…बचपन के रमज़ान के दिनों की याद अब आसान नहीं रही लेकिन बचपन से ही रोज़े रखने का चलन आज भी दिमाग़ में कौंध रहा है कि कैसे रोज़े ना रखने पर कोई चीज़ खाने में शर्म महसूस होती थी जो शर्म आज राजनीति में आने पर कोसों दूर होती चली गई है…कि कैसे एक बार अचानक अपने पैदाइशी गाँव बलुआ इफ़्तार के वक़्त धमक जाने पर रोज़ा ना होते हुए भी मग़रिब की अज़ान का इंतज़ार किया था—तब हमारे घर में बँटवारा नहीं हुआ था और एक भरा-पूरा परिवार साथ-साथ इफ़्तार किया करता था लेकिन तब भी हम इसमें शामिल नहीं थे क्योंकि पढ़ाई के लिए हमें बचपन से ही अपने असली गाँव से कुछ दूर गौरा में रहना पड़ा था; पर वो रोज़े याद आते हैं जब वक़्त के थपेड़ों के साथ बचपन के गर्मी, बारिश और जाड़े के रोज़े देखते-देखते अब फिर से लौटकर गर्मी के रोज़े आ पड़े हैं और इसी कैंपस में एक बार फिर पलटकर एक अरसे बाद गर्मी के रोज़े वापस आए हैं…
ठण्ड के रोज़ों में सेहरी के वक़्त उठने की हिचक और तरावीह के वक़्त की ठिठुरन याद है जब मन में आलस रहती थी और सेहरी से इफ़्तार के वक़्त के बीच दूरी कम रहती थी और रोज़े आसानी से कट जाते थे, बारिश में घर से मस्जिद के बीच की दूरी तय करना मुश्किल था जब सड़क पर कीचड़ और पानी का अम्बार रहता और बचते-बचाते हम मस्जिद तक पहुँचते; पर नमाज़ पढ़ने के लिए कोई समझौता नहीं होता था जैसाकि आज आसानी से हो जाता है क्योंकि वक़्त के थपेड़ों ने बहुत कुछ बदलकर रख दिया है…घर पर गर्मी के दिनों के रोज़े कभी नहीं छूटते थे—गर्मी की तपिश जैसी भी रहे पर रोज़े रखने होते थे—और वो रोज़े ऐसे थे जिसमें सच्ची पवित्रता रहती…वो रोज़े ऐसे थे जो एक छोटे-से बाज़ार की भीषण तपिश में भी आला-मुक़ाम रखते थे क्योंकि तब दुनिया का कोई लालच नहीं रहता था और मन अल्हड़ था, दुनियावी फ़ितनों से पाक था…ऐसे रोज़े आज ढूढ़ता हूँ तो अपने अंदर एक वीराना-सा पाता हूँ क्योंकि बचपन-किशोरावस्था और अल्हड़ जवानी के घर के उन रोज़ों की तासीर को आज एएमयू कैंपस में महसूस नहीं कर पाता क्योंकि काफ़ी कुछ बदल भी चुका है अब तक…
…बस घर के गर्मी के रोज़ों और एएमयू कैंपस की गर्मी के रोज़ों की एक बात मेल खाती है कि दोनों जगह ‘रूहअफ़ज़ा’ का शरबत ज़रूर होता था, घर पर अब तो औरतें-मर्द साथ-साथ इफ़्तार करते हैं पर पहले ऐसा नहीं था—पहले हम बाहर आस-पास के दूसरे लोगों के साथ इफ़्तार करते और औरतें अलग घर के अंदर इफ़्तार करती थीं और ऐन इफ़्तार के वक़्त अगर कोई सड़क पर चलता-फिरता दिखता तो उसे कोसते ज़रूर थे कि देखो ये रोज़ा नहीं रखे हैं…हालाँकि इस बात की कोई तस्दीक़ नहीं रहती पर लोगों का ऐसा परसेप्शन रहता और वो ऐसा कहते…इसी के साथ पता नहीं कैसे ताड़ जाते कि फलां रोज़े से होगा और उसे बुलाकर इफ़्तार कराने का भी चलन रहता जो आज नहीं हैं क्योंकि रमज़ान के महीने में भी आज के दौर में किसी को किसी की ख़बर नहीं और सब अपने-आप में मस्त होकर रोज़ा खोलते हैं और रोबोट की तरह सोचते हैं…
