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मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय में हर आंखों में सपनों को उड़ान भरते देखा है

दिल्ली विश्वविद्यालय को हमने हर इमारतों में, हॉस्टल के हरेक कमरों में, लाइब्रेरी की हरेक कुर्सियों पर, क्लासरूम के हरेक बेंचों पर, रात में सोने से लेकर सुबह उठने तक में, जोड़ों को बैठकर बात करते और दोनों के दिलचस्प अंदाज़ में या साजो-सज्जा से भरपूर आधुनिकता से भरे कपड़े पहनी लड़कियों में, उनके श्रृंगार में, सबकी आंखों में हमने हमेशा एक सपना पलते देखा है। शायद उनको उनके सपनों से ज़्यादा बेहतर इस दुनिया की कोई खूबसूरत चीज़ ना लगती हो। इसी सपनों को स्वीकार और साकार करने का काम दिल्ली विश्वविद्यालय करती है।

हमने यहां सपनों का पीछा करने वालों में वो जुनून देखा जो इंसान को कभी भी कमज़ोर और बुढ़ा नहीं होने दे सकता। जब सारी दिल्ली सोती है उस वक्त भी हमने उन सपनों वाली आंखों को जागते देखा है।

दिल्ली की तेज़ धूप में, आती-जाती महंगी-सस्ती गाड़ियों में लोगों को घूमते देखा है। तो उन्हीं सपनों वाली नैनों को डीटीसी के हरी, नारंगी बसों के पीछे भागते देखा है। हमने उनको लाखों-करोडों की भीड़ में गिरी पतली सुई को ढूंढ़ते देखा है।

किसी की आंखों में फिल्मकार, किसी की आंखों में आईएएस, किसी की आंखों में राजनेता, किसी की आंखों में लेखक तो किसी की आंखों में पत्रकार देखा है। हमने उन आंखों को बिना पलके झपके सपनों को देखते पाया है। उनकी बेबसी में, उनकी अंगराइयों में, उनकी सुस्ती में, उनकी बातों में, उनके जज़्बातों में, उनके वादों में हमने सपना देखा है।

इन सपनों में हमने नारियों का सम्मान देखा है। किसानों के लिए आदर देखें हैं। उनको जाति-प्रथा से ऊपर उठकर जीते देखा है। उनको सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ लड़ते देखा है। बेज़ुबानों के लिए आवाज़ भी हमने वहीं देखी है। हमने क्रांति देखी है। अधिकारों के लिए लड़कियों से लेकर लड़कों तक को लड़ते देखा है। हमने शोलों पर अंगारे देखें हैं। यहां की हर हवाओं में, फिज़ाओं के परिवर्तन में भी सपना देखा है।

वसूलों के लिए टकराते देखा है। सभी की ज़ुबां पर बाबा साहब अंबेडकर, भगत सिंह, स्वामी विवेकानंद से लेकर गीता, कुरान, बाइबल, वाल्टेयर, ओसो, प्रेमचंद्र, दिनकर, नेहरू और गांधी देखा है। हमने उनमें संविधान देखा है, इतिहास देखा है, समाज-शास्त्र देखा है, साइंस देखा है, अर्थशास्त्र देखा है। घड़ी की सुइयों की तरह हमने ज्ञान को घूमते देखा है। हर रात कमरे में होने वाली बहस में कोर्ट देखा है, मुजरिम देखा है, अधिकारी देखा है, नेता देखा है, एक्टर देखा है, संगीतकार देखा है, गीतकार देखा है, मॉडल देखा है, लेखक देखा है, आंदोलनकारी देखा है, और न जाने क्या-क्या देखा है।

उनको मैंने गाते देखा है, बजाते देखा है, हंसते देखा है, रोते देखा है, गिरते देखा है, और फिर उठते देखा है। यहां की हर आंखों में ही नहीं हरेक सांसों में, यहां की फिज़ाओं में, सजता-बिखरता, टूटता, बनता सपना देखा है। हमने दिल्ली विश्वविद्यालय देखा है। ना जाने पूरे भारत में ऐसी कई आंखें होंगी जो ऐसे ही कई सपनों को देख रही होंगी।________________________________________________________________________________

नोट- लेखक दिल्ली विश्विविद्यालय, साउथ कैंपस के छात्रसंघ के अध्यक्ष हैं।

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