Site icon Youth Ki Awaaz

लिखना मेरे लिए ज़िन्दा बने रहने की कोशिश है

मार्टिन लूथर किंग (जूनियर) का एक बहुत ही प्रसिद्द कथन है कि हमारी ज़िन्दगी उस दिन ख़त्म होनी शुरू हो जाती है, जिस दिन से हम उन चीज़ों को लेकर चुप रहना शुरू कर देते हैं, जो हमारे लिए मायने रखती हैं। मुझे लगता है कि ज़िन्दगी के खत्म होने लगने की इस तरह की शुरुआत को लेकर हमें सतर्क रहना चाहिए, मेरे खयाल से मेरा लिखना इसी सिलसिले में किया जाने वाला प्रयास है।

मायने रखने वाली बातों पर हमारी ज़रूरी प्रतिक्रिया का सिर्फ दर्ज होना काफी नहीं है। ज़रूरी है कि ऐसी बातें निकलकर दूर तलक भी जाएं। ऐसी बातें हमखयालों तक ही नहीं, असहमत लोगों तक भी पहुंचे ताकि संवाद बना रहे, कुछ बेहतर परिणाम की गुंजाइश बची रहे। सोशल मीडिया के दौर में ऐसी पहुंच आसान हुई है।

‘Youth Ki Awaaz’ जैसे प्लेटफॉर्म की भूमिका की तारीफ इसलिए की जानी चाहिए कि यह अधिक सुनियोजित और संगठित तरीके से इस पहुंच को सुनिश्चित करने में हमारी मदद करता है। यह वैसे लोगों का मंच है, जो ज़रूरी मुद्दों पर चुप रहने से परहेज़ करते हैं।

सीधे किसी सामाजिक-राजनीतिक मसले पर लिखने के अतिरिक्त जब मैं फिल्मों, अन्य कलाओं, साहित्य और संस्कृति पर भी लिखती हूं, तब भी इसके लिए मुझे जो बात सबसे अधिक लिखने के लिए प्रेरित करती है, वह इन क्षेत्रों में मौजूद जनपक्षधर धाराएं हैं। समाज की बेहतरी के बजाय सामाज का दोहन करने के लिए तैयार कला, साहित्य और सांस्कृतिक उत्पाद की चमक-दमक मुझे भारी कोफ्त होती है।

सवाल यह है कि हमारे लिखने का क्या कोई असर होता है? मैं सोचती हूं कि बहुत कम ही सही, तब भी असर तो होता है। जब कुछ लोग असहमति जताते हुए अपनी प्रतिक्रियायों में बेहद अतार्किक और असभ्य होने लगते हैं, तब लगता है कि जो अभिव्यक्त करना चाहा था वह सही तरह से अभिव्यक्त हुआ है। जब कुछ पाठकों को लगता है कि इस तरह से सोचना भी ज़रूरी है, तब भी सार्थकता का बोध होता है।

हमारा उद्देश्य तब भी सफल होता है जब हमारी बातें हमारी तरह से सोचने वाले लोगों को थोड़ी और हिम्मत देती हैं, और उन्हें लगता है कि वे अकेले नहीं हैं। जब इन बातों में से कुछ भी नहीं हो तब भी एक संतोष होता है कि हमने अपनी वह अभिव्यक्ति सार्वजनिक की जो सार्वजनिक करना हमारा दायित्व था। यह कुछ और नहीं तो हमें थोड़ा और मज़बूत तो बना ही देता है।

रघुवीर सहाय ने अपनी एक कविता की कुछ पंक्तियों में इस बात को बहुत ही खूबसूरती से व्यक्त किया है- “कुछ होगा कुछ होगा अगर मैं बोलूंगा/ न टूटे न टूटे तिलस्म सत्ता का/ मेरे अंदर एक कायर टूटेगा।”

यह प्रसन्नता की बात है कि Youth Ki Awaaz अपनी स्थापना के दस वर्ष पूरे कर चुका है। इसकी पूरी टीम और समस्त लेखकों को बधाई। मैं यह कामना करती हूं कि यह प्लेटफॉर्म अपनी जनपक्षधरता के प्रति निरंतर अधिक प्रतिबद्ध होता रहे। बाज़ार और पूंजी की चपेट से खुद को बचाए रखने के साथ ही यह अपनी आंतरिक लोकतांत्रिकता और अनुशासन को बचाए रखे। ज़ुल्मतों के दौर में प्रतिबद्धता को बचाए रखना सबसे कठिन चुनौती होती है, लेकिन इसे हर हाल में बचाए रखना है।

Exit mobile version