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रोहिंग्या शरणार्थी नूर से मेरी मुलाकात: “हम अपनों की लाशों पर चलकर यहां तक पहुंचे हैं।”

सच यह भी है कि ज़िन्दगी में सोचना बहुत ज़रूरी है, सोच की वजह से ही इंसान बिना किराये और पासपोर्ट के बहुत सी यात्राएं कर लेता है। शायद इसी सोचने को खुली आंखों से सपने देखना कहा जाता है। यही सोच सुनहरा पल, भविष्य की कल्पना, डर या खुशी आदि हो सकती है।
लेकिन मैं जिसकी बात कर रहा हूं, यह एक डर की ज़िंदगी में खुशी के पल को सोचने और उसी में खुशी मना लेने की बात है। मेरी सोच तो आप पढ़ रहे हैं, लेकिन आप खुद भी सोचिये कि जीवन के अगले पल की किसी को कोई खबर नहीं कब क्या हो जाये अर्थात मौत कब आ जाये इसका किसी को नहीं पता परन्तु भारत में आकर रुके रोहिंग्या (शरणार्थी) के डर के बारे में आप सोचिये।

उनकी ज़िंदगी के बारे में सोचिये और उस ज़िन्दगी में बस चुके डर के बारे में सोचिये, रोहिंग्या पर होने वाली देश-दुनिया की राजनीति से उनमें पैदा होने वाले डर के बारे में सोचिये। आपसे उनकी मदद करने को नहीं कहा जा रहा, क्योंकि यह आप और देश पर अतिरिक्त बोझ हो सकता है। इसलिए आप सिर्फ सोचिये। देश में अभी संविधान की बात करना अपराध है और अब तो इंसानियत की बात करना देशद्रोह लेकिन, सोचना अभी अपराध की शैली में शामिल नहीं किया गया है। इसलिए मेरे साथ -साथ आप भी सोचिये।

दिल्ली के श्रम विहार में एक शरणार्थी (रोहिंग्या) महिला (शाही नूर) से मिला, शाही नूर का कहना है कि इंसान होने की वजह से हमारा भी दिल करता है कि हम सुकून से रह सकें। नूर को नहीं लगता के किसी भी देश के कानून में यह लिखा होगा कि किसी अन्य मुल्क से आये परेशान और मजबूर लोगों को मार देना चाहिए या मारकर वहां भगा देना चाहिए जहां उनकी जान को खतरा है, लेकिन हम सबको रोहिंग्या ही क्यों नज़र आते है? किसी को क्यों नहीं दिखाई देता कि हम भी इंसान ही है और सबकी तरह हमारा भी मन करता है कि हमारा जीवन भी खुशहाल हो।

भारत में कभी कभी हिन्दू रक्षा दल तो कभी भारत सरकार की तरफ से यह कहा जाता रहा है कि इनको वापस भेज दिया जाए या भेज दिया जाएगा। इस वापस भेज देने वाली बात से हमें जो डर और दर्द होता है उसका अंदाज़ा शायद कोई नहीं लगा सकता। इस डर की वजह से हमें रातों को नींद नहीं आती थक हारकर कभी सो भी जाओ तो अपने बच्चों के भविष्य की चिंता हमें जगा देती है।

नूर से जब वापस जाने के बारे में पूछा गया तो उनका कहना था कि वापस तो अब हमें जाना ही नहीं है, चाहे हमें यही मारकर मुद्दा ख़त्म क्यों न कर दिया जाए। अब मसला खत्म होना चाहिए हमें बसाकर या हमें ज़मीन में दबाकर।

नूर ने यह भी बताया कि हम लोग आपस में मज़ाक करके इतना हंसते हैं कि आंखों से आंसू निकल आते हैं। यह हंसी सच्ची कम झूठी ज़्यादा होती है। हम इसलिये भी ज़्यादा हंसते हैं ताकि हम अपने दर्द को छुपा या भुला सकें। नूर ने म्यांमार से भारत तक आने में हुई कठिनाइयों के बारे में हमसे बात करने से मना कर दिया। उन्होंने बस इतना बताया कि

हमारे दर्द को बस इस बात से समझ सको तो समझ लो कि हम अपनों की लाशों पर पैर रखकर यहाँ तक पहुंचे हैं। जो दर्द हमने सहन किया अल्लाह किसी को उस परेशानी का सामना ना कराए और वैसे भी हम उस दर्द को भुलाना चाहते हैं जो एक मुश्किल काम है।

खैर नूर की बात सुनकर केवल यही सोच रहा हूं कि देश के हर ज़िम्मेदार नागरिक और सरकार को रोहिंग्या की मूलभूत ज़रूरतों के बारे में सोचना चाहिए। क्या केवल राजनीतिक नज़रिए से भारत सरकार के रोहिंग्या को आतंकवादी कहने भर से रोहिंग्या आतंकवादी साबित हो जाएंगे? किसी भी सम्पूर्ण समाज को एक ही नज़रिये से कैसे देखा जा सकता है?

एक बार फिर सोचिये भारत अपने सदभाव और सदाचार के लिए दुनियाभर में जाना जाता है और जब रोहिंग्या के खिलाफ कोई बड़ा अापराधिक मामला आजतक भारत के किसी भी शिकायत केंद्र में कहीं दर्ज नहीं हुआ तो क्या यह उन परेशान लोगों के साथ अन्याय नहीं है कि उनकी मदद करने केे बजाय उनको आरोपी बताया जाए।

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