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मैंने पढ़ा क्योंकि किसी ने लिखा, मैं लिखती हूं ताकि कोई और पढ़ सके

बचपन से ही मुझे किताबें पढ़ने का शौक है। लेकिन मेरे भारी भरकम स्कूली बस्ते ने कभी मुझे कोर्स की किताबों के अलावा दूसरी किताबें पढ़ने की अनुमति नहीं दी। अव्वल आने की इस दौड़ में इन किताबों ने मुझे ऐसा जकड़ा कि मैं दूसरी किसी किताब को पढ़ने के खयाल को ही व्यर्थ समझने लगी। जो लोग दूसरी किताबें पढ़ते उन्हें देखकर लगता जैसे वे टाइम पास कर रहे हैं क्यूंकि उनके पास मेरी तरह अव्वल आने की इच्छा, हिम्मत और क्षमता नहीं है। इसी दौड़ में भागते-भागते मैं भी इस एकतरफा और संकुचित सोच वाले समाज की एक सिमटी हुई और तथाकथित “सभ्य” लड़की बनने लगी थी।

एक सीमित सोच और पूर्वाग्रह से ग्रसित इस समाज के हर नियम कायदे पर अमल करना मुझे अपना नैतिक कर्तव्य लगने लगा था। मुझे अपने आप पर गर्व होता था जब मैं अपने आप को इस समाज द्वारा लड़कियों के लिए बनाए गए नियम-कायदे-कानूनों वाले खांचे में ‘फिट’ पाती थी। खुलकर बराबरी से जीने और बड़े सपने देखने की इच्छा तो थी पर हिम्मत नहीं थी। अपने सपनों और अपनी क्षमताओं पर से विश्वास कम होने लगा और इसी के चलते मैं बहुत कम बोलने लगी थी।

अपने बचे-खुचे सपनों को लोगों द्वारा सभ्यता, संस्कृति और नैतिकता के नाम पर खारिज होते देख अपने आप को कम आंकने लगी थी। मैं देखती थी कि कैसे लड़कियां खुद अपने पैरों पर खड़े होकर आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास से अपनी ज़िंदगी जीती हैं और अपने सपनों को पूरा करती हैं। उन्हें देखकर मैं भी अपने सपने पालने लगती लेकिन जब अगले ही पल कोई मुझे अपनी तथाकथित सीमाओं और नैतिकता के लिए टोक देता तो मेरे सारे सपने बनने से पहले ही बिखर जाते।

हर परीक्षा में अव्वल आती, लोग मुझे बधाइयां देते, तारीफों के पुल बांधते, एक पल को खुशी भी होती लेकिन फिर भी भीतर एक खालीपन सा रहता। मैं शायद अपनी उम्र के बच्चों से अधिक प्रतिभाशाली मानी जाती थी- तथाकथित “सक्सेसफुल”। लेकिन मैं खुद कभी अपने सपनों की आग को अंको के ठंडे छींटों से नहीं बुझा पायी।

इसी तरह मैंने बारहवी कक्षा की बोर्ड परीक्षा दी। गर्मी की छुट्टियां चल रही थी। आगे के करियर का कुछ ठिकाना ना था। सब अपनी-अपनी राय देते और मैं भी एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देती। छुट्टियों का दिन निकालना बहुत मुश्किल सा हो रहा था तो सोचा कि कुछ किताबें पढ़ ली जाए। लेकिन इस बार कोर्स की किताबें ना थी, इस बार मैं महात्मा गांधी की ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ ले लायी थी।

