सुपर पावर अमेरिका को यह लगने लगा है कि उसका दबदबा दुनिया में कम होता जा रहा है। उसकी अहमियत अन्य देशों की नज़रों में लगातार गिरती जा रही है, डर यह भी है कि चीन और रूस उसको पीछे ना छोड़ दें! बस इसी खतरे से बाहर निकलने के लिए अमेरिका अपने ही फैसलों पर नहीं टिक पा रहा है। इसमें हाल ही में हुई मुख्य घटना ईरान समझौते को नकारना और मैक्सिको तथा कनाडा को अल्टीमेटम देना, उसकी हड़बड़ाहट को दर्शाता है।
बहुत कोशिशों के बावजूद भी अमेरिका नॉर्थ कोरिया पर अपना रोब नहीं जमा सका। जबकि यह साबित है कि नॉर्थ कोरिया परमाणु गतिविधियों में लीन है और ईरान पर केवल शक है कि वह परमाणु हथियारों को तैयार कर रहा है। यह दोगला व्यवहार इसलिए किया गया कि नॉर्थ कोरिया के साथ चीन का खुला सपोर्ट है जबकि ईरान अकेला अमेरिका से टक्कर लेने को तैयार खड़ा है, उसका कोई पड़ोसी देश भी उसके इस वक्त में साथ नही दे सकता। अगर सीरिया को ईरान के साथ मान भी लिया जाए तो सीरिया तो खुद संघर्ष कर रहा है। वहीं रूस को भी ईरान का हमदर्द नहीं समझा जा सकता क्योंकि रूस ईरान के साथ तब तक ही है, जब तक रूस अमेरिका का विरोधी है और ईरान उसका ग्राहक(हथियार) बना हुआ है।
इससे साफ है कि जब तक रूस को फायदा है केवल तभी तक वह ईरान के साथ है। चीन खुलकर तो ईरान को सपोर्ट नहीं करता लेकिन अंतराष्ट्रीय अस्तित्व को बनाने के लिए रूस और चीन अमेरिका के मुकाबले ईरान को ही सपोर्ट करेंगे, अगर यह खुले तौर पर सपोर्ट ईरान को मिल गया तो अमेरिका ने इस निर्णय से अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने वाले हालात का बनना तय है। जिससे पूरी दुनिया इस युद्ध में शामिल होगी, आंतरिक तौर पर या बाहरी तौर पर।
अमेरिका यह भी कह चुका है कि वह ईरान की जनता के विरुद्ध नहीं है। अमेरिका को दिक्कत ईरानी सरकार से है और ईरान अमेरिका विवाद में केवल अमेरिका का गुस्सा या ईरान की परमाणु गतिविधियां मुख्य कारण नहीं है। कुछ अन्य देश भी अमेरिका को ईरान पर सख्ती करने के लिए उकसा रहे है जिनमें इजराइल, सऊदी अरब और फ्रांस मुख्य तौर पर सामने आ रहे हैं क्योंकि सऊदी का ईरान के साथ यमन में विवाद किसी से छुपा नहीं है। जिसकी वजह से सऊदी ने अमेरिका से बहुत हथियारों की खरीद भी की जो अब तक का 98% केवल पिछले 2-3 साल में खरीदा गया।
और भी धार्मिक वजहों से सऊदी, ईरान का विरोधी है। वहीं इज़राइल और ईरान का सीरिया में चल रहा विवाद यह पुख्ता करता है कि इज़राइल, ईरान को अंतराष्ट्रीय स्तर पर कमज़ोर करना चाहता है। इज़राइल को डर है कि अगर गलती से भी ईरान ने कोई बड़ा हथियार बना लिया तो उसका प्रभावी परीक्षण इज़राइल पर ही किया जाएगा। जबकि खुद ईरान भी अमेरिका से जन्में हर विवाद के लिए सऊदी और इज़राइल को ही ज़िम्मेदार मानता है। ईरान का कहना है कि अगर युद्ध जैसी स्थिति बनती है तो इसके ज़िम्मेदार सऊदी और इज़राइल होंगे और ऐसे हालात में सऊदी और इज़राइल को भी युद्ध के गंभीर परिणाम झेलने होंगे।
यहां अमेरिका के ईरान से समझौते को खत्म करने की बात को बेवकूफी कहा जा सकता है और इस बेवकूफी की हद युद्ध पर जाकर ही रुकती है। जिससे पूरी दुनिया का प्रभावित होना तय है, जिससे फायदा किसी को ना होकर केवल नुकसान ही हासिल होगा!