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फैज़ान अंजुम की कविता: वो सात दिन और औरत ज़ात

कुछ सवालात हैं जो मैं तुमसे पूछना चाहता हूं,

मगर कुछ बंदिशे हैं जो नहीं देती मुझे इजाज़त इन मौज़ू पर बात करने की,

या यूं कहो शर्म का एक पैरहन यह समाज मेरी सोच पर ज़बरदस्ती लाद देता है।

हां यह मानता हूं कि ये कुछ सवाल मेरे लिंग से मुख़ालिफत रखते हैं।

मुझे बस इतना पूछना है, कि उन सात दिनों के दरमयां

क्यों औरत ज़ात को तुमने खुदा की इबादत करने से रोक दिया,

सज़दा करना तक हराम करार दिया,

मंदिरों के द्वार पर जाना वर्जित कर दिया,

अल्लाह की शान में तिलावतें क़ुरान भी मना फरमा दिया,

एक अंजानी सी एहसास जो अभी नादान है खुद को सबसे दर-किनार कर देती है

बस इसलिए क्योंकि उसके दामन को तुमने नापाकी का उन्वान दे दिया है।

क्यों स्नेहा बावर्चीख़ाने में नहीं जा सकती ?

क्यों स्मृति दिन में नहीं सो सकती ?

क्यों पायल किसी भी मर्द या औरत को छू भी नहीं सकती ?

क्यों फ़ातेमा रोज़ा नहीं रख सकती ?

क्यों ज़ोया तव्वाफ़-ऐ-क़ाबा भी नहीं कर सकती ?

क्यों सना दुरूद-ऐ-पाक़ नहीं पढ़ सकती ?

क्या उन सात दिनों में ऊपरवाला भी इन औरतों की बंदगी को खारिज कर देता हैं।

अगर हां! तो किस बुनियाद पर ?

औरत के जिस्म के उस हिस्से से बहता खून,

एक नई ज़िन्दगी की पैदाइश का सुबूत होता है।

यह एक हयातयाती अम्ल है जो क़ुदरत की इनायत है।

तुमने तो बड़ी आसानी से उस पूरे औरत ज़ात को ही

इस समाज में मज़हबी मुमानियत का दर्ज़ा दे दिया।

अरे! नापाक़ तुम हो, वो नहीं,

अपवित्रता तुम्हारी सोच में हैं, उसके नहीं,

ज़हन पाक़ होना जिस्म के पाक़ होने से कहीं ज़्यादा अहम हैं।

अगर इन हदीसों का हवाला है किसी शरीयत में,

तो नहीं मानता मैं ऐसी किसी शरीयत को।।

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