धार्मिक-सामाजिक कानून की किताब मनुस्मृति को 25 दिसम्बर, 1927 को अपने समर्थकों के साथ मिलकर दहन किया। उन्होंने कहा मनुस्मृति अस्पृश्यों और महिलाओं की सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक दासता का एक मुख्य कारण है। यह घटना भारतीय इतिहास में एक क्रान्तिकारी महत्व रखती है।

 शिक्षित बनो, संगठित बनो और संघर्ष करो की प्रेरणा

बाबासाहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने भारतीय समाज के शोषितों, पीड़ितों, दलितों और पिछड़ों को आह्वान करते हुए कहा “शिक्षित बनो! संगठित बनो! संघर्ष करो!” उन्होंने सिर्फ कहा ही नहीं बल्कि इसे अंजाम देने के लिए संस्थाओं और संगठनों का भी निर्माण किया। उनके द्वारा स्थापित संगठन और संस्थाएं हैं – सन् 1924 में बनी बहिष्कृत हितकारिणी सभा, सन् 1927 में समता सैनिक दल, सन् 1928 में डिप्रेस्ड क्लासेस एजुकेशन सोसायटी, सन् 1936 में स्वतंत्र लेबर पार्टी, सन् 1942 में अनुसूचित-जाति फेडरेशन, भारतीय बौद्ध महासभा आदि। इन संगठनों के माध्यम से उन्होंने लोगों को शिक्षित और संगठित करने का महती काम किया। उन्होंने पीपुल्स एजुकेशनल सोसाइटी के अंतर्गत 1946 में, बंबई में सिद्धार्थ महाविद्यालय और 1950 में औरंगाबाद में मिलिंद महाविद्यालय की स्थापना की। इसके साथ ही 1953 में,  बंबई में सिद्धार्थ वाणिज्य और अर्थशास्त्र महाविद्यालय एवं बंबई में, सिद्धार्थ विधि महाविद्यालय की स्थापना की। शिक्षा से सालों तक उपेक्षित समुदाय को शिक्षा का महत्त्व बताते हुए उन्होंने कहा, “शिक्षा वह शेरनी का दूध है जिसे जो पिएगा वह दहाड़ेगा”

सामाजिक आंदोलन

समाज सुधारक रायबहादुर सीताराम केशव के प्रयासों से 4 अगस्त 1923 को बंबई विधान परिषद में एक प्रस्ताव पास हुआ, जिसके अनुसार अछूतों, दलितों, पिछड़ों को सार्वजानिक जगहों का उपयोग करने की उन्हें अनुमति मिल गई। कानूनी अधिकार मिलने के बावजूद भी तथाकथित उच्च कहलाने वाली कुछ जातियों के लोगों ने, इसे स्वीकार नहीं किया। महाड़ नामक बस्ती में चवदार तालाब के पानी का उपयोग अछूतों ने भी करना चाहा, लेकिन महाड़ बस्ती के सवर्ण इसके विरुद्ध थे। महाड़ के दलित कार्यकर्ताओं ने बाबा साहब को इस प्रकार के व्यवहार के बारे में बताया। 19-20 मार्च 1927 में बाबा साहब के नेतृत्व में दलितों ने इसके विरुद्ध आंदोलन प्रारंभ किया। बड़ी संख्या में सामाजिक न्याय की आस में लोग इकट्ठा हुए और तालाब के पानी को पी लिया। जिस पानी को कुत्ते बिल्ली पी सकते थे, जानवर उसमें नहा सकते थे, उस पानी को दलित छू भी नहीं सकते थे। मानवीय गरिमा का इतना पतन! इस कारण बाबा साहब बड़े चिंतित और दुखी हुए। उनके दुखित मन के तूफान ने उन्हें 26 जून 1927 को  ‘बहिष्कृत भारत’ में यह घोषणा करने को मजबूर किया, “अछूत समाज हिन्दू धर्म के अंतर्गत है या नहीं? इसका हमेशा के लिए फैसला होना चाहिए।”

