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“बच्चों की दुनिया का अनोखापन वयस्क क्यों खत्म कर रहे हैं?”

जीवन की आपाधापी में फंसे हम वयस्क अक्सर सुखद अनुभूतियों की स्मृतियों के सहारे जीवन-रसना की मिठास बनाये रखते हैं। वयस्क स्मृतियों की सीमा है। हमारा बचपन, जो सुखदानुभूतियों का खजाना है, के बारे में अधिकांश बातें विस्मृत हो चुकी होती है। मां या पिता की भूमिका में खुद के बच्चे को बड़ा होते देखना बचपन की इन्हीं अनुभूतियों से खुद को जोड़ने की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में एक बार पुनः बचपन की अनुभूतियों को हम वयस्क की भूमिका में जीते हैं।

अपने-अपने बच्चों की छोटी किंतु अनोखी दुनिया पर विचार कीजिए। आप पाऐंगें कि हर बच्चा आहिस्ता-आहिस्ता दुनिया की खोज करता चलता है। अपनी इस खोज-यात्रा में वह दुनिया को अपनाता चलता है। वह ऐसा साहसी खोज-यात्री होता है जो कोई भी प्रयोग करने और किसी भी दिशा में बढ़ने से गुरेज़ नहीं करता। अपरिचित का आलिंगन हो या मां के दूध के अलावा अन्य आहार; घुटनों के बल चलना हो या छोटे पैरों से आसपास की दूरी को नाप लेना; अर्थ हीन ध्वनि द्वारा बोलने की संभावना को प्रकट करना हो या किसी वस्तु को सुविधानुसार संकेत अथवा शब्द प्रदान करना। सार्थक शब्द द्वारा मनुष्यों के समुदाय से संप्रेषण करना हो या बिना सहारे के स्वतंत्र चलना; ये सभी कार्य उसके साहस का प्रकट रूप हैं जिसके द्वारा वह अपने लिए दुनिया में जगह बनाता है।

बच्चे का साहस ही दुनिया के सापेक्ष उसकी पहचान को जन्म देता है। उसके आत्म को खड़ा करता है। इस साहस को माता-पिता के विश्वास से सम्बल मिलता है। मां की गोद में घूमती बच्ची को मां के हाथों और कंधों पर पूरा भरोसा रहता है। उसे यह भी भरोसा रहता है कि उसकी मां उसे वह सब कुछ दिखाएगी जो वह देखना चाहती है। बिना शब्दों के प्रयोग के ऐसा बंधन बन जाता है जो मुस्कान और हंसी में प्रकट होता है। इसी साहस और विश्वास का मिश्रण बच्चे की दुनिया का विस्तार करता है। इस विस्तार में उसके लिए प्रकृति और मनुष्य की सत्ताएं अलग नहीं हैं बल्कि एक ही हैं। उसके लिए कोई तिनका वैसे ही मूल्यवान है जितना कि कोई करीबी रिश्तेदार। वह कबूतर के बालकनी पर बैठने से वैसे ही खुश होता है जितना कि मां को अपने पास देखकर। उसके लिए क्या जंगली क्या पालतू सभी जानवर एक जैसे होते हैं।

देखा जाए तो जंगली या पालतू होने का भेद हमने अपनी अनुकूलता और प्रतिकूलता के आधार पर किया है। हम वयस्क जो कुछ भी अनुकूल नहीं है उसे जंगली कहकर काट-छांट देना चाहते हैं। चाहे वह जानवर हो, वनस्पति या मनुष्य स्वयं। यह काट-छांट जनित बंधन और कृत्रिमता बच्चे की दुनिया के तत्व नहीं है। वर्तमान में बच्चे ही मनुष्य जाति के ऐसे प्रतिनिधि है जिनमें कृत्रिमता न के बराबर है। उन्हें अपने जैसा वयस्क बनाने में हम लगातार कृत्रिमता का प्रशिक्षण देते हैं।

यहां कृत्रिमता और व्यवहार के परिष्कार में भेद करना आवश्यक है। व्यवहार में परिष्कार जैसे-खुद को सुरक्षित और स्वच्छ कैसे रखना है? क्या खाना है? कैसे अभिवादन करना है? की सीख देते हुए जहां-जहां हम ऊंच-नीच, अपना-पराया की विभाजक रेखाएं खींचते जाते हैं वहां-वहां कृत्रिमता हावी होती जाती है। बच्चा भी अपने सीखने की क्षमताओं का प्रयोग करते हुए खुद को कृत्रिमता में दक्ष कर लेता है। धीरे-धीरे वह सच-झूठ, अपेक्षित-अनपेक्षित, अनुकूल और प्रतिकूल व्यवहार को समय-स्थान के अनुसार करना सीख लेता है।