किताबें पढ़ने का सिलसिला शुरू हुआ और मेरी इस रुचि ने मुझे चारों और से घेर लिया। इन किताबों से मैंने वो सीखा जो मैंने अपनी अभी तक की ज़िंदगी से नहीं सीखा था। मेरी सोच खुलने लगी और अब मैं अपने सपनों की उड़ान भरने की हिम्मत जुटाने लगी। साथ ही साथ, मन ही मन मैं उन सभी लोगों के प्रति अनुग्रहित होने लगी जिन्होंने ये किताबें लिखी थीं। मुझे लगने लगा जैसे इस समाज के नियम कानून मेरी क्षमताओं को बांधने के लिए हैं। मैं अब और “सभ्य लड़की” बनकर नहीं रहना चाहती थी। हर इंसान चाहता है कि समाज परिवर्तित हो, बेहतर हो। हर लड़की चाहती है कि उसे भी बराबरी से जीने की आज़ादी हो, अपने सपने पूरे करने के अवसर मिले। वह डरती है कि इस समाज के नैतिकता के ढकोसले कहीं उसकी जीने की आज़ादी ही ना छीन ले।

जब मैंने भगत सिंह के विचारों को पढ़ा तो समझ में आया कि बगावत करना और सवाल करना परिवर्तन के लिए कितना ज़रूरी है। जब मैंने बाबासाहेब अम्बेडकर को पढ़ा तो पता चला कि सामाजिक न्याय की नींव पर बनी व्यवस्था मानवता के लिए क्यूं, कैसे और कितनी ज़रूरी है। जब मैंने कार्ल मार्क्स को पढ़ा तो जाना कि आर्थिक और वर्गीय समानता क्यूं और कैसे लायी जा सकती है, जब मैंने जवाहरलाल नेहरु को पढ़ा तो देखा कि दो वैचारिक व्यवस्थाओं को जोड़कर एक ऐसी समाजवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था कैसे स्थापित की जा सकती है जो दुनिया के सबसे मज़बूत, सफल और बड़े लोकतंत्र की नीति बनती है। जब मैंने चाणक्य को पढ़ा तो राजनीति के प्रायोगिक पक्ष समझ में आए। जब मैंने सिमोन दे बोवुआर को पढ़ा तो लैंगिक समानता के लिए मेरे विचार और सोच बेहतर और मज़बूत बने।

इस तरह मैंने जब भी, जिसे भी और जो भी पढ़ा तो ख़ुद में कुछ नया और बेहतर ही पाया। मैंने यह सब सीखा क्यूंकि किसी ने लिखा और लिखे हुए को मैंने पढ़ा।

मैंने सीखा कि कोई समाज किसी इंसान और किसी लड़की के कपड़ों की साइज़, उसके बोलने की पिच, उसके बैठने का ढंग, उसके ज्ञान के विस्तार, उसके सपने और उसकी ज़िंदगी के मायने नहीं तय कर सकता। अगर कोई यह तय कर सकता है तो वह खुद है। इस समाज में मेरी तरह बहुत सी लड़कियां अपनी बात कहना चाहती हैं लेकिन कह नहीं पाती, बोल नहीं पाती- कुछ हिम्मत की कमी, कुछ समाज का डर, कुछ बगावत की अनिच्छा और शायद कुछ मेरी तरह अंतर्मुखी होने के चलते।

इसलिए मुझे लिखना पसंद है। मैं लिखती हूं अपनी बात रखने के लिए, बगावत करने के लिए, अपने अंदर के डर को भगाने के लिए और खुद को बेहतर बनाने के लिए। मैं लिखती हू उन सबकी आवाज़ बनने के लिए जो बोल नहीं सकते। मैं लिखती हूं समाज को आइना दिखाने के लिए, सच को सच और झूठ को झूठ कहने के लिए, उन सब को हिम्मत देने के लिए जो आज़ादी से जीना चाहते हैं, बोलना चाहते हैं और लिखना चाहते हैं। मैं लिखती हूं खुश रहने के लिए, मैं लिखती हूं कि कोई कोई मेरी तरह उसे पढ़ेगा और शायद सवाल करेगा इस समाज की खोखली सोच पर, मैं लिखती हूं ताकि कोई और भी लिख सके।

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