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आपको जानना है कि फिर कठपुतली कॉलोनी का क्या हुआ?

बात अक्टूबर के आखिरी दो दिनों और नवम्बर के पहले 10 दिनों की ही नहीं है, ये बात विगत 9 वर्षों की है। 4 सितम्बर 2009 से अब तक की, आज तक की, आज मेरे द्वारा लिखे जाने तक की। एक मानव बस्ती को उजाड़ दिया गया उसे फिर से बसाने के लिए। बसाने के लिए, जैसा सरकार चाहती थी, जैसा सरकार द्वारा अधिकृत कोई निजी संस्था चाहती थी। कोई भला बस्ती में रहने वालों से पूछ के समय और धन क्या खराब करे?

गरीब के अलावा सब को गरीबी का पता है, उनके अलावा सबको पता है कि उन्हें कैसे रहना चाहिए। एक अंतर निहित है आवास की कमी तथा आवासीय संकट में। आवास की कमी हमेशा आवासीय संकट नहीं होता ऐसा सिर्फ दिखता है। या फिर दिखाने की कोशिश की जाती है। ये कोशिश की जाती रही है। ताज़ा मामला कठपुतली कॉलोनी का है। वो बस्ती जो किसी के लिए घर था, किसी के लिए फील्ड वर्क, किसी के लिए डॉक्यूमेंट्री का लोकेशन, किसी का प्रोजेक्ट और बहुतों के लिए चोर-गुंडों का ठिकाना। परंतु असली में कठपुतली कॉलोनी क्या है? ये किसी ने जानने की कोशिश ही नहीं की।

कोशिश करते तो पता चलता क्या होता है अपना घर जो वर्षों की मेहनत से बना था उसे अपनी आंखों के सामने टूटता देख। पुलिस की लाठी देख भागते कैसा लगता है? कैसा लगता है अपने परिवार को लेकर चुपचाप छोटे से टिन-शेड ट्रांज़िट कैम्प में रहना। कैसा होता है पलायन? कैसा होता है वो पूरा समयचक्र जब आप अपने घर के मलवे से यादें जुटा रहे हों और एक तरफ पुलिस की लाठी हो और दूसरी ओर मीडिया का कैमरा और पीछे कहीं से आपके बच्चे के चीख़ने की आवाज़ आ रही हो? बहुत मुश्किल है समझना।

कठपुतली कॉलोनी पर इतने रीसर्च पेपर छपे हैं कि ज्ञान का पूरा भंडारण हो सकता है परंतु यहां आवश्यक शहरी गरीबी और शहरीकरण की थ्योरी पर माथापच्ची करने का समय नहीं है। बात करते हैं उस दिन के बाद से जब कठपुतली कॉलोनी पूरी तरह टूट गयी, लोग भगा दिए गये (इसे पुनर्वासित भी पढ़ सकते हैं) और मलबा साफ करके हज़ारों मकानों को मैदान बना दिया गया।

पश्चिम दिल्ली के शादीपुर में बसी कठपुतली कॉलोनी 5 दशकों से भी पुरानी बस्ती है। यहां अलग-अलग 14 समुदायों के 4000 से भी अधिक परिवार रहते थे। यहां के लोग मुख्यतः कठपुतली के खेल, लोक कला, संगीत, मज़दूरी और कूड़ा बीनने आदि का काम करते थे। राजीव आवास योजना के अंतर्गत वर्ष 2009 में कठपुतली कॉलोनी को “पब्लिक-प्राइवट पार्ट्नर्शिप” में इन-सीटू स्लम पुनर्विकास (यथा स्थान निर्माण) के लिए चयनित किया गया। इस हेतु कॉलोनी की पूरी ज़मीन रहेजा बिल्डर को 6 करोड़ रुपए में दिया गया। राहेजा और डीडीए के बीच पुनर्विकास को लेकर हुआ करार मुंबई के बस्ती पुनर्विकास योजना को ही आधार बनाया गया। जिसमें पूरे परिक्षेत्र के 80% हिस्से पर घर बनेंगे और बाकी 20% पर बिल्डर किसी अन्य आर्थिक कार्य में उपयोग में ला सकते हैं। राहेजा ने उस स्थान पर 2800 इकनॉमिक वीकर सेक्शन हेतु आवास बनाने की परियोजना बनायी और साथ में 170 प्रीमीयम फ्लैट्स भी।

