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शहरी स्थापत्य में उलझी व्यवहारिकता !!

अच्छी बात है कि देश में शहरीकरण की और पलायन का स्वर्णिम दौर चल रहा है और बुरी बात है कि पलायन के इस सामाजिक ढाँचे में हम अपनी ज़मीन की मूल भूत व्यावहारिकता कहीं खोते जा रहे हैं ! ज़िन्दगी , व्यापार परिषदों में बंटने वाली चंदे की उन पर्चियों सी दिखाई देती है जहाँ मन ना होते हुए भी कुछ ना कुछ रकम लिखनी पड़ती है ताकि बेदखली का अनुमान लगाने की नौबत ना आये ! मुस्कराहट पर बाज़ारवाद की मोहर लगाकर ये महसूस होता है की हमने अपनी एक एक सांस और हमारा एक एक कदम का भी मूल्यांकन करना शुरू कर दिया है और नतीजतन, भावनाओं के बवंडर से हम कोसों दूर होते जा रहे हैं ! ये भावनाए सिर्फ बाजारवाद को लेकर कम होती तो चलता था , लेकिन आधारभूत ढाँचे  और जीवन के उद्देश्य से भटकाव की भावनाओं का पनपना एक खतरा मालूम होता है !!

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