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साम, दाम, दण्ड भेद ही है भारत का लोकतंत्र?

By : Abhishek Abhi
संविधान व लोकतंत्र से बड़ा होना घातक है
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कर्नाटक चुनाव परिणामों के बाद से पूरे देश में एक बहस छिड़ गयी है कि, आखिरकार कर्नाटक की सत्ता की बागडोर किसके हाथ में पहुंचेगी, कौन होगा कर्नाटक पर पांच सालों तक राज करने वाला? इस बहस में सत्ताधारी भाजपा से लेकर लगभग देश का समूचा बिखरा हुआ विपक्ष भी कूद पड़ा है, बड़ी अजीब बात यह है कि समूचा विपक्ष न्यूज चैनलों पर और मीडिया के सामने सफाई और देश के कानून और संविधान की दुहाई ही देता रह गया और दूसरी तरफ कर्नाटक के राज्यपाल ने संविधान से ऊपर उठकर एक बिना बहुमत वाली पार्टी के नेता को कर्नाटक का तीसरी बार सीएम भी बना दिया। कर्नाटक की मुख्य विपक्षी पार्टी के तौर पर कांग्रेस को जब यह खबर मिली कि राज्यपाल वजुभाई वाला ने रात के नौ बजे भाजपा के पूर्व सीएम येदियुरप्पा को सुबह शपथ ग्रहण के लिए पत्र जारी कर दिया है, तो कांग्रेस और सहयोगी जीडीएस ने रात में ही संविधान के सबसे बड़े रखवाले यानि कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के घर पर जाकर शिकायत दर्ज करायी और यह मांग की कि सुप्रीम कोर्ट कर्नाटक के शपथ ग्रहण कार्यक्रम पर रोक लगा दें। परन्तु कांग्रेस के लिए एक ही दिन में यह दूसरी बड़ी नाकायाबी और निराशा हाथ लगी, यहाँ कुछ घंटों पहले कर्नाटक के राज्यपाल ने भाजपा के सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते सरकार बनाने का आमंत्रण दे दिया और देर रात इसी मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के बाद भी विपक्ष को कोई राहत नहीं मिली, और इसी के साथ सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक के सीएम के शपथ ग्रहण कार्यक्रम पर रोक नहीं लगायी।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने भाजपा के लिए भी कम मुश्किल नहीं खड़ी की, कोर्ट ने शपथ तो लेने दी लेकिन साथ ही इस मामले में सुनवाई जारी रखने का भी फैसला लिया, जिसका नजीता वहीं हुआ जिसका भारतीय जनता पार्टी को सबसे ज्यादा डर सता रहा था, और वह यह कि सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक की नये नवेले सीएम से कहीं हाल ही में बहुमत साबित करने को न कह दें। क्योंकि चुनाव परिणामों से तो साफ जाहिर है, कर्नाटक में राज्यपाल द्वारा जिस पार्टी की सरकार बनावा दी गयी, वह संविधानिक नहीं है, और नैतिकता के आधार पर स्थिर तो बिल्कुल भी नहीं। क्योंकि बहुत सीधा सा कानून है कि किसी भी विधानसभा में वही सरकार बन सकती है और टिक भी सकती है, जिसके पास बहुमत का आंकड़ा हो, लेकिन कनार्टक में भाजपा के पास सरकार में रहने या बनाने जैसा कोई बहुमत नहीं है, लेकिन फिर भी कर्नाटक के राज्यपाल वाजुभाई वाला ने किस आधार पर भाजपा को सरकार बनाने का न्यौता दिया? और किस आधार पर येदियुरप्पा को सीएम पद की शपथ भी दिला दी? यह तो वह ही जानते होंगे या फिर कानून का खास विश्लेषक। इस मुद्दे पर भी काफी राजनीतिक घरानों से लेकर राजनीतिक पंडितों में बहस जारी है। नजीता तो कानून और संविधान से ही निकल पायेंगे। हम इससे बाहर कितनी है बहसें क्यों न करते रहें।
राज्यपाल के खिलाफ कोर्ट का आदेश क्यों?
भाजपा की मुश्किल शुक्रवार की सुबह होते-होते और भी ज्यादा तब बढ़ गयीं जब इस मामले में सुनवाई कर रहे सुप्रीम की बैंच ने राज्यपाल के आदेश के खिलाफ यह आदेश जारी किया कि, एक दिन पहले सीएम बने येदियुरप्पा 15 के अंदर नहीं, कल यानि कि शनिवार की शाम 4 बजे तक विधानसभा में सरकार में बने रहने के लिए अपना बहुमत साबित करें। सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश कर्नाटक से लेकर दिल्ली तक के कांग्रेसी नेताओं और सहयोगी पार्टी जीडीएस के लिए अमृत से कम नहीं था, और वहीं दूसरी ओर भाजपा के लिए बहुत ही मुश्किल। लेकिन कोर्ट के इस फैसले ने एक बात स्पष्ट कर दी थी, कि कर्नाटके राज्यपाल ने जो फैसला भाजपा के हित में लिया था, वह संविधानिक नहीं था, यदि संविधानिक होता तो फिर कोर्ट राज्यपाल के दिए हुए 15 दिनों के समय को दिन ही दिन में तबदील नहीं करता। तो यहाँ गौर देने वाली बात यह भी है कि क्या वह सभी आरोप जो कि कर्नाटक के राज्यपाल पर समूचे विपक्ष और देश भर से लगाये जा रहे थे, सत्य थे? क्या राज्यपाल ने भाजपा के नेता के तौर पर काम किया? क्या राज्यपाल ने अपने पद की गरिमा को गिराया? क्या राज्यपाल यह भूल गये कि वह अपने भाजपा की गुजरात सरकार के मंत्री नहीं बल्कि एक राज्य के राज्यपाल हैं? राज्यपाल का काम होता है राज्य में कुछ भी या किसी भी सरकार द्वारा असंविधानिक न हो। यदि कहीं भी कुछ ऐसा हो रहा है जहां संविधान और लोकतंत्र पर खतरा है, तो राज्यपाल उसके रखवाले के तौर पर काम करते हैं। लेकिन यहाँ संविधान के रखवाले ने ही संविधान को मानने से इंकार कर दिया। देश के वर्तमान राजनीतिक हालातों के देखते हुए जहाँ दिन पर दिन कभी सत्ता काबिज दल और कभी विपक्ष में बैठे हुए दल अपनी बातों को मनवाने के लिए पुलिस-प्रशासन से लेकर संविधानिक पदों पर बैठे लोगों से रोब गालिब करने में लगे हुए हैं, ऐसे में यह बात स्पष्ट है कि फिर देश में लोकतंत्र, कानून, संविधान, व्यवस्था आदि शब्दों का क्या मायने बचता है, जब सब कुछ किसी भी तरह की भीड़ को ही तय करना है। लोकतंत्र, संविधान, कानून जहाँ होता है वहाँ भीड़ या असंवैधानिक तरीकों से कोई भी तंत्र, व्यक्ति या संगठन काम नहीं करता। लेकिन भारत में ऐसे घटनाएं और लोग बढ़ रहे हैं जो स्वयं को संविधान व लोकतंत्र से बड़ा मानते हैं। लेकिन आम जन और प्रत्येक राजनीतिक दल को यह जानना चाहिए कि संविधान व लोकतंत्र से बड़ा होना बहुत घातक है। यदि समय रहते हमने इस अलोकतांत्रिक तंत्र को नहीं रोका तो हम फिर अपने ही देश में रहते हुए गुलामी का शिकार होना पड़ेगा।
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