ये आवास सभी मूलभूत सुविधाओं से लबरेज़ होंगे और इस योजना की मुख्य बात ये थी कि इस योजना के पहले किसी तरह का सर्वेक्षण किया ही नहीं गया था। फिर 2800 फ्लैट्स की संख्या कहां से आयी? उसके बाद जब 2011 में पहला सर्वेक्षण किया गया तो कुल घरों की संख्या थी 2641। इस सर्वेक्षण में कई परिवार अलग-अलग कारणों से शामिल ही नहीं हो पाए थे। लोगों ने इस सर्वेक्षण को आधार मानने से मना कर दिया। इस सर्वेक्षण के आधार पर डीडीए द्वारा पहले दौर का इविक्शन शुरू किया गया। इस दौरान पुलिस की क्रूरता सामने आई जिसमें लोगों पर लाठियां बरसाई गयी, आंसू गैस का उपयोग किया गया, लोग डर के कारण आनंद परबत स्थित ट्रांज़िट कैम्प में शिफ्ट होना शुरू हो गये। वहीं बड़ी संख्या में परिवारों ने जाने से मना कर दिया।

फिर लोगों ने दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर की और अगले सर्वेक्षण तक किसी भी तरह के तोड़-फोड़ पर रोक लगा दी और यह कहा कि जो लोग स्वेच्छा से जाना चाहते हैं वो जाएं किंतु किसी को भी बल प्रयोग अथवा विवश करके वहां नहीं भेजा जाएगा। 2015 के आते-आते फिर से सर्वे करने की मांग तेज़ हो गयी। 2016 में उप राज्यपाल ने दिल्ली में पुनर्वास के नियम में कुछ बदलाव किए और बस्ती के पुनर्वास की समय सीमा बढ़ा कर 2015 कर दी। इस कारण सर्वे करने की मांग और तेज़ हो गयी। 2017 जनवरी के बाद फिर से सर्वे किया गया।

25 अक्टूबर को नोटिस मिलने के बाद डीडीए के विकास सदन स्थित कार्यालय के बाहर योग्यता को लेकर 3 लिस्ट चस्पा किए गये। पहली लिस्ट उन 2800 परिवारों की जो इन-सीटू पुनर्विकास के तहत उसी स्थान पर आवास मिलने के लिए योग्य हैं, दूसरी लिस्ट उन 492 परिवारों की जो नरेला में पुनर्स्थापन के लिए योग्य हैं और तीसरी सूची उन 771 परिवारों की जो किसी भी तरह के पुनर्वास हेतु अयोग्य हैं। इन परिवारों के निर्धारण तथा सर्वेक्षण में कई खामियां थी और इन सूचियों को लोगों ने मानने से मना कर दिया क्योंकि इस सूची को चुनौती देने का उन्हें समय ही नहीं दिया गया और ना ही इस सूची में सुधार का। कारण ये था कि कोई भी सूची पूरी तरह से सही नहीं थी। सूची में दिए गये अयोग्यता के कारण गलत निकले, वहीं नरेला में घर आवंटन की विधि को भी चुनौती दिया गया। यह कहा गया कि 2011 जो कि पिछली योग्यता समय सीमा थी, से लेकर 2015 तक के दस्तावेज़ वाले परिवारों को लौटरी के माध्यम से नरेला में घर आवंटित किए जाएंगे। परंतु यह सूची पूरी तरह से इस पर आधारित नहीं थी।

