आँखों’ से आँखे’ चार कर ले क्या
तुमपे’ ही जाँ निसार कर लें क्या
रातों’ को नींद ही न आये अब ।
उससे’ दिल का क़रार कर लें क्या ?
नाम तेरा लबों पे क्या आया ।
दिल को हम बेकरार कर ले क्या ?
प्यार करना गुनाह है तो हम ।
ये ख़ता सच में’ यार कर लें क्या ?
यूं मिले हैं ज़माने से धोखे ।
उसका’ हम ऐतबार कर लें क्या ?
इक नज़र भर उसे देखा हमने ।
दिल को’ फिर राजदार कर लें क्या ?
यार क्या सोचा वक्त हैं रुखसत ।
“अक़्स” बाहों को हार कर लें क्या ?
© विकास भारद्वाज “अक़्स बदायूँनी”