दरअसल, अछूत समाज सिर्फ कहने के लिए हिन्दू था। उसे समाज में देवी-देवताओं के मंदिर में जाने तक की अनुमति नहीं थी। इसका असर हम आज आज़ादी मिलने के 70 साल बाद भी देखते हैं जो कभी अखबारों में सुर्खियां बन जाती है और कभी-कभी गांव-समाज में ही दबकर रह जाती है। ऐसे समय में डॉ. बाबा साहब भीमराव आंबेडकर के नेतृत्व में नासिक के ‘कालाराम मंदिर’ दर्शन के लिए दलितों ने आन्दोलन प्रारंभ किया। हज़ारों की संख्या में दलित मंदिर परिसर के पास पहुंचे और वहां के कर्मचारियों ने मंदिर के दरवाज़े बंद कर लिए। एक महीने के लिए दरवाज़े बंद रहे, लेकिन रामनवमी के दिन हर साल की तरह मूर्ति को रथ में बिठाकर जुलूस निकालना था। इसलिए मजिस्ट्रेट के सामने समझौता हुआ कि दलित और सवर्ण दोनों मिलकर जुलूस निकालेगें, कई दिनों के पश्चात् कालाराम मंदिर कानून बना और दरवाज़े दलितों के लिए खोल दिए गए।

गोलमेज सम्मेलन और पूना पैक्ट  

गांधी के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आंदोलन चल रहा था। काँग्रेस के नेता जेल में थे। ब्रिटिश सरकार और काँग्रेस के बीच समझौता हुए बिना ही अन्य नेताओं और रियासतों के सहयोग से लंडन में गोलमेज सम्मेलन का आयोजन ब्रिटिश प्रधानमंत्री रम्जे मॉक्डोनाल्ड की अध्यक्षता में 12 नवंबर 1930 को प्रारंभ हुआ। वायसराय के निमंत्रण पर डॉ. भीमराव अम्बेडकर दलित नेता की हैसियत से गोलमेज परिषद में शामिल हुए। सभी नेताओं ने अपने-अपने पक्ष रखे, उनमें से डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने बड़ा ही ध्यान आकर्षित करने वाला भाषण प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा, “मैं  जिन अछूतों के प्रतिनिधि की हैसियत से यहां उपस्थित हूं, उनकी स्थिति गुलामों और पशुओं से भी बदत्तर है। पशुओं को तो, उनके मालिक छूते हैं, पर हमें तो छूना भी पाप समझा जाता है। हमारी स्थित जो पहले थी, वैसी ही ब्रिटिश राज में है। हमें हमारे हाथों में राजनीतिक सत्ता चाहिए कि हम अपना दुःख स्वयं दूर करें।”

डॉ. अम्बेडकर के भाषण से सभी प्रभावित हुए। उन्होंने दलितों के लिए पृथक चुनाव, पृथक निर्वाचन संघ एवं सुरक्षित सीटों तथा नौकरियों में प्रवेश की मांग की। इस सम्मेलन में हिन्दू-मुस्लिम समझौता न बन सका और सम्मलेन समाप्त हो गया।

5 मार्च 1931 को गांधी-इरविन समझौता हुआ, सविनय-अवज्ञा आन्दोलन स्थगित कर दिया और गांधी जी ने दूसरे गोलमेज सम्मलेन में जाना स्वीकार किया। 7 सितम्बर 1931 को दूसरा गोलमेज सम्मेलन प्रारंभ हुआ। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने  दलितों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग की, लेकिन गांधी जी दलितों के पृथक निर्वाचन के लिए सहमत नहीं थे, जबकि सिक्खों, मुस्लिमों, ईसाईयों के पृथक निर्वाचन के लिए तैयार थे। उनका इसमें तर्क था कि इससे हिन्दू समाज बिखर जाएगा।

