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आखिर क्यों खींच रही हमारी ऑनलाइन और ऑफलाइन मानसिकता में लकीर

ऑनलाइन और ऑफलाइन मानसिकता में खींचती लकीर
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मौसम, हमारे परिवेश में जीतनी भी चीजें हैं, वो मौसम पर आधारित और प्रभावित हैं। इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि हर चीज पर असर डालता है। खेत में लगी फसलों पर, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, नदी-झरनों, पहाड़ और समुन्द्र, सभी पर। हम अर्थात दुनिया पर मौसम का अनोखा असर होता है।
मानव सभ्यताएं, आबादी, कला-संस्कृति, रहन-सहन व आवश्यकताएं मौसमी दबाव के बीच बनी और बिगड़ी हैं। मौसम के साथ हमारा खानपान, पहनावा और यहां तक कि गीत-संगीत भी बदल जाते हैं। स्थल मानचित्र पर मौसम के हिसाब से तीज-त्योहार और सामाजिकता की रस्में निभाई जाती है। अर्थव्यवस्था का तानाबाना भी इससे अछूता नहीं है। अक्सर हमारी खुशिया और कई बार दुःख का कारण मौसम ही होता है। मौसम का असर हर उस चीज तक होता है, जिसे मनुष्य छू, देख, महसूस, सोच और कल्पना कर सके। 
ठीक इसी प्रकार मौसम के बदलते मिजाज को सोशल मीडिया के प्लेटफॉर्म यथा फेसबुक और ट्वीटर पर महसूस किया जा रहा है। बेशक सोशल प्लेटफॉर्म पर मौसम के मिजाज को मापना या बदलाव को पहचान पाना आसान काम नहीं है। लेकिन, यदि सोशल मीडिया पर लगातार सूक्ष्म दृष्टि बनाए रखा जाय, तो मौसमी बदलाव की आहट को महसूस किया जा सकता है। गोया कि हम कह सकते हैं कि ऑनलाइन भी मौसम बदलता है। 
प्लसवन नामक शोध पत्रिका में छपी रिपोर्ट के अनुसार, अगर आप ध्यान से देखे तो मौसम में आए बदलाव को फेसबुक और ट्वीटर पर भी पढ़ सकते हैं। बतौर शोध रिपोर्ट, जिस दिन मौसम सुहाना होता है, उस दिन लोगबाग सोशल मीडिया पर खुशिया बिखेरते हैं। लेकिन, मौसम के खराब यथा कुहरा, धूप नहीं खिलने पर, तूफ़ान का अलर्ट, बारिश और बर्फबारी हो, तो बहुत से लोगों के पोस्ट में निराशा झलकने लगाती है। हानिकारक मौसमी दशाओं की वजह से प्रभावित मानव मन की निराशा को थोड़ी दिमागी कसरत के बाद सोशल मीडिया पर देखा जा सकता है। खासकर एशियाई देशों में जैसे-जैसे तापमान 20 डिग्री सेल्शियस से बढ़ने लगता है। चढ़ते पारे के साथ ही नकारात्मकता में इजाफा होता है। यह सिर्फ पोस्ट में ही नहीं अपितु, यूजर्स के लाइक और टिप्पणियों में मौसमी बदलाव देखने को मिलता है।
शोधकर्ताओं का दावा है कि तापमान, बारिश, बादल, आंधी और बर्फबारी लोगों के मूड को बदलने में कारगर भूमिका निभाते हैं। और यही कारक उनके बदलते  मिजाज के रूझान को दिखाता है। विदित हो कि मौसम और लोगों के रुझान पर असर डालने वाली यह अवधारणा भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से अलग-अलग हो सकती है। इसके इतर बहुत से सवाल अब भी हैं, जिनके जवाब अभी खोजे नहीं जा सके हैं।
मसलन जीतनी नफ़रत हमें समाज में नहीं दिखती है। उससे ज्यादा सोशल मीडिया पर दिखती है। अक्सर देखने को मिलता है कि आम जीवन में आपसी भाईचारे और मोहब्बत की नुमाइंदगी करने वाले सोशल मीडिया पर आक्रामक रहते हैं। ऐसे कुछ लोग समाज के तानेबाने को बिखेरने वाली, दंगाई और हिंसात्मक भाषा का व्यवहार करते गाहे-बगाहे मिल ही जाते हैं। इस तरह के वाकये से कमोबेश सभी रू-ब-रू होंगे।
आपने कभी ऐसा सोचा है कि हमारी ऑनलाइन और ऑफलाइन मानसिकता में इतना फर्क क्यों है ? बदलाव को रोका नहीं जा सकता। लेकिन आधुनिक दुनिया में जवान होती तकनीक और मानवीय समाज के बीच खींचती लकीर मिटाने का प्रयास किया ही जा सकता है। समाज के इस नाजुक कड़ी पर रोजमर्रा की घड़ी दो घड़ी चुराकर विचार करने का वक्त है, किनारा करने का नहीं।
-पवन कुमार मौर्य
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