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टीपू से सुल्तान तक: यूपी का वो मुख्यमंत्री जो अपनों से हारा!

टीपू से सुल्तान का सफर – भाग – 1

कर्नाटक चुनाव के नाटकीय समापन के बाद सबसे छोटे दल के नेता कुमारस्वामी ने पूरे तौर पर पिता एचडी देवगौड़ा की राजनीतिक विरासत संभाल ली है और वो ही मुख्यमंत्री पद की शपथ भी लेगें। इसी तरह कई ऐसे नेता पुत्र हैं जिनका राजनीतिक सफर अच्छा रहा है। भारतीय राजनीति मे क्षेत्रीय दलों के बढ़ते प्रभाव के बीच आज आपको भारतीय राजनीति की एक बड़ी क्षेत्रीय पार्टी और उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार के वशंज युवा सदस्य के राजनीतिक सफर की दास्तान सुनायेगें जो अपनो की नाराज़गी के बीच पिता की विरासत संभालते हुए मुख्यमंत्री बना और अपनी सारी मेहनत उस नाराज़गी के बढ़ने के साथ गंवा बैठा।

यूपी के रहने वाले जब कुछ वर्ष पीछे देखेंगे तो 5 साल की सपा सरकार के जाने के बाद मायावती की सरकार पर भ्रष्टाचार के कई आरोप लग चुके थे, सत्ता का केन्द्र नौकर शाही ही मानी जाती थी और जनता बसपा सरकार से नाराज़ थी। 2012 का विधानसभा चुनाव नज़दीक था,  इस समय सपा खुद को एक विकल्प के तौर पर काँग्रेस और भाजपा से मज़बूत मान तो रही थी लेकिन मुलायम सिंह यादव की बढ़ती उम्र और सपा का प्रदेश में बिखरता युवा एव छात्र राजनीति का जनाधार एक बड़ा संकट था आखिर वो कौन शख्स था जो मुलायम के साथ सपा के चुनाव अभियान और विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व कर सकता था और जनता को जोड़ सकता था।

सपा में नेता तो बहुत थे मगर जब बात बसपा की दबंग छवि से टक्कर लेने की आई तो उनके खुद के दबंग राजनीतिक जीवन और जोड़-तोड़ की राजनीति ने उनके पांव बांध दिये। अब सपा के पास नौजवान पढ़े-लिखे मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिये एक ही चेहरा विकल्प था जो पार्टी से सासंद था, पार्टी का राष्ट्रीय युवा प्रभारी था और पार्टी सुप्रीमो का पुत्र भी था। ज़ाहिर है मुलायम को इससे भरोसेमदं और पढ़े लिखे नौजवानों का नेता पार्टी मे कहां मिलता, ये नेता थे अखिलेश यादव। 

अखिलेश यादव ने ऑस्ट्रेलिया से लौटने के बाद डिम्पल यादव से घर वालों के समक्ष प्रेम विवाह किया था। और हनीमून पर घूमने गये अखिलेश यादव को नेताजी के एक फोन ने राजनीति में ला दिया। अखिलेश वापस लौटे और यहां सांसदी उनका इन्तज़ार कर रही थी। अखिलेश यादव ने नेताजी के कहे अनुसार पर्चा भरा और उनको अचानक से सासंदी के चुनाव मे उतार दिया गया। मुलायम के राजनीतिक वारिस अखिलेश यादव चुनाव जीते और राजनीति की कठिन डगर पर चल पड़े।

मुलायम सिंह के साथ अखिलेश यादव

2012 विधानसभा चुनाव के समय तक राष्ट्रीय युवा प्रभारी के पद पर रहते हुये अखिलेश यादव पार्टी में दूसरी पीढ़ी के पढ़े-लिखे युवा नेताओं की एक जमात तैयार कर चुके थे और कर रहे थे और पार्टी की मुख्यधारा की राजनीति मे ज़रा कम दिलचस्पी ले रहे थे या यूं कहा जाये की सही वक्त और बेहतर मौके की तलाश मे थे।

अखिलेश ने छात्रसंघ चुनाव बंदी, और भ्रष्टाचार समेत कई मुद्दे उठाकर नौजवानों को एकजुट किया और सड़क पर बसपा सरकार के खिलाफ उतर पड़े। युवाओं को प्रदेश मे एक युवा नेता की दरकार थी जो बदलाव लाने की कोशिश करे और सड़क पर धूप मे पुलिस प्रशासन की लाठियो से झूजते अखिलेश उसे अपने से लगे, मुलायम सिंह का बेटा, ऑस्ट्रेलिया से इंजिनियरिंग कर लौटा एक युवा प्रदेश की सड़कों पर था आम जनमानस के बीच अखिलेश अपनी छवि बनाते चले गये।

अखिलेश ने चुनाव से पहले क्रांति रथ यात्रा निकाली गांव-देहात पहुंचे छोटी-छोटी सभाएं की सड़क पर पैदल चलें, साइकिल चलायी। अखिलेश यादव के पीछे अब अपार जनसमर्थन दिखने लगा था और अखिलेश भी अब यूपी की सियासत की नब्ज़ पकड़ चुके थे लेकिन उनको अंदाज़ा था कि यूपी की राजनीति आसान नहीं है।

क्रांति रथ के माहौल, सत्ता विरोधी लहर और अखिलेश की तैयारी ने सपा की सरकार बनवा ही दी। अब तक बैसाखियों से चल रहे समाजवाद ने बहुमत का आकड़ा पार कर लिया था। अब मुख्यमंत्री पद की शपथ होनी थी और मुलायम सिहं को फिर से इस राजगद्दी पर बैठना था पर मुलायम आने वाले वक्त की ओर देख रहे थे उन्हे अपनी राजनीतिक विरासत भी तय करनी थी और अखिलेश यादव की इस छवि और चेहरे को बरकरार भी रखना था।

मुलायम सिहं यादव का निर्णय क्या था? अखिलेश क्यो मुख्यमंत्री बने? और नाराज़गी के वो बीज समाजवाद के परिवार में कैसे पनपे? जिनसे अखिलेश को 2017 में दो चार होना पड़ा। ये सब इस लेख के अगले भाग मे!

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