20 अगस्त 1932 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री के  द्वारा ‘सांप्रदायिक निर्णय’  घोषणा हुई, जिसमें दलितों को पृथक निर्वाचन का अधिकार मिला और साथ में आम-निर्वाचन में भी मत देने एवं उम्मीदवार होने का अधिकार दिया गया। गांधी जी ने दलितों के पृथक निर्वाचन के विरोध में यरवदा सेन्ट्रल जेल में ब्रिटिश प्रधानमंत्री को सूचित कर आमरण उपवास 20 सितंबर 1932 से प्रारंभ कर दिया। डॉ. भीमराव अम्बेडकर पर लोगों द्वारा चारों तरफ से दबाब बनने लगा, साथ ही उन्हें गांधी जी के प्राणों की चिंता थी। नेताओं के सहयोग से गांधी और अम्बेडकर में दलितों की सुरक्षित सीटों (आरक्षण) को लेकर समझौता हुआ। पूना-पैक्ट के अनुसार दलितों को ‘सांप्रदायिक निर्णय’ से दुगनी सीटें मिली और यहीं से आरक्षण की नींव पड़ गई। लेकिन दलितों को इसका एक बहुत बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ा, और वह यह कि उन्हें पृथक निर्वाचन से हांथ धोना पड़ा जिसका खामियाज़ा वे आज भी भुगत रहें हैं। दलितों के नेता चुनकर तो जाते हैं, लेकिन दलितों के सच्चे हितैसी नहीं होते। पृथक निर्वाचन न मिलने के कारण डॉ. भीमराव आंबेडकर को भी चुनाव में हारना पड़ा था।

बौद्ध धम्म की राह पर

हिन्दू धर्म में दलितों और पिछड़ों के प्रति हिंसक व्यवहारों तथा शोषण एवं दमनकारी नीतियों से तंग आकर उन्हें सन् 1935 में कहना पड़ा, “मैं हिन्दू धर्म में पैदा अवश्य हुआ हूं लेकिन इस धर्म में रहते हुए मरूंगा नहीं।” धर्म परिवर्तन की घोषणा सुनकर इस्लाम, सिक्ख, ईसाई तथा जैन धर्म के धर्म गुरुओं ने बाबा साहब को अपने-अपने धर्म ग्रहण करने का आग्रह किया। लेकिन वे किसी के भी प्रलोभन में नहीं आए। उनका तर्क था कि धर्मान्तरण किसी आर्थिक लाभ के लिए नहीं, बल्कि विशुद्ध आध्यात्मिक प्राप्ति के लिए होता है। बहुत ही सोच विचार कर, पहले वह सिक्ख धर्म की ओर झुके, लेकिन अंत में उन्होंने बुद्ध के मार्ग पर चलना उचित समझा। जीवन के अंतिम दिनों में अपने अनुयाइयों को बौद्ध धर्म की शिक्षा समझाने के लिए एक वृहत ग्रन्थ ‘बुद्धा एंड हिज धम्मा’ की रचना की, जो भारतीय बौद्धों में विशेष रूप से लोकप्रिय है।

डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने आजीवन अछूतों के अधिकार की लड़ाई लड़ी। वे हमेशा अपने निजी जीवन की परेशानियों को भूलकर दलितों, पिछड़ों, महिलाओं और वंचित समुदायों को सामाजिक न्याय दिलाने के लिए प्रयासरत रहें।

आज उन्हें विश्व के सबसे बड़े संविधान के निर्माता और ‘सिम्बल ऑफ नॉलेज’ के नाम से जाना जाता है। कहते हैं, 21वीं सदी बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर की है। उनके लोकतान्त्रिक विचारों का असर समाज में, दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। आज डॉ. भीमराव अम्बेडकर का भारतीय समाज में वंचितों के सम्मान की लड़ाई शुरू करने के उनके अभूतपूर्ण योगदान के लिए, वे दलितों और पिछड़ों के लिए एक सूर्य समान हैं, जिनसे वे रोशनी, जीवन और उर्जा प्राप्त करते हैं।

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