आज़ादी के बाद जिस राजनीति की शुरुआत हुई वह निश्चित ही जन आकांक्षाओं को बढ़ाने वाली थी। लोकतंत्र की स्थापना के साथ ही नेताओं द्वारा हर समस्या पर वादा किया जाने लगा। सभी दल भूख-गरीबी से मुक्ति, रोज़गार के साधन एवं अवसर, रहने को ज़मीन और घर, पढ़ाई की व्यवस्था, इलाज के लिए डॉक्टर और दवाई के साथ अनेक न जाने कितने वादों के सहारे चुनाव में आने लगे।
लोगों ने भी उनपर विश्वास किया। इन सब कसमों वादों में यह बात पीछे छूटती चली गयी कि पुलिसिया राज कैसे खत्म होगा। ब्लॉक-तालुका से लेकर ज़िलाधिकारी के दफ्तर का रौब कैसे खत्म होगा। कोर्ट में न्याय के लिए लगने वाला चक्कर कब खत्म होगा। और सरकारी तंत्रों में रुपया का बोल-बाला कब खत्म होगा।
इस लोकतंत्र का सरकारी तंत्र ठीक वैसा ही है, जैसे हम साबुन या बिस्कुट खरीदते हैं। हम रुपये देकर FIR करा सकते हैं, रुपये देकर वृद्धा पेंशन, विकलांग पेंशन, विधवा पेंशन, जाति, निवास, आय, चरित्र का प्रमाण पत्र, मालगुज़ारी का रसीद आदि ले सकते हैं। रूपये देकर हम कोर्ट की तारीख और फैसला खरीद सकते हैं। रूपये देकर जल जंगल ज़मीन पर कब्ज़ा कर सकते हैं।
यह लोकतंत्र बिलकुल वैसे हो गया है जैसे जिसके पास जितना रुपया है उतना महंगा उत्पाद खरीदे, कम रुपये वाले सस्ते और छोटे उत्पाद से काम चलाये। इस लोकतंत्र के सरकारी तंत्र ने हर काम का दाम तय कर दिया है।
अगर इस अश्लील व्यवस्था को लोकतंत्र कहा जाना है तो मैं इस लोकतंत्र को नहीं मानता। मैं यह भी नहीं मानता कि इस लोकतंत्र की मशीन से कुछ दूसरा उत्पाद निकल सकता है। राजनीतिक पार्टियों का जन्म और काम, इस वयवस्था को बनाये रखने या थोड़ा बहुत सुधार के लिए ही हो रहा है। किसी भी दल के सरकार बन जाने से पुलिसिया राज खत्म नहीं होगा, ब्लॉक- तालुका से लेकर ज़िलाधिकारी के दफ्तर का रौब खत्म नहीं होगा, कोर्ट में बिकती तारीख और फैसला खत्म नहीं होगा।
यह तय है कि सरकार की योजनाओं को लागू करने के लिए इन्हीं तंत्रों का उपयोग किया जाना है, जब इन तंत्रों ने अपनी मनमर्ज़ी और निरंकुशता का प्रदर्शन शुरू कर दिया है, ऐसे में लोकतंत्र को कैसे स्थापित किया जा सकता है। इन सरकारी तंत्रों को टिकाये रखना ही मानवता के खिलाफ किया जाने वाला उद्योग है।
यह साफ हो गया है कि हमारे पास कोई विकल्प नहीं है। विकल्प तो अवसरों का दूसरा नाम है। जिसके मन को जो अनुकूल लगे चुन ले। यह अनुकूल और अच्छा लगने का दौर नहीं है। अब विकल्पों की तालाश बंद होनी चाहिए। हमारे पास कोई विकल्प नहीं है। हमें रास्तों और मंज़िलों का निर्माण करना है। हमें प्रश्नों का निर्माण करना है, उनके उत्तरों का निर्माण करना है। हमारे प्रश्नों का निर्माण तब तक बंद नहीं होगा जब तक इस कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका का उन्मूलन ना हो जाये। जब तक रुपये का बोल बाला बंद न हो जाए जब तक आम इंसानों की शासन में भूमिका न हो जाए और अंतिम आदमी को सुख की रोटी न मिल जाए।
Youth Ki Awaaz के बेहतरीन लेख हर हफ्ते ईमेल के ज़रिए पाने के लिए रजिस्टर करें