उत्तर प्रदेश में जब-जब किसी राजनीतिक दल की सरकार बनती है तो वह अपने प्रदेश में अपने रंग की एक नई छाप छोड़ती है। जब सन् 2007 में प्रदेश में बसपा की सरकार रही तो प्रदेश भर में उसने इस प्रकार की परंपरा की कुछ एेसी ही शुरुआत की। प्रदेश में ज़्यादातर जगहों को नीले रंग से भर दिया गया। जैसे कि नीला रंग मुफ्त का हो।
सरकारी वाहन हो, कार्यालय हो, मूर्तियां हो या कुछ और। मूर्तियों को बनाने को लेकर विपक्षियों के सवालों के घेरे में घिरी बसपा को अपनी प्रदेश सरकार की सत्ता से बेदखल होना पड़ा, जिसके बाद सपा का प्रदेश में दबदबा बना और पूर्ण बहुमत के साथ एक नए युवा (अखिलेश यादव) चेहरे को लेकर सपा ने प्रदेश सरकार की कमान संभाली। लेकिन, उन्होंने भी वही विचारधारा अपनाई जो पूर्व सरकार खैरात में छोड़ गई थी। उन्होंने भी कुछ वही किया जो पूर्व में होता रहा। सपा ने भी पूरे प्रदेश भर में लाल और हरे रंग को लहरा दिया। पुराने लिपे-पुते पेंट को हड़बड़ा कर झट से हटाने की ज़ोर-शोर से योजना चलाई गई और दुनिया भर का पैसा बेवजह में यूं ही बर्बाद कर दिया गया।
नए पौधे लगाए गए, प्रतिक्षालय बनाए गए, उन सभी के ऊपर भी एक छोटी सी लाल और हरे रंग की पट्टी चढ़ा दी गई। बसों पर भी अपनी लाल और हरे रंग की पहचान की छाप छोड़ दी गई। सत्ता का ध्रुवीयकरण कुछ ऐसा रहा कि ये दोनों ही पार्टियां रंगों में ही उलझी रही। जहां प्रदेश विकास को धरातल पर लाकर आमजन के हितों को ध्यान में रख फोकस करना चाहिए था, उसे नज़रअंदाज़ किया गया।
गलती का परिणाम उन्होंने भी 2017 विधानसभा चुनाव में भोगा, जो राजनीतिक दल (बीजेपी) कई वर्षों से वनवास काट रही थी, प्रदेश की जनता जनार्धन ने उनका वनवास समाप्त करने का निर्णय लिया और अब उन्हें प्रदेश में बड़ा बदलाव लाने के लिए चुना। बीजेपी ने जनता जनार्धन के आर्शीवाद से ज़बरदस्त बहुमत पाकर जीत की एक नई छाप छोड़ी।
लेकिन, सत्ता में विराजमान होते ही ये भी कुछ उसी रंग में मिल गए। जो परंपरा 2007 से चली आ रही थी उसी पुरानी विचारधारा को इन्होंने भी लपक लिया। ये भी ठीक कुछ उसी राह पर चलने लगे जो पूर्व के राजनैतिक दलों की सरकार के समय नीतियां चल रही थी। ज़िले भर में बने बस स्टैंड प्रतिक्षालय इन्होंने भी ताबड़तोड़ पोतकर भगवा करवा डाला। राशन कार्ड के कवर पर छपी पूर्व सरकार के मुखिया की तस्वीर को कवर से जल्द उतरवाना प्रथम श्रेणी में रखा गया। राशन कार्ड को भी डिज़ायनर तरीके के साथ तैयार किया गया। पूर्व की माया सरकार की “माया पेंशन योजना” का अंत “समाजवादी पेंशन योजना” ने किया तो आज मौजूदा सत्तारूढ़ी बीजेपी की योगी सरकार ने उस पूर्व की समाजवादी पेंशन योजना का नाम ही बदल डाला और अब आ गई “अटल पेंशन योजना”।
तात्पर्य ये है कि योजनाओं के नाम बदलने पर ही क्यों प्रदेश सरकारे ज़ोर देतीं हैं, नाम प्रदेश के मुखिया बदलते हैं, लेकिन आमजन को उसका प्रभाव और दिक्कतें क्यों झेलनी पड़ती हैं? कासगंज ज़िले की आज एेसी स्थिति है कि मौजूदा सरकार ने पूर्व की पेंशन योजना का नाम जब से समाप्त किया है तब से हज़ारों-हज़ारों तक की पेंशन सालों से लटकीं पड़ी हैं।
योजना में नाम बदलना फिर नया नाम चढ़ाना इस तरह की नीतियों के कारण कितने करोड़ों रूपयों का खर्चा बैठता है, क्या ये कभी किसी राजनैतिक दलों की सरकारों या उनके मुखियाओं ने यह जानने की जद्दोजहद जुटाई। उन्होंने कभी यह पहचानने की कोशिश की कि रूपयों की बर्बादी में नुकसान किसका होगा?
नाम हटाने और नए नाम चढ़ाने पर जितना नई राज्य सरकारें ज़ोर देतीं हैं काश अगर वे पूर्व के रूके पड़े राज्य के विकास कार्यों पर ज़ोर दें तो प्रदेश की तस्वीर कैसी होगी ? ज़रा सोचिए। हमारी राजनैतिक दलों की सरकारें दूसरे के द्वारा आमजन के लिए शुरू की गई योजनाओं का अंत करने के लिए क्यों बेकरार होती हैं। वे क्यों नहीं कोई नई योजनाओं को लाने पर ज़ोर देती हैं? नीति आयोग की रिपोर्ट में कुछ इसी कारण से उत्तर प्रदेश पिछड़ा प्रदेश बताया गया अगर समझदारी से प्रदेश सरकार ने किसी पूर्व सरकार की काट किए बिना प्रदेश में विकास पर ही ज़ोर दिया होता तो उत्तर प्रदेश का नाम पिछड़े राज्यों की सूची में न आता।
राज्य सरकार में चाहें कोई क्यों ना हो उसका एकमात्र ध्येय आमजन का विकास और प्रदेश विकास पर ज़ोर देना है न कि पूर्व की सरकारों की कटाक्ष पर कटाक्ष कर महत्वपूर्ण समय को नष्ट करना। उन्हें भलीभाँति यह ज्ञात होना चाहिए कि प्रदेश जनता जनार्धन ने आपको प्रदेश के विकास के लिए चुना है न कि बातों के लिए ।