…बचपन के रोज़ों में सेहरी के वक़्त सड़क पर आवाज़ लगाकर कोई जगा रहा होता और मस्जिद से सेहरी के वक़्त का लगातार ऐलान होता रहता जिसकी ज़रूरत एएमयू में कभी महसूस नहीं हुई क्योंकि रोज़ों के दौरान हम यहाँ शायद ही कभी सेहरी के लिए जगे हों क्योंकि सेहरी खाकर ही सोने की ये परंपरा कम से कम मेरे लिए ज़रूर रही है, और अगर ग़लती से कभी सो गए तो सेहरी के लिए कभी नहीं उठ पाए और बिना सेहरी के रोज़े रखने पड़े…घर के रोज़े की बनिस्बत एएमयू के रोज़े काफ़ी आसान होते हैं क्योंकि बिना किसी रोकटोक के इंसान चाहे तो दिन भर सोता ही रह जाए जो घर पर मुमकिन ही नहीं…एएमयू के रोज़ों के दौरान डिसिप्लिन नहीं रही क्योंकि यहाँ स्टूडेंट एक स्वच्छंद प्राणी है जिस पर किसी का लगाम नहीं और सीनियर-जूनियर की परम्परा ख़त्म होने से ये लगाम और ढीला होता गया है और रोज़े, रोज़े नहीं हंगर स्ट्राइक ज़्यादा लगती है क्योंकि चाहकर भी रोज़े की गरिमा को मैं कभी पूरी तरह से आत्मसात नहीं कर पाया और इसीलिए बचपन के रोज़े, घर के रोज़े याद आते हैं जब अल्लाह का ख़ौफ़ था कि वो देख रहा है और अम्मा का भी ख़ौफ़ था कि मैं छिपकर कुछ खा तो नहीं रहा…
…घर पर बाज़ार के लोगों की इफ़्तार-पार्टी कराने का शौक़ मुझे बचपन से रहा; पर ये भी सच है कि इसमें सवाब की नीयत कम ढोंग और दिखावा ज़्यादा रहता था, और आज के दौर के राजनीतिक रेलमपेल में इफ़्तार-पार्टियां बोगस और नक़ली हैं जिसमें असली रोज़ेदारों की कोई पूछ नहीं रहती है और रोज़ के रोज़ों की तरह उस दिन भी एक ग़रीब और मिस्कीन का रोज़ा फीका ही रहता है…कल और आज दोनों इफ़्तार-पार्टियां अपनी आगे की राजनीतिक रास्ते तलाशने के लिए रखी जाती हैं ऐसे में ये-सब एक बनावट और धतूरा ही है…
घर पर चना-मटर बनता, पकौड़ियाँ छनतीं और अलग-अलग ख़ुशबूदार पकवान बनते और हम इंतज़ार करते कि सूरज कब डूबेगा और हमें ये खाने को मिलेंगीं; पर एएमयू में ऐसा कहाँ—रोज़ ही हमें बाज़ार से बनावटी सामान लाने पड़ते हैं और इन सामानों पर टूट पड़ने का उतना मन नहीं करता क्योंकि इसकी ख़ुश्बू में मोहब्बत नहीं, मिठास नहीं…घर पर असर के बाद पकवानों को बनाने की कार्रवाई तेज़ी से शुरू हो जाती थी और हम देखते रहते कि आज क्या-क्या बन रहा है…इसी बीच जिस दिन रोज़ा नहीं रखते हमें पकवान में नमक चखने की छूट दी जाती और हम इसमें गौरवान्वित महसूस करते कि ये काम सिर्फ़ हम ही कर सकते हैं…
एएमयू में जब दोबारा गर्मी के रोज़े लौटकर आए हैं मैं अब वीएम हॉल में नहीं रहता और यूनिवर्सिटी के शुरूआती दिनों के मेरे वो रोज़े याद आते हैं जब हम वीएम हॉल में कलेक्शन करके मिल-बाँटकर इफ़्तार के सामन ख़रीदने जाते थे और सबकी ड्यूटी फ़िक्स रहती थी कि किसे क्या-क्या काम निपटाने हैं और वीएम हॉल में मुज़म्मिल हॉस्टल की मस्जिद में भी हमने तरावीह पढ़ी है और डाइनिंग हॉल में भी जब गर्मी के रोज़ों में हॉल-हॉस्टल स्टूडेंट्स से ठसाठस भरे रहते हैं और मुज़म्मिल की उस छोटी-सी मस्जिद के साथ डाइनिंग हॉल या कॉमन रूम में भी कम दिनों की तरावीह हुआ करती थी…इस बार एक दशक के बाद ये माहौल है जब वीएम हॉल में ‘लंका’ के पीछे की नई मस्जिद में पहली बार तरावीह की नमाज़ हो रही है और मैं इससे अछूता रह गया हूँ…अब एएमयू का मिज़ाज तेज़ी से बदला है, नई सोच और नई उमंगे हैं, कल की सोच में इंसानियत कुछ ज़रूर थी पर आज की सोच रोबोट वाली है जब इफ़्तार करने और कराने का मिला-जुला असर जाता रहा है और सारे तालुक़्क़ात अब व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी पर निभाए जाते हैं और इफ़्तार फ़ेसबुक पर कराए जाते हैं!
एएमयू का एक दशक बाद ये दौर लौटा है जब डाइनिंग में रौनक़ है और कैंपस में हरियाली है, एएमयू की एक रिवायत ये भी रही है कि ये घर से दूर एक घर लगता है जिसकी कमी रमज़ान में होने नहीं पाती थी लेकिन सोच को डिब्बे में बंद करने पर सब नक़ली लगने लगता है और हम भी इससे बाहर नहीं निकल पा रहे हैं—ये हमें सोचना होगा…