बेदखली का दौर: हिंसा और अन्याय।

30 अक्टूबर 2017 को शुरू हुआ तोड़-फोड़ का सिलसिला अगले दो सप्ताह तक चला जिसमें 4000 के करीब घर तोड़े गये। सबसे अधिक घर 31 अक्टूबर की कार्रवाई में तोड़े गये थे। इस दौरान पुलिस ने लोगों को घर से बाहर निकालने और सामान खाली करवाने के लिए लाठी चार्ज से लेकर आंसू गैस के गोले तक का प्रयोग किया। दरअसल कॉलोनी के लोगों को 26 अक्टूबर के दिन सामूहिक रूप से कुछ पर्चे बांटे गये और कुछ पर्चे जगह-जगह चिपकाए गये कि 5 दिन के भीतर बस्ती ख़ाली करके उनको आबंटित जगह पर चले जाएं वरना कार्रवाई की जाएगी। दिल्ली विकास प्राधिकरण द्वारा चलाए गये पहले दिन की कार्रवाई में 100 से भी अधिक घर तोड़े गये जिसमें 5 बुलडोज़र और 100 से भी अधिक पुलिसकर्मी का प्रयोग हुआ था। इस पूरे कार्यवाहीं के दौरान पुलिस की बर्बरता तथा मानव अधिकार उल्लंघन की कई घटनाएं सामने आयीं। 31 अक्टूबर की रात को एक वर्ष के एक बच्चे की भी मौत हुई जिसका कारण स्थानीय लोग आंसू गैस का प्रयोग बताते रहे, हालांकि इस बात की कभी पुष्टि नहीं हो पायी। लोगों के साथ संघर्ष करने वाले सिविल सोसाइटी तथा अन्य आंदोलनों के साथियों को भी बुरी तरह पीटा गया, उन्हें कॉलोनी में अंदर घुसने से रोका गया और अदालत द्वारा स्टे मिलने के बावजूद लोगों को उनका काम करने से रोका जा रहा था। कॉलोनी के लोगों का संघर्ष जारी रहा और अब तक जारी है। उन्होंने इस दौरान दिल्ली के मुख्यमंत्री से लेकर, उपराज्यपाल और भारत के प्रधानमंत्री तक के सामने अपनी बात रखी। महिला सुरक्षा, बाल अधिकार और आवास के अधिकार का हनन एक बड़ा मुद्दा बना रहा।

कानूनी संघर्ष: उच्च न्यायालय, दिल्ली में जनहित याचिका।

31 अक्टूबर को दिल्ली उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की गयी जिसमें इस असंवैधानिक तथा गैरकानूनी उजाड़ीकरण को तत्काल प्रभाव से रोकने की मांग की गयी। न्यायालय ने तत्काल प्रभाव से यथास्थिति का आदेश दिया। आदेश के बावजूद तोड़-फोड़ पर रोक नहीं लगी। एक दिन बाद डीडीए द्वारा पुनर्विलोकन याचिका (रिव्यू पिटीशन) डाली गयी जिसके बाद न्यायालय ने अपने आदेश में कुछ संशोधन किए, इस संशोधन के मुख्य बिंदु थे

परंतु इन आदेशों का खुलकर उल्लंघन किया गया। लोगों को ज़बरदस्ती उनके घर से निकाला गया तथा उन्हें स्वेच्छा से खाली किए घर घोषित करके उन्हें गिरा दिया गया। इसी तरह मलबा साफ करने के नाम पर कई घरों को गिराया गया। इनेलिजिबल लिस्ट में कई परिवार ऐसे थे जो एक बहुमंज़िल घरों में रहते थे और निचले मंज़िल का परिवार एलिजिबल लिस्ट में था। इस तरह के गड़बड़ी के बावजूद उनके घर तोड़ दिए गये।