आरंभ में जब हम अपनी खींची विभाजक रेखाओं से उसे परिचित कराना चाहते हैं तो बच्चा उसके ‘बाहर‘ जाने का उत्साह दिखाता है। तभी तो हम जब-जब दरवाज़े और खिड़कियां बंद करते हैं बच्चा अनायास ही इनकी ओर उंगली उठाकर बाहर जाने की ज़िद करता है। लेकिन धीरे-धीरे जब वह इन कृत्रिमताओं को आत्मसात कर लेता है तो वह केवल खिड़कियां और दरवाज़े बंद करना नहीं सीखता बल्कि इसी बहाने वह अपने विवेक और संवेग की सीमाओं को भी परिभाषित कर लेता है। अपनी प्राथमिकताएं तय करने लगता है। हम वयस्क इस तरह से उसके बड़े होने पर प्रसन्न होते हैं। लेकिन यह भूल जाते हैं कि कुछ ही वर्षों में वह बच्चा ऐसा वयस्क बनेगा जो जीवन की कृत्रिमता ओढ़े जीवन को ढो रहा होगा!

इसे नियति कहकर टालना वयस्कों की भूमिका नहीं होनी चाहिए। इसमें नियति की क्या भूमिका? जीवन का सीमांकन, कृत्रिमता का समावेश, दुनिया को सीमित और उलझन भरा हमने बनाया और जब इसके परिणाम अनुकूल नहीं आए तो दोष नियति को दे दिया। मुश्किल यह है कि जैविक प्राणी होने के कारण हमारी उम्र समय के सापेक्ष बढ़ती जाती है। इसी के साथ हमारी दुनिया भी विस्तृत होती जाती है। क्रमशः हम जीवन को स्वतंत्र करने के बजाय कृत्रिमता के बंधनों में बांधने लगते हैं।

जीवन प्रयोग और नये की खोज के लिए है। इसके लिए प्रकृति ने उद्यम करने की शक्ति दी है। इस शक्ति द्वारा हम अपने विचार और भाव जगत को उद्दीप्त कर सकते हैं। विडंबना देखिए वयस्क बच्चे को उसके शक्ति की अनुभूति कराने के बदले अपरिपक्वता के नाम से बाहर की प्रतिकूलताओं का बोध कराने लगता है। इन प्रतिकूलताओं के माध्यम से डर पैदा होता है। उदाहरण के लिए जिन दीवारों को सुविधा के लिए हम बच्चे के चारों ओर खींचते हैं उसके बाहर बिल्ली, शेर और बच्चों को उठा ले जाने वाला लकड़सूंघवा होता है।

इस जैसे काल्पनिक डर बच्चे की दुनिया के दो हिस्से कर देते हैं। एक ऐसा हिस्सा जहां वह सुरक्षित है और दूसरा ऐसा हिस्सा जहां वह असुरक्षित। अब वह अपने आसपास की प्रत्येक वस्तु को इन्हीं दो वर्गों के रखकर समझने लगता है। लेकिन जिसे वह सुरक्षित के वर्ग में रख रहा है ऐसा ही कोई उसे ‘असुरक्षित’ कर दें तब वह बच्चा क्या करेगा? सवाल अटपटा है लेकिन कभी-कभी वयस्कों की जीवन-रसना, काम-वासना बनकर बचपन की सुखदानुभूतियों का शोषण करने को उतावली हो जाती है। दुनिया का पवित्रतम कार्य बच्चे को बड़ा करना है। लेकिन क्या इस उद्यम की पवित्रता को हम बनाए रखते हैं?

कोई छोटा बच्चा जब सुबह आंख खोलता है तो वह मुस्कुराता है। उसकी इस मुस्कान को देखकर उसके माता-पिता झट सोचते होगें कि इसे काला टीका लगा दूं कहीं किसी की नज़र न लग जाए। बचपन के इसी अनोखेपन के कारण साहित्य, विज्ञान और कला या इस जैसे अन्य बौद्धिक और सांवेगिक यत्नों में बचपन को लेकर सर्वाधिक परिकल्पनाएं और अध्ययन किए गए हैं। इन अध्ययनों की कोई सीमा या अंत नहीं है। हर नया अध्ययन किसी न किसी रहस्य का उद्घाटन करता है। हर मां-बाप इस रहस्यमयी दुनिया का चमत्कारी आनंद लेते हैं। वे अपने अस्तित्व को संतान में विलीन कर देना चाहते हैं। यह अस्तित्व विलीनता का भाव एक तरह की मुक्ति है। इस मुक्ति में न तो दुनिया से आसक्ति है और न ही विरक्ति, न तो क्या पाया है इसका आडंबर और न ही क्या खोया है? इसकी उलाहना। इसमें केवल एक अभिभावक होने का सुख हैं। अपने माता-पिता के प्रति कृतज्ञता का भाव है। ईश्वर ने जिस सृजन बीज को हमारे माध्यम से रोपा है, उसे पुष्पित-पल्लवित करने की खुशी है, यह खुशी ही जीवन है।

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