जांघो के बीच जांघो की जकड़
उभारों को टटोलती हाथ
कभी नाखूनों की खरोंच
तो कभी दाँतो का गड़ना
शराब की गंध और होंठो पर गर्मी
सब मिल कर एक दूसरे से
फैल रहे होते है कमरे में
ना ना के बीच कई और आवाज
दब जाती है हर रोज
सुबह उठती है
चूल्हा चौका करती
छुपाती है ,पल्लू से सारे काले- नीले निशान
दिन ढल कर शाम होता है
सजती संवारती खुद को फिर से
उतार देती है हर रात
दिन में ओढ़ी हुई परंपरा
बिछ जाती है बिस्तर पर
एक ठंडे लाश की भांति
कमरे का हर कोना आतुर होता है
समेटने के लिये शराब की गंध
दीवार खड़ा होता है
सोखने के लिये सारी आवाज़
बिताती रही जीवन स्त्रियाँ
कुछ इस तरह