इन सब गड़बड़ियों को लेकर कई बार अदालत में आदेश के अवमानना का मामला लेकर दलीलें रखी गयी और ऐसी ही एक सुनवाई में 6 नवम्बर को अदालत ने एक 3 सदस्यीय दल का गठन किया जिसमें अलग-अलग सामाजिक संस्थाओ के प्रतिनिधि थे और उन्हें यह कार्य सौंपा गया कि वह इस बात की जांच करे कि ऐसे कितने परिवार हैं जो इनेलिजिबल लिस्ट में हैं परंतु नियमों के अनुसार वो पुनर्वास के लिए योग्य हैं, कितने परिवारों का घर उनकी इच्छा के विरुद्ध तोड़ा गया, कितने परिवारों का घर सुनवाई का मौका दिए बगैर अदालत के आदेश के बाद तोड़ा गया इत्यादि।

इस आयोग के कार्य करने में भरसक रुकावट पैदा की गयी। कई बार तो आयोग के सदस्यों को बुलडोज़र के आगे आकर तोड़-फोड़ रुकवाना पड़ा। इस सब के दौरान जब आयोग का रिपोर्ट गया तो उसके आधार पर 5 दिसम्बर 2017 को अदालत ने बाकी बचे गये घरों को ना तोड़ने का आदेश दे दिया। लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी और 4200 के करीब घरों में से सिर्फ 53 घर ही बच पाये थे। अब तक आदेश के अनुसार किसी भी तरह के निर्माण पर रोक था परंतु रहेजा बिल्डर्स ने पूरे परिक्षेत्र को घेरकर टीन की चारदीवारी लगा दी, पूरी भूमि समतल कर दी और कई जगहों पर पानी की बोरिंग भी कर दी।

इन सभी घटनाक्रम में जो पूर्णतः नदारद थे वो थे दिल्ली के मुख्यमंत्री

1 नवम्बर को अरविंद केजरीवाल ने कॉलोनी का दौरा किया और हर संभव मदद करने का आश्वासन दिया। मदद कई अलग-अलग माध्यमों से पहुंचता भी रहा। परंतु ये मदद लोगों की मुख्य मांगों से जुड़ी नहीं थी, उनके आवास से जुड़ी नहीं थी। फिर सामाजिक संस्थाओं से संवाद के बाद उन्होंने उपराज्यपाल को एक चिट्ठी लिखी जिसमें उन्होंने रहेजा द्वारा बनाए गये प्लान को लेकर दिक्कतें गिनायी तथा यह बात रखी कि चूंकि दिल्ली में स्लम पुनर्विकास तथा पुनर्वास की ज़िम्मेदारी दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड की है अतः उन्हें पहले यह अवसर प्रदान किया जाए कि वो भी कॉलोनी के पुनर्विकास की कोई योजना सामने रख सके।

यह चिट्ठी अदालत में भी रखी गयी परंतु शुरुआत के दिनों में इस पर खास जिरह नहीं हो पाई। इस दौरान 7 फरवरी को हुए सुनवाई के दौरान न्यायालय ने बचे हुए 53 घर भी गिराने का आदेश दे दिया। बांकि घरों के टूटने के बाद लगभग रास्ता साफ हो गया था और निर्माण कार्य प्रारम्भ होने की सुगबुगाहट भी तेज़ हो गयी। हालांकि निर्माण कार्य पर रोक अभी भी लागू है। अंततः 20 मार्च को हुई सुनवाई में मामला जुलाई तक स्थगित कर दिया गया और तब तक स्टे कायम है। एक अच्छी बात यह रही है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री के आग्रह तथा अदालत में बार-बार रहेजा बिल्डर की योजना में खामी की बात पर अदालत ने यह आश्वासन दिया कि यदि एक बेहतर योजना का विकल्प तैयार होता है तो उस पर ज़रूर बात की जा सकती है।

