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जिस देश को वैज्ञानिक राष्ट्र बनना था, वहां पोंगापंथी मान्यताओं का बोलबाला है

JNU के साबरमति ढाबे पर पकौड़े और चाय के साथ दो युवा आपस में बात कर रहे थे कि हम भारतीय बहुत ही भावुक लोग हैं, बहुत जल्द ही किसी के उटपटांग बयान को तरजीह दे देते हैं। इससे भी अधिक खतरनाक तो यह है कि उनके फैलाए संकीर्ण बयान को मान्यता देते हुए हिंसा को भी अपनी सहमति देने में देरी नहीं करते हैं।

मैंने उनकी बातों में दखल देते हुए कहा, “दादा-नाना ने बचपन में सिखाया था कि जब किसी विषय पर जानकारी ना हो तो तीसमार खान नहीं बनाना चाहिए। आज हम देश में तमाम अटपटे  बेसिर-पैर बयानों पर मनोरंजन तो करते ही हैं, सोशल मीडिया पर स्टेट्स टैग भी करते हैं। उससे व्यथित नहीं होते हैं, ये हमको बैचेन नहीं करता है, कोई अपने उल-जलूल बयान से हमारी अब तक की पढ़ी-लिखी सारी मान्यताओं की धज्जियां उड़ा देता है और हम उससे सिर्फ मनोरंजन भर करते हैं।

यह बातचीत चल ही रही थी कि मोबाईल पर कुछ खबरों के अपडेट मिले। पहली खबर, अच्छे मौनसून के लिए गुजरात सरकार हवन करेगी। दूसरी खबर, गुजरात के स्कूलों में बच्चों को पंक्चर लगाने का प्रशिक्षण दिया जाएगा और पहले आदिवासी नेता थे हनुमान, प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए युवा साथी प्रतिदिन एक घंटा हनुमान चालिसा का पाठ करें।

मैंने  खबरें दोनों युवाओं को सुनाई और गोयबल्स के सिद्दांत के बारे में बात में करने लगे। “कोई बड़ा झूठ यदि बार-बार दोहराया जाए तो धीरे-धीरे लोग उसे सच मानने लगते हैं।” वो झूठ धीरे-धीरे हमारे अपने विचार या निर्णय का हिस्सा बन जाता है। हाल के दिनों हवनों के साथ अच्छे मौनसून को इस तरह जोड़कर प्रचारित किया जाता रहा है कि अच्छे मौनसून के सारे वैज्ञानिक तर्क हवा होते जा रहे हैं।

सोचने वाली बात यह है कि इस तरह के पोंगापंथी मान्यताओं को लोग बयान की शक्ल में हमारी पीढ़ी के सामने तश्तरी में सजाकर पेश क्यों कर रहे है? इसपर ठहर कर सोचने की ज़रूरत युवा पीढ़ी को सबसे अधिक है, क्योंकि निशाने पर तो युवा और वैज्ञानिक चेतना ही है, जो अब तक उन्होंने स्कूल-कॉलेजों से अर्जित की है। हुज़ूर, निशाने पर तो हम युवा ही हैं, तभी तो हमको पकौड़े तलने, पंक्चर बनाने और हनुमान चालीसा की नसीहते मिल रही हैं।

कोई भी संगठित तंत्र किसी भी बात को योजनाबद्ध ढंग से लगातार दोहराकर समाज के बड़े हिस्से को अपना कायल बना सकता है। गोयबल्स के फॉर्मूले का फायदा राजनीति में खूब लिया जाता है। तभी तो शीर्ष पदों पर बैठा व्यक्ति अपने बयानों से समाज को कूपमंडूता की तरफ ढकेले जा रहा है और उसकी राजनीति है इसलिए उनके बयानों पर बचाव भी किया जा रहा है।

देश की राजनीति में शीर्ष पर बैठे लोगों की लिस्ट काफी लंबी है जो लगातार इस तरह की बयानबाजी कर रहे हैं, जिसका तार्किकता से कोई लेना-देना नहीं है। ये किसी एक राजनीतिक दल का मामला नहीं है इस तरह के बयान वीर हर दलों में शुमार रहते हैं, जिनके बयानों में ना ही वैज्ञानिक चेतना होती है ना ही लोकतांत्रिक समाज में किसी भी व्यक्ति के लिए सम्मान। इनके बयानों ने महिलाओं के अस्मिताओं को भी तार-तार किया है।

हालिया विप्लब देव तो बयानों के इस कक्षा के नए विधार्थी हैं, जिन्होंने इंटरनेट, सैटेलाइट को महाभारत युग का आविष्कार बताया उसके बाद मैकेनिकल इंजीनियर को नौकरशाही में नहीं जाने की नसीहत दी और विश्व सुंदरी डायना हेडन पर भी सवाल खड़े किए। इन बयानों की सूची में और भी कई लोगों के बयान है मसलन, कोई चार्ल्स डार्विन के सिद्धांत के विकासवादी सिद्दांत को अर्नगर्ल बता रहा है, तो कोई गाय के बारे में बता रहा है कि गाय ऑक्सीजन ही सांस के साथ अंदर लेती है और ऑक्सीजन ही सांस के साथ बाहर छोड़ती है।

कोई गाय के गोबर से बंकर बनाने की वकालत कर रहा है, तो कोई किसानों के आत्महत्या का हल योग बता रहा है। दुख यह है कि स्वयं प्रधानमंत्री भी इस तरह के गलत बयानबाजी में पीछे नहीं रहे हैं।

अधिक चिंताजनक बात यह है कि जिस देश को वैज्ञानिक मिज़ाज का राष्ट्र बनना चाहता था, वह राष्ट्रवाद के नाम पर पोंगापंथी मान्यताओं का विरोध करने में भी संकुचित हो रहा है क्योंकि अवैज्ञानिकता और पिछड़े विचारों के विरोध में साहित्यकार, डॉक्टर और पत्रकारों को अपने जान से हाथ धोना पड़ा है।

संकीर्ण विचारों के बीच हिंसा और उसको जायज ठहराते हुए बंटा हुआ समाज हमें यही बताता है कि या तो हमको भी गैलीलियो की भांति चुप हो जाना चाहिए या भावी युवा पीढ़ी में वैज्ञानिक चेतना को बनाये रखने के लिए अभिव्यक्ति के खतरे उठा लेने चाहिए। क्योंकि गैलीलियो का वक्त राजशाही का था जबकि हमारा वक्त लोकतांत्रिक होने का दावा करता है। और कोई भी जागरूक लोकतंत्र इस समस्या की चुनौति को महसूस कर सकता है कि आगे बढ़ते देश में पीछे देखते लोगों से मुक्त करना ज़रूरी है।

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नोट- यह लेख पहले womenwomenia पर प्रकाशित हो चुका है।

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