कल कई दिनों बाद कल ऑन ड्यूटी पलवल-शकूरबस्ती ईएमयू से तुगलकाबाद तक यात्रा कर रहा था. निजामुद्दीन स्टेशन पर कुछ अल्पसंख्यक वयस्क आठ से बारह साला बच्चों के साथ गाड़ी में चढ़े. गर्मी और थकान से भरे चेहरों पर शायद सीट ना मिल पाने की नाउम्मीदी से हताशा थी. मासूमियत से भरे निश्छल चेहरे वाले बच्चे कुर्ते-पायजामे, कंधे पर बड़ी रूमाल और सिर पर जालीदार टोपियों से सजे हुए थे. उन बच्चों में से एक छोटे बच्चे को जैसे ही मैने आदतन ,पर सहज भाव से अपनी गोद में बैठाया, आसपास अदृश्य सा भरा तनाव जैसे पिघलता सा महसूस हुआ मुझे. इसी रूट पर सीट को लेकर शुरू हुए जुनैद मसले के बाद लोगों में जैसे एक तनाव और अविश्वास भरने लगा था, शायद मैं उस तनाव को कम करने का निमित्त बन जाऊँ. ये सोचकर मैं मन ही मन मुस्कुराये बिना ना रह सका, क्योंकि मेरी पहल के बाद एक और सज्जन ने एक और बच्चे को अपने पास बिठा लिया था. बदले में उनके परिजन-वयस्कों के चेहरे पुरसुकून मुस्कान ने जगह बनायी तो लगा जैसे उनके भी दिलों में शायद बहुसंख्यकों के प्रति उपजा कड़वापन पिघलने लगा था.भले ही ये एक छोटी सी बात हो पर मुझे मिले आत्मिक आनंद ने इसे उकेरने के लिए प्रेरित किया.
बृजेश राय