इस हेतु दिल्ली सरकार के आग्रह पर बस्ती बचाओ संघर्ष समिति के साथियों ने स्थानीय लोगों के साथ मिलकर डिज़ाइन के ऊपर काम करना शुरू किया। करीब 1 महीने में एक योजना तैयार की गयी। लोगों को ये योजना ठीक लगी। और लोगों ने कहा कि इस योजना को दिल्ली सरकार को सौंपा जा सकता है। इस याचिका के साथ कुछ अन्य याचिकाएं ट्रांज़िट कैम्प के बदहाल, वर्तमान योजना को बदलने तथा तोड़-फोड़ के दौरान महिलाओं तथा बच्चों के साथ हुए अत्याचार व उनके प्रजनक अधिकारों को लेकर की गयी थी। जिसमें कुछ याचिकाओं को जनहित याचिका के साथ ही संलग्न कर दिया गया तो कुछ को आगे नहीं बढ़ाया गया।

अदालत में हुई कार्रवाई से एक बात स्पष्ट थी कि सब बहुत जल्दी में हैं, वो बहस जैसी बेकार चीज़ों में समय व्यर्थ नहीं करना चाहते। स्थिति-परिस्थिति तथा अधिकारों को लेकर अदालत 15 से भी अधिक सुनवाइयों में चुप रही। बच्चों की शिक्षा, महिला सुरक्षा और यहां तक कि ठंड में छिन्न-भिन्न हो रही जिंदगियों पर भी अदालत सुनवाई स्थगित करता रहा। इसका एक कारण यह भी था कि सब कुछ इतने सुनियोजित रूप से प्रायोजित था कि लोग इस असमंजस में रहे कि वो अदालत तक अपनी बात रखें, या घर की रक्षा करें, डीडीए के कार्यालय जाकर पर्ची की कतार में खड़े हों या फिर सड़क पर बैठे अपने परिवार को ढांढस बंधाए। खैर, इस समय अदालती कार्रवाई जुलाई तक स्थगित है और अदालत ग्रीष्म अवकाश पर जाने को है। अधिकांश लोग ट्रांजिट कैम्प में भर दिए गये हैं, बाकी अभी भी ठंड से गरमी की करवट में आस-पास ही करवट ले रहे हैं।

ट्रांजिट कैम्प की स्थिति: समाप्ति के ठीक पहले वाला संघर्ष।

रहेजा बिल्डर की योजना का एक बड़ा हिस्सा और खर्च 2800 परिवारों के लिए ट्रांज़िट कैम्प का निर्माण तथा संचालन का था। परंतु 7 एप्रिल को अदालत द्वारा नियुक्त समिति के दौरे के बाद यह स्पष्ट रूप से निकल कर आया कि ट्रांजिट कैम्प कुछ भी है परंतु मानवीय पर्यावास के योग्य नहीं है। बनावट, रख-रखाव, सुविधाओं तथा सुरक्षा सब कुछ एक बड़ा मुद्दा है। कॉलोनी जहां मेन रोड पर दो मेट्रो के बीचों-बीच बसा था वहीं ट्रांज़िट कैम्प मैं रोड और मेट्रो से करीब 2 किमी की दूरी पर बसा है जहां मुख्य मार्ग से जाने का मात्र साधन ऑटो-या ई-रिक्शा है। कैम्प के आस-पास पूरा इलाका पहाड़ी पर बसा हुआ है।

एक ओर जहां कैम्प का स्थापन एक अहम मुद्दा है वहीं कैम्प के अंदर की स्थिति उससे भी अधिक चिंताजनक है। सबसे चिंताजनक है लोगों के अंदर असुरक्षा का भाव।

पानी का रंग

करीब 4 साल से कैम्प में रह रहे लोगों के अंदर भी और पिछले कुछ महीनो में आए लोगों के अंदर भी। क्या होने वाला है, उनके टूटे घरों

 के बदले क्या उन्हें कभी कुछ मिल पाएगा। साथ ही साथ कैम्प के अंदर भी सामाजिक सौहार्द में कमी आयी है। 7 अप्रैल को हुए दौरे के बाद यह निकल कर आया कि लोग बहुत परेशान हैं। पीने के पानी की स्थिति सबसे खराब है। लोग बीमार पड़ रहे हैं, कैम्प के घरों में रोज़गार नामुमकिन है। जीविका पूरी तरह नष्ट हो चुका है। स्कूल दूर हो गये हैं, बहुत सारे बच्चों ने पढ़ाई छोड़ दी है। जो स्कूल जाते भी हैं उन्हें घर पर पढ़ाई का ना ही स्थान मिल पाता है और ना ही समय।

