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“मेरी महिला मित्रों ने पीरियड्स को लेकर वे बातें बताईं जो मैंने कभी सोची तक नहीं थी”

बचपन में अपने घर में सूती साड़ी और धोती के दो तीन तह किये कपड़े के छोटे-छोटे टुकड़े देखता था, तो समझ में नहीं आता था, यह किसने रखा। कभी पूछा भी नहीं। किशोरावस्था तक यह बात पता नहीं चली।

जब कॉलेज गया तब पता चला कि ‘मासिक’, ‘मंथ’ या ‘पीरियड्स’ जैसी कोई चीज़ होती है, जिससे लड़कियों को हर महीने गुज़रना पड़ता है। कभी भी घर में इसपर बात हुई हो, ध्यान नहीं है। अब भी नहीं होती। हमारे समाज में पीरियड्स पर बात करना आज भी टैबू है।

पीरियड्स

आज प्रशान्त ने जब पीरियड्स पर लेख लिखने को कहा, तो मैंने उससे कहा, “ज़्यादा जानकारी नहीं है”। उसने (पीरियड्स पर पुरुषों की अज्ञानता के सन्दर्भ में) कहा, “एक पर्सपेक्टिव यह भी हो सकता है।” फिर मैंने इसपर अपने दो साथियों से बात की और हैरान रह गया। ऐसी ऐसी बातें, जो मैं आज के पहले कभी सोच भी नहीं सकता था। उनमें से कुछ बातें मैं यहां रख रहा हूं।

प्रोफेसर ने पीरियड्स के दौरान प्रणाम करने से मना किया

मेरी यूनिवर्सिटी की एक मित्र बताती हैं कि जब वह BHU में पढ़ रही थी, तो वहां एक प्रोफेसर थी। वे कहती थीं कि जब पीरियड्स स्टार्ट हो जाएं, तब किसी को प्रणाम नहीं करना है। नहीं तो छूत हो जाएगी।

वो आगे बताती हैं,

आसपास लोग सुनकर हंस देते थे। हमें बहुत ही शर्मिंदगी उठानी पड़ती थी, यह सब सुनकर। जबकि यह वह समय होता है, जब लोगों से सहयोग और देखभाल की ज़रूरत होती है। पीरियड्स के साइकिल के समय में, ब्रेस्ट, कमर आदि में दर्द होता है, पर ज़्यादातर परिवारों में आज भी लोग उनकी ज़रूरतों के प्रति संवेदनशील नहीं होते।

उन्होंने परिवार के रवैये के बारे में बताते हुए कहता हैं,

कई परिवार में तो उस दौरान उसे अलग कमरे तक सीमित कर दिया जाता है। अगर महिला की शादी हो गयी हो, तो पति को भी जाने से मना किया जाता है। यह वह समय होता है, जब महिला को तनाव और उपेक्षा के दौर से गुज़रना पड़ता है।

एक लड़की को अलग से रूम में रहने को कहना, किचन में जाने से मना करना और पूजा पाठ भी नहीं करने देना क्या ज़्यादती नहीं है? वह बताती है कि खाना खाने के समय भी कई बार जानबूझकर खाना ऊपर से गिरा दिया जाता है। कहीं खाने वाली थाली से किचन के दूसरे बर्तन छू ना जाये।

पीरियड्स

आज भी पैड खरीदना चुनौती है

ज़्यादातर मामलों में सैनेटरी पैड भी महिलायें ही खरीदती हैं। कभी-कभी कुछ परिवारों में ज़रूर पुरुष भी खरीदने लगे हैं। जब कोई महिला पैड खरीदने जाती है, तो उस समय देखती है कि कोई पुरुष खड़ा तो नहीं है। उसपर भी चुपचाप खड़ा हो जाने पर कुछ दुकानदार कागज़ में लपेटकर पैड दे देता है। यह समझदारी, पता नहीं पॉज़िटिव है या निगेटिव, पर आसपास के लोग समझ जाते हैं, कोई कुछ नहीं बोलता।

यदि किसी लड़की ने सबके सामने पैड मांग लिया, तो उसे घूर के देखते हैं और उसे बद्तमीज़ अथवा संस्कार-विहीन समझा जाता है। आज भी यह स्थिति जारी है। कुछ मुंहफट दुकानदार ऐसे भी होते हैं कि कहेंगे कि “मैडम दवा ले लीजिये, दर्द हो रहा होगा।” जैसे बहुत हमदर्द हों, लेकिन ऐसा नहीं है। अपवादों को छोड़कर वे शर्मसार ही करते हैं।

इतना ही नहीं, हर माह साइकल शुरू होने का समय दो-तीन दिन घट जाता है। देर होने पर घर वाले परेशान हो जाते हैं। एक बार एक माँ ने साइकिल शुरू होने में देरी होने पर पूछा,

कहीं तुम्हारा बलात्कार तो नहीं हुआ है? अगर हुआ हो तो बोलो, हम एबॉर्शन करवा देंगे।

कभी पैड के लिए उस दर्द में ही भागना पड़ता है, तो कभी डर और शर्म कि कहीं दाग न लग जाये। ऐसी सामाजिक सोच महिलाओं के प्रति ही क्यों? क्यों कोई पुरुष पीरियड्स के दौरान साथी बन कर उस दर्द और परेशानी को बांटने की तथा देखभाल करने की ज़िम्मेदारी नहीं निभा सकता?

