जिन्नाह जैसे बेवजह के इंसान और बेवजह के विवाद से ही सही , लेकिन अगर एक शैक्षणिक संस्थान हरे रंग के आगोश से बहार आ पाया और भारत वर्ष के तीन रंगो में सराबोर हो पाया तो मै समझता हूँ ,कि हिन्दू वाहिनी ,अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् , उत्तर प्रदेश प्रशासन और शासन सभी ही बधाई के पात्र है !
इस कथन से आशय ये कतई नहीं है कि अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में तिरंगे का उद्घोष नहीं था , आशय ये भी नहीं है कि वहां कि आवोहवा भारत वर्ष के विरुद्ध है , आशय केवल इतना है कि एक शैक्षणिक संसथान में धार्मिक विचारधारा की अशातीतता मेरी समझ से शिक्षा के मूल नियमों का उल्लंघन है , संसथान को आप नाम कुछ भी दें ,उसे हिन्दू विश्वविद्यालय कहे या मुस्लिम लेकिन जब शिक्षा का सागर वहां फैलाया जायेगा तो देश सर्वोपरि सिखाया जाना ही सर्वोचित होगा ! अन्यथा , दंडसंहिता में निहित दंड और पुलिस को दिए गए अधिकार , इस देश में दोनों ही सशक्त हैं , और अपना काम यथोचित करना जानते हैं !
बेशक ये एक चुनावी मुद्दा था , 1938 से लगी महज़ एक तस्वीर का अनायास ही याद आ जाना कोई संयोग तो नहीं था , लेकिन इतिहास के नाम पर एक धूर्त शख्शियत को ये सम्मान दिया जाना कहाँ तक उचित है ! इस देश में नियमों का उल्लंघन किये जाने पर लोगो की उनके कार्य से आजीवन सदस्य्ता ख़त्म कर दी जाती है , तो जिसने मानवता का विनाश करा उसकी तस्वीर को यूँ संजों कर रखा जाना कैसे न्यायोचित हो सकता है ? इस मामले में विश्वविद्यालय प्रशासन को अपनी भूल स्वीकार करनी चाहिए थी और जिन्नाह की तस्वीर को निहायत ही गंदे गटर में विसर्जित कर देना चाहिए था ! लेकिन उन्होंने ऐसा न करके अपनी ही गरिमा को चोट पहुंचाई , साथ ही बेवजह इस प्रकरण को तूल दिया !
रविश कुमार जी और विनोद दुआ जी ने बारीकी से इस पुरे वाक़ये को समझा और अपने चिरपरिचित अंदाज़ में प्रशासन पर ठीकरा फोड़ दिया , बहुत से यूनिवर्सिटी छात्र भी ” जिन्नाह एक विश्वास नहीं , एक इतिहास ” का नारा लिए सड़को पर उतर आये , लेकिन क्या उन्होंने एक वारी भी सोचा की अगर यही आपका इतिहास ज़िंदा होता तो दृश्य कितना भयाबह होता ! आज बाबा साहेब के नाम पर जो लोग राजनीती पर उतर आये , जिन्होंने उनकी सोच और उनके त्याग को महज़ आरक्षण तक सीमित कर दिया , प्रश्न उनसे भी है कि क्या उन्होंने कभी ये सोचा कि क्यों आपके भगवान् ने जिन्नाह जैसे धूर्त को सिरे से नकार दिया था !
इतिहास से सीख लेना अतिआवश्यक होता है , हमें ये भूलना नहीं चाहिए कि लोग धरोहरों को इसलिए संजो कर रखते हैं ताकि उसकी याद दिलों में बनी रहे तो क्या ये देश जिन्नाह को अपने दिलों में बनाए रखना चाहता है ! साथ ही अगर आप भीड़ में यूनिवर्सिटी के गेट से बहार आकर पुलिस प्र्रशासन के काम में दखल डालेंगे , तो आप ये मान ले कि फिर आपकी आरती पुलिस कि लाठियां ही उतरेंगी ! गनीमत रखिये कि वहां पर देश कि सेना उतरी नहीं तो सेना क्या करती है वो आपको लेफ्टिनेंट जनरल ज़मीर अहमद साहब आपको अच्छे से समझा सकते हैं !
अंत में , भाई चारे के लिए ही शैक्षिणिक संसथान जाने जाएँ तो बेहतर , देश कि अखंडता को बनाये रखने के लिए वो जाने जाएँ तो बेहतर !
एक आज़ादी कि इस देश को दरकार थी सो मिल गयी ,नागरिक अधिकारों के अलावा किसी और आज़ादी कि बात तो देश का संविधान भी नहीं करता ! तो उचित है कि हमें चाहिए आज़ादी के नारे न गूंजे ! और कश्मीर और कश्मीरी लोगो से आवाहन है कि कश्मीर देश का अभिन्न अंग है आप जितनी जल्दी ये स्वीकार करेंगे उतनी शीघ्र आपको ये देश स्वीकार करेगा !