वर्तमान स्थिति: अभी आशाएं बाकी है।

अधिकांश लोगों तथा देश की कई सामाजिक संस्थाओं ने इस पूरी परियोजना के विकास योजना को लेकर प्रश्न खड़े किए। इन प्रश्नों में लोगों के रोज़गार के मुद्दे को लेकर, उनकी जीवनशैली, सांस्कृतिक परिदृश्य को लेकर और देश में विकसित हो रहे “वर्टिकल स्लम” को लेकर थे। लोगों के साथ मिलकर सामाजिक संगठन “बस्ती बचाओ संघर्ष समिति, दिल्ली” के कार्यकर्ताओं द्वारा बनायी गयी योजना कई मामलों में राहेजा बिल्डर्ज़ के योजना से बेहतर विकल्प है। सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि पूरे क्षेत्र को आवास के लिए ही उपयोग किया जा रहा है। इसके साथ वहां के लोगों का रोज़गार तथा जीविका पूरी तरह ठप्प पड़े हुए हैं। पिछले महीने 24 अप्रैल को केंद्रीय आवास एवं शहरी कार्य मंत्री हरदीप सिंह पूरी द्वारा शिलान्यास भी करवा दिया गया।

यह हैरान करने वाली बात है कि जब निर्माण पर सभी तरह के रोक लगे हुए हैं और योजना अभी भी अदालत में प्रश्न के मध्य है, ऐसे में केंद्रीय मंत्री का एक अदालत के विचाराधीन मामले में इस तरह आकर एक परियोजना का शिलान्यास करना कितना उचित है? मीडिया द्वारा भी इस बात को खूब फैलाया गया कि लोगों को अब अच्छे मकान मिलेगा और लिफ्ट जैसी सुविधा मिलेगी। परंतु समझने योग्य बात यह है कि 15 मंज़िले भवन में लोग अपना रोज़गार चला कैसे पाएंगे। यदि रोज़गार ना रहा तो लिफ्ट और घर का मेंट्नेन्स कहां से होगा? ये कुछ ऐसे महत्वपूर्ण प्रश्न हैं जो हम वस्तुतः पूछने से कतराते हैं। सामाजिक संस्था लोगों के साथ उनके संघर्ष में लगे रहे, लोग लड़ते रहे। भीषण ठंड में ज़मीन छोड़ने को तैयार नहीं थे, पुलिस गश्त पे रहती थी। सब कुछ किस के लिए?

वर्तमान स्थिति यह है कि कठपुतली कॉलोनी के पास बसे न्यू पटेल नगर के घरों को भी तोड़ने का नोटिस जारी कर दिया गया है। ये वो घर हैं जो ना परियोजना का हिस्सा हैं और ना ही इन घरों में रहने वाले लोगों के लिए किसी तरह का पुनर्वास तय किया गया है। अब इन घरों में रहने वाले लोग भी अपना संघर्ष तेज़ कर रहे हैं। फिर भी प्रशासन अडिग है, घर तोड़ने हैं, क्योंकि वहां सड़क का निर्माण करना है। क्या फर्क पड़ता है? लोग समझौता कर लेंगे। विकास किसी के अधिकार और सुविधा जैसी मामूली मुद्दों से कैसे समझौता कर ले? विकास की एक एक कीमत होती है। परिवर्तन के लिए आहुति तो देनी ही पड़ती है। कठपुतली कॉलोनी कीमत भी चुका रहा है और आहुति की तो कोई सीमा ही नहीं है।


हिमशी सिंह के इनपुट के साथ अंकित झा
फोटो – अंकित झा, अंशुल वर्मा, हिमशी सिंह, अमित कुमार

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