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अपराध में शामिल बच्चे दे रहे हैं जीवन को नई दिशा : सुधीर कुमार

 

महाराष्ट्र  राज्य के वर्धा जिला,तहसील वर्धा,ग्राम-रोठा में पारधी समाज के बच्चों के लिए एक नई मिशाल के रूप में कार्य कर रही है,मंगेशी मून… संकल्प वस्तीगृह नामक संस्थान का वर्तमान में जो कार्य कर रही है वे कुछ इस प्रकार हैं- शहर मे भीख मांगते बच्चे,कचरा से प्लास्टिक बीनते हुए बच्चे,नशा या मदिरा का सेवन करने वाले बच्चे,रेलवे या बस स्टैंड पर, या फिर स्ट्रीट चाइल्ड जो भी ऐसे बच्चे हैं संस्था का है उदेश्य घुमंतू आदिवासी पारधी समाज के बच्चो को शिक्षा के मुख्य प्रवाह में लाकर स्वालम्बी बनाना, समाज में मान सम्मान से जीने का अवसर एवं मनुष्य जीवन यापन का अधिकार उपलब्ध कराना। वर्तमान में यह संस्थान और संस्था के कार्यकर्ता नगर के विभिन्न जगहों पर भीख मांगने वाले कचरा बीनने वाले फुटपाथ पर सोने वाले,झोपड़पट्टी,शराब बिक्री स्थल,रेलवे स्टेशन,बस स्टेशन आदि जगहों पर  उन बच्चों को संस्थान में लाया जाता है। उसके बाद उन्हें स्कूल भेजा जाता है। जिससे वे अपने आने वाले कल को नई दिशा दे सकें यही मंगेशी मून और उनके संस्थान का उदेश्य है। चूकी पारधी समाज का पेशा ही शिकार करना है और यह आदिवासी भटकता विमुक्त समाज है।    जिन हाथों से शराब बनाई जाती थी उन्हीं हाथों में कलम,और पाटी है। पारधी समाज शिकार करके अपनी आजीविका करने वाला घुमन्तु समाज है। आज के पढाई लिखाई बन्द हो जाती है। बस यहाँ से शुरू होता है अपराधी बनने का सिलसिला चोरी,डकैती, डरा या धमका कर लूट-पाट करके शराब, गांजा पीना आदि इनकी रोजमर्रा की जिंदगी बन जाती है। पारधी समाज के बच्चों के उत्थान के लिए मैंन काम करना शुरू किया। किंतु मुंबई महानगर के अपराध जगत से बच्चों को दूर रखना और कहीं अच्छी जगह बच्चों के जीवन को नई दिशा देने के लिये मेरी जन्मस्थली वर्धा में रोठा गांव में उमेध  संस्था दवरा संकल्प वस्तिगृह शुरुवात की। शिक्षा के मुख्य धारा में इन बच्चों को जोड़ने के लिए मैंने अपना सोना गिरवीं रखकर और पति ने बच्चों के रहने के लिए आवास बनाने में मदद की। वर्तमान समय में संकल्प वस्तिगृह में 32 बच्चे शिक्षा ले रहे हैं। भविष्य में 200 बच्चों को शिक्षा देने का संकल्प और जिमेदारी उठाने का निश्चय किया है।इसलिए मैं पारधी समाज की बस्ती में जाकर शिक्षा के प्रेरित आधुनिक समाज से कोषो दूर यह समाज शहरी एवं ग्रामीण जीवन की मुख्य धारा में पारधी समाज आज भी सहभागी नही है। जिसके कपाट पर जन्म से ही गुन्हेगार का ठप्पा लगाया जाता है और गांव की सीमा रेखा से बाहर जिनकी बस्ती होती है। आज भी यह समाज आजीविका के लिए प्रवास करते रहते है। इस समाज के परिवार भीख मांगने के लिए शहरों में जाते हैंऔर वहीं बस स्टैंड, फुटपाथ, रेलवे स्टेशन को अपना घर बना लेते हैं परिणाम यह होता है की बच्चों की करती रहती हूँ। बच्चों से जब उनके पेशे के बारे में बात किया,तो वे अपने हुनर जो की एक आपराधिक रूप वाला था। वे उसको बे हिचक बता रहे थे। मुंबई और वर्धा में ये बच्चे बस स्टैंड,रेलवे स्टेशन आदि स्थानों पर पाकेट मारी करके अपनी आजीविका को चला रहे थे।

लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा , महाराष्ट्र के समाज कार्य विभाग के छात्र हैं।

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