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उम्मीद जगाता है, आयरलैंड में जनमत संग्रह से अबॉर्शन कानून में सुधार

“एक आधुनिक देश के लिए एक आधुनिक संविधान की ज़रूरत है।” इस वाक्य के साथ आयरलैंड के प्रधानमंत्री लियो वाराडकर जो भारतीय मूल के हैं, ने 35 साल पहले अबॉर्शन कानून को जनमत संग्रह के बहुमत वोटों के समर्थन से पलट दिया है, जो कमोबेश 66 प्रतिशत के आस-पास था। यह महज संयोग है कि अबॉर्शन कानून की मुहीम की शुरुआत भारतीय मूल की सविता हलप्पनवार की मौत के बाद हुई और इसके समाधान की दिशा में जनमत संग्रह से पुराने कानून को पलटने की कोशिश भारतीय मूल के प्रधानमंत्री लियो वाराडकर ने की। प्रधानमंत्री लियो वाराडकर ने कहा, “हम आयरलैंड के मतदाता महिलाओं के सही निर्णय लेने और अपने स्वास्थ्य के संबंध में सही फैसला करने के लिए उनका सम्मान और उनपर यकीन करते हैं।”

आयरलैंड में अबॉर्शन कानून पर जनमत संग्रह का नतीजा इस बात का संकेत है कि धर्म का दखल इंसानी हकूक और सरकार के निर्णयों में नहीं होना चाहिए। इस बात से इंकार नहीं है पूरे विश्व में आज भी लोगों के जीवन में धर्म का दखल है, लेकिन आधुनिक समाज और सरकारों में मध्ययुगीन नियम-कायदों की कोई जगह नहीं हो सकती है। मानवीय हितों के फैसलों के लिए जनमत संग्रह के द्वारा फैसला लोकतंत्र को मज़बूत करता ही है और सही दिशा की तरफ उठाया गया एक बड़ा कदम भी है।

1983 में आयरलैंड में आठवें संशोधन में व्यावहारिक रूप से अबॉर्शन पर पाबंदी लगा दी गई थी। एक पुराने कानून को मज़बूती दी गई थी जो अजन्मे बच्चे और उसकी मां को बराबरी से जीने का अधिकार देता है। इस कानून में अबॉर्शन की अनुमति तभी मिल सकती थी जबकि बच्चे से मां की जान को खतरा हो।

हालांकि यह संसोधन साल 2013 में किया गया था। इस कानून के साथ विचित्र स्थिति यह थी कि बलात्कार या रक्त संबंधित से हुए गर्भधारन की दशा में भी यह कानून गर्भपात की इजाजत नहीं देता था।

2012 में आयरलैंड के डबलिन में भारतीय मूल की डेंटिस्ट सविता हलप्पनवार की मौत के बाद आयरलैंड में अबॉर्शन कानून बहसों के घेरे में था। मामला था 17 हफ्ते की गर्भवती सविता को गर्भपात कराने की इजाजत नहीं दिया गया जिसके बाद खून में ज़हर फैलने से उसकी जान चली गई। वजह थी रोमन कैथोलिक देश में अबॉर्शन कानून गर्भपात की मंज़ूरी नहीं देते। इस मामले पर पूरी दुनिया में चर्चा हुई और आयरलैंड में नागरिकों का एक तबका इसके खिलाफ लामबंद होने लगा। मौजूदा जनमत संग्रह में सविता हलप्पनवार की तस्वीर प्रमुखता से देखने को मिली।

यह कानून आयरिस महिलाओं के लिए इसलिए भी बहुत मायने रखता है क्योंकि इस कानून के वजह से हर रोज करीब 10 आयरिश महिलाओं को गर्भपात के लिए देश के बाहर जाना पड़ता है। साल 1992 में एक रेप पीड़िता के गर्भपात की मांग को लेकर सरकार के खिलाफ प्रदर्शन के बाद सरकार ने लोगों को देश के बाहर जाकर गर्भपात की अनुमति दे दी थी, इसके बाद आररिश महिलाएं देश के बाहर गर्भपात के लिए जाने लगी।

वास्तव में आयरलैंड ही नहीं पूरे विश्व में अबॉर्शन कानून महिलाओं के अपने शरीर पर हकूक के साथ-साथ दो मान्यताओं के टकराव का मामला भी है, जो जीवन कब शुरू होता है यानी जीवन पक्ष और चयन पक्ष, यानी औरतों को गर्भपात का अधिकार जो यह कहता है कि जीवन तब शुरू होता है जब भ्रूण जीवन सक्षम हो, यानी मां के शरीर से बाहर जीवित रह सके।

आयरलैंड विश्व का अकेला देश नहीं रहा है जो अबॉर्शन कानून पर इतना सख्त रवैया रखता है, कैथौलिक मान्यता को मानने वाले सभी देशों में गर्भपात को लेकर सख्त कानून है। लैटिन अमेरिका के कई देश, अल सल्वाडोरा, इंडियाना, मीना के कई देश, अफ्रीका के करीब आधे देश, एशिया पैसिफिक के देश और यूरोप के कुछ देशों में अबॉर्शन पर सख्त कानून से सहमत हैं।

बहरहाल, किसी का भी शरीर उसका अपना शरीर है जब अंगदान करने में उसकी स्वेच्छा है तो गर्भपात को लेकर फैसलों पर भी उस महिला का ही अधिकार होना चाहिए क्योंकि शरीर और भावना के तौर पर महिलाएं ही अपने गर्भ से जुड़ी हैं। ऐसे में इस रिश्ते को चुनने का अधिकार भी उसे ही होना चाहिए।

उम्मीद है कि सिर्फ आयरलैंड ही नहीं बल्कि अन्य देशों के लोग महिलाओं के अधिकारों के बारे में गंभीरता से सोचेंगे। और जनमत संग्रह के लोकतांत्रिक तरिके से उनके समाधान की दिशा में आगे बढ़ेंगे। क्योंकि जनमत संग्रह से मानवीय हितों के फैसले लोकतंत्र को मज़बूत करने के साथ उम्मीद भी जगाते हैं।

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