पीरियड्स की चेकिंग के लिए कपड़े उतरवाना

मध्य प्रदेश के सागर जिले में स्थित एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी ‘डॉक्टर हरि सिंह गौर यूनिवर्सिटी’ में तो सेनेटरी पैड मिलने पर छात्राओं के कपड़े उतरवाने का मामला सामने आया था। यूनिवर्सिटी में चेकिंग के नाम पर करीब 40 छात्राओं के कपड़े वार्डन ने उतरवाए थे।

इस घटना से पता चलता है कि पुरुष तो पुरुष, बहुत सारी महिलाएं भी पीरियड्स को अछूत और कपड़े में दाग लगने को शर्मनाक समझती हैं। सुविधा के आभाव में पैड का फेंका जाना मानो गुनाह। इस असंवेदनशीलता पर क्या कहें? एक बायोलॉजिकल प्रक्रिया को समाज ने कैसे नॉर्म में बदल दिया है?

मध्य प्रदेश के ही एक विश्वविद्यालय ‘सांची बौद्ध भारतीय ज्ञान अध्ययन विश्वविद्यालय’ में ही जब एक लड़की ने अन्य दूसरी समस्याओं के साथ ही ढक्कन वाले डस्टबिन की मांग की, तो हॉस्टल के अधिकारी ने उस लड़की को व्यक्तिगत तौर पर अपने पास बुलाकर कहा,

यह बात वहां सबके सामने बोलने की क्या ज़रूरत थी, तुम अकेले में भी बोल सकती थी।

यह टैबू हर जगह है। हर जगह चुप्पी है। कोई इसपर बात नहीं करना चाहता।

‘पीरियड। एंड ऑफ सेंटेंस’ फिल्म का दृश्य।

पीरियड्स से जुड़े सामाजिक टैबू

पीरियड्स के दौरान दर्द, उपेक्षा और शर्म उससे आगे चलकर पितृसत्ता तक से भी जुड़ती है। जहां महिला को कमज़ोर और अछूत समझा जाता है जबकि सच्चाई से इसका कोई वास्ता नहीं है।

कुछ बातें जो पीरियड्स से जोड़कर वे सोचती हैं जिसका जवाब खुद कई लड़कियों के पास नहीं होता, हालांकि यह सवाल होना सामाजिक टैबू की ही देन हैं। वे हैं:

कई लोग पुरुषों की श्रेष्ठता साबित करने के लिए यह तक कह जाते हैं कि प्रकृति महिला को पुरुष से कमज़ोर बनाया है। तुम कितना कुछ भी कर लो तुम पुरुषों की बराबरी नहीं कर सकती।

फिल्म पैडमैन का दृश्य

इस तरह से पीरियड्स से जुड़े ये सामाजिक मानदंड पितृसत्ता से जुड़ते हैं, जिसका उद्देश्य है महिला को कमतर साबित करना और उसे दोयम बनाये रखे जाने की साज़िश बरकरार रखना।

सबसे दर्दनाक बात तब होती है कि आप हॉस्पिटल जाते हैं, उस समय जब अधिक ब्लीडिंग होती है या बन्द हो जाती है, तो आपसे पूछते हैं कि किस के साथ सोयी हो? कितने बॉयफ्रेंड हैं? ऐसा पूछना हमारे लिए चुभने वाला होता है। पर हम कुछ नहीं कर पाते। आसपास हॉस्पिटल के स्टाफ हंसने लगते हैं।

एक और दोस्त ने अपने अनुभव बताये और कहा कि जब उसके यूटरस में प्रॉब्लम था तब उसकी मां ने कहा,

मेरी बेटी तो अन-मैरिड है। फिर कैसे?

वह सवाल करती है,

यानी यूटरस में कोई प्रॉब्लम हो, पीरियड्स में अधिक रक्त स्राव हो, पीरियड्स बिल्कुल रुक जाये अथवा अन्य कोई बात, कई बार लोग इसे सेक्स से क्यों जोड़ देते हैं?

ओडिशा में हर साल रजस्वला होने को लेकर मेला भी लगता है। ऐसा समझा जाता है कि लड़की सृजन के लिए तैयार हो गयी है। जाजपुर में, पहली बार पीरियड्स होने को ‘रजोवती’ होना कहते हैं और पूरे बाजा-गाजा के साथ लड़की को गाँव में घुमाया जाता है।

यह लड़की के लिए कितना शर्मनाक होता है, कोई नहीं सोचता। उसके बाद पीरियड्स पर बात करने से मनाही होती है। समाज का यह दोहरा चरित्र क्यों? ओडिशा की वह मित्र कहती हैं,

पीरियड्स को प्योरिटी और पोल्युशन से क्यों जोड़ा जाता है जबकि ये कुदरती प्रक्रिया है, जो सृजन के लिए भी ज़रूरी है। लड़की को यह बताना कि वह शिव मंदिर सात दिन के बाद जा सकती है और मां के मंदिर चार दिन के बाद। यह सब क्यों?

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आभार :अपनी दो महिला मित्रों का बहुत-बहुत आभार जिन्होंने इस विषय पर अपने बहुमूल्य अनुभव और जानकारी मुझसे साझा किया। यूथ की आवाज़ के प्रशान्त को भी धन्यवाद कि उसने मुझे इस विषय पर लिखने को प्